रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध से उभरते सामयिक और प्रासंगिक सवाल
रूस ने यूक्रेन में तबाही मचाई हुई है। यूक्रेन के अधिकांश बड़े शहरों समेत उसका एक व्यापक भौगोलिक क्षेत्र रूस के आक्रमण के दायरे में है। जहां यूक्रेन और रूस के अनेक सैनिक मारे गए हैं वहीं यूक्रेन के असंख्य नागरिकों के मारे जाने का भी समाचार है।
सिद्धार्थ मिश्र। भारत समेत विश्व के कुछ चुनिंदा देशों द्वारा प्रयास के बावजूद रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध जारी है। रूसी हमले की तीव्रता से प्रतीत होता है कि रूसी सेना इन हमलों की तैयारी पहले से ही कर रही थी और बड़े पैमाने पर हमले करने की योजना थी। हमलों की वजह से यूक्रेन से जनता का भारी पलायन हुआ है और लोग यूक्रेन से सटे हुए आसपास के देशों में शरण ले रहे हैं। अब तक लगभग 20 लाख लोग यूक्रेन छोड़ चुके हैं जिनमें से आधे लोगों ने पोलैंड में शरण ली है, जबकि शेष अन्य पड़ोसी देशों में शरण ले चुके हैं।
हालांकि वर्तमान संघर्ष का कोई तत्काल उत्प्रेरक नहीं है और यूक्रेन के नाटो में शामिल होने के निर्णय से रूस को उत्पन्न खतरे को ही हमलों की वजह माना जा रहा है। वैसे पिछले करीब दो दिनों से यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की की ओर से यह कहा जा रहा है कि फिलहाल वे नाटो में शामिल होने के अपने निर्णय को लेकर तटस्थ हैं, जिससे एक बार तो ऐसा लगा कि युद्ध थम जाएगा, परंतु रूस का इरादा कुछ और ही लग रहा है। माना जा रहा है कि रूस या तो यूक्रेन या उसके बड़े भाग पर कब्जा करना चाहता है या फिर रूस समर्थित रिहायशी क्षेत्रों को यूक्रेन से अलग कर उन्हें रूस का हिस्सा बनाना चाहता है। परंतु रूस को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए बहुत जोर लगाना पड़ रहा है, क्योंकि उसकी अपेक्षा के विरुद्ध उसे यूक्रेन की सेना व स्थानीय जनता से भारी प्रतिरोध झेलना पड़ रहा है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका और अन्य देशों ने युद्ध रोकने व संघर्ष विराम के अनेक प्रयास किए, रूस पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध भी लगाए, परंतु उनका भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा जिसके परिणामस्वरूप रूस लगातार अपने हमले तेज करता जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र की ओर से भी युद्ध रोकने के प्रयास किए गए, पर सुरक्षा परिषद में रूस द्वारा वीटो किए जाने की वजह से इस मामले में कोई प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया। हालांकि संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हमले की निंदा करते हुए प्रस्ताव पारित किया है, परंतु महासभा की शक्तियां सीमित होने के कारण संघर्ष रोकने में उसका कितना प्रभाव होगा, अभी यह आकलन करना मुश्किल है।
विश्व के समक्ष चुनौतियां : इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर से विश्व के समक्ष अनेक चुनौतियां व प्रश्न पैदा किए हैं। क्या कोई भी शक्तिशाली राष्ट्र जब चाहे किसी भी कमजोर देश पर कोई भी कारण या बहाना बना कर हमला कर जितनी चाहे जान-माल की हानि कर सकता है? क्या