क्या देश के प्रशासन को केवल अंग्रेजीदां और तोते की तरह रटे हुए अधिकारियों को सौंपा जा सकता है?
पिछली समीक्षा 2012 में हुई थी जिसके कुछ परिवर्तन सीसैट में लागू किए गए जो बहुत विवादास्पद रहे। अब तुरंत एक कमेटी पूरी परीक्षा की समीक्षा करे। प्रशासनिक सेवाओं में एक सबसे बड़ी खामी यह है कि इनके अधिकारी ज्यादातर भारतीय भाषाओं को नहीं जानते।
प्रेमपाल शर्मा। देश की सर्वोच्च सिविल सेवाओं में भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी द्वारा आयोजित परीक्षा के परिणामों की ऐतिहासिकता इस बात में है कि आजादी के बाद पहली बार तीन महिलाओं ने टाप किया है। देश की ज्यादातर अखिल भारतीय परीक्षाओं में महिलाओं का बेहतर प्रदर्शन इस देश के भविष्य के लिए शुभ संकेत है, लेकिन यह कहना अर्धसत्य होगा कि ये टापर ही सर्वश्रेष्ठ हैं। तीन चरणों में संपन्न होने वाली इस सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम में टाप करने या अंतिम रहने में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता। लगभग सभी अभ्यर्थी उतने ही मेधावी और मेहनती होते हैं। यहां तक कि जो कुछ नंबरों से चूक भी जाते हैं, उनकी भी क्षमताएं उतनी ही होती हैं। यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षो से इन्हें भी देश के दूसरे विभागों, उपक्रमों में लेने की चर्चाएं हो रही हैं, लेकिन अभी इस विचार को लागू किया जाना बाकी है।
पिछले कुछ वर्षो से देखने में आ रहा है कि सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम आते ही कुछ ऐसा शोर होने लगता है, मानो उम्मीदवारों को ओलंपिक में कोई पदक मिल गया हो। इनका महिमामंडन पहले से ही होता रहा है। मत भूलिए कि पिछली सदी के नौवें दशक तक इलाहाबाद (अब प्रयागराज), कलकत्ता (अब कोलकाता) और वाराणसी की प्रतिष्ठा आइएएस और आइपीएस में चुने जाने वाले उम्मीदवारों की वजह से ज्यादा थी। प्रयागराज को तो सिविल सेवा की तैयारी करने वाले छात्रों का गढ़ माना जाता था। इसीलिए उसे आक्सफोर्ड आफ ईस्ट भी कहते थे। आज उसकी जगह विशेष रूप से पिछले 20 वर्षो में जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय ने ले ली है। इनमें शिक्षा तो बेहतर है ही, उससे ज्यादा दिल्ली में उपलब्ध कोचिंग संस्थान, पुस्तकालय आदि की सुविधाएं भी हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि जो भी इन सुविधाओं को हासिल कर लेगा, वही सिकंदर। इन विश्वविद्यालयों पर सरकार का लाखों रुपये का खर्च आता है। यदि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) इतना ही पैसा छोटे शहरों के विश्वविद्यालयों को देने लगे और वहां के अकादमिक प्रशासन को भी वैसा ही चुस्त-दरुस्त कर दिया जाए तो कोई कारण नहीं कि वे छात्र पीछे रह जाएं। इससे दिल्ली जैसे महानगरों की तरफ पलायन पर भी रोक लग जाएगी।
सवाल है कि क्या देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं प्रशासनिक परीक्षाओं में बैठ रही हैं? शायद नहीं। दरअसल आइआइटी और मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए होने वाली परीक्षाएं भी उतनी ही कठिन हैं। कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तो आइआइटी की प्रवेश परीक्षा को और भी कठिन मानती हैं। वहां से निकले 70-80 प्रतिशत छात्र या तो विदेश का रुख कर लेते हैं अथवा फ्लिपकार्ट आदि स्टार्टअप के जरिये देश के विकास में और भी बेहतर योगदान देते हैं। इनमें से बहुत सारे निजी कंपनियों के कुछ कटु अनुभव के बाद सिविल सेवा परीक्षाओं की तरफ लौटते भी हैं। उनके लौटने का कारण देशभक्ति तथा समाज के लिए कुछ करने की चाह न होकर हकीकत कुछ और होती है। और वह है नौकरी की सुरक्षा, आरामतलबी और भ्रष्टाचार के दरवाजे से रातों-रात अमीर बनना तथा उसी सड़क से राजनीति में प्रवेश करना। हालांकि सब ऐसा नहीं करते, लेकिन विशेषकर उत्तर भारत के राज्यों की राजनीति और समाज उन्हें धीरे-धीरे इस कुचक्र में शामिल होने को मजबूर कर देता है।
राजदूत अनुप मुद्गल के शब्दों में ‘निश्चित रूप से संघ लोक सेवा आयोग 10 लाख परीक्षार्थियों में सर्वश्रेष्ठ को चुनता है, लेकिन जब उन्हें काम करने की आजादी नहीं मिल पाती तो उनमें से बहुत सारे आपस के ही छोटे-छोटे विवादों में उलङो रहते हैं।’ इससे शासन-प्रशासन के साथ उन प्रतिभाओं को भी नुकसान होता है, जो आइआइटी और मेडिकल कालेजों को छोड़कर कई-कई वर्षो की मेहनत के बाद यहां पर आए होते हैं। अंत में उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। विशेषकर हिंदी पट्टी के समाज में तो इन सेवाओं में आने का ऐसा नशा है कि असफल होने पर आत्महत्याओं की भी सूचना मिलती है। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इतनी नौजवान पीढ़ी इतने वर्षो तक अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा और मेहनत ऐसी किसी सेवाओं में आने के लिए बर्बाद करती है, जबकि उनके अनुकूल दूसरे कई क्षेत्रों में अपार संभावनाएं मौजूद रहती हैं। यह दोष सरकार और व्यवस्था का भी है। आखिर इन सेवाओं का इतना महिमामंडन क्यों? इनको राजा या हाकिम की तरह व्यवहार करने की आजादी क्यों?
आजादी के बाद सिविल सेवा में आने वाले अभ्यर्थियों की उम्र सीमा 19 से बढ़ाकर 21 की गई। बाद में इसमें कुछ बढ़ोतरी की गई। पिछली सदी के आठवें दशक तक यह उम्र सीमा पहले 24, फिर 26 वर्ष रही। पहली बार दौलत सिंह कोठारी ने 1979 में अधिकतम आयु 28 वर्ष की, जिसे वीपी सिंह ने 1991 में पहले 30 वर्ष किया और उसके बाद यूपीए सरकार ने 2004 में 32 वर्ष किया। 1980 में सिविल सेवा परीक्षा देने के केवल तीन प्रयास निर्धारित किए गए थे। अब सामान्य विद्यार्थियों के लिए छह और कमजोर वर्गो के लिए असीमित अवसर हैं। यानी 21 वर्ष से लेकर 37 वर्ष तक सोलह बार तक आप परीक्षा दे सकते हैं। क्या इस पद्धति में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा चुनने की गुंजाइश है? संभवत: नहीं। इसलिए सिविल सेवा परीक्षा में कुछ सुधार की तुरंत जरूरत है। सबसे पहले उम्र की सीमा 28 वर्ष तक ही सीमित की जाए और प्रयासों को भी तीन तक। हालांकि कमजोर वर्गो को कुछ रियायत दी जा सकती है। एक और कमी पिछले दिनों लगातार सामने आई है, वह है प्रारंभिक परीक्षा और मुख्य परीक्षा में वैज्ञानिक रूप से तालमेल न होना। पिछले दस वर्षो के परिणाम बताते हैं कि प्रारंभिक परीक्षा एक लाटरी या तुक्केबाजी की तरह हो गई है। प्रारंभिक सीसैट में लगातार फेल होने वाले छात्र फिर अचानक ही टापर बन जाते हैं।
यूपीएससी में हर 10 वर्ष के बाद पूरी परीक्षा पद्धति की समीक्षा के लिए एक कमेटी बनाने की परंपरा रही है। पिछली समीक्षा 2012 में हुई थी, जिसके कुछ परिवर्तन सीसैट में लागू किए गए, जो बहुत विवादास्पद रहे। अब तुरंत एक कमेटी पूरी परीक्षा की समीक्षा करे। प्रशासनिक सेवाओं में एक सबसे बड़ी खामी यह है कि इनके अधिकारी ज्यादातर भारतीय भाषाओं को नहीं जानते। क्या देश के प्रशासन को केवल अंग्रेजीदां और तोते की तरह रटे हुए अधिकारियों को सौंपा जा सकता है?
(लेखक भारत सरकार में संयुक्त सचिव रहे हैं)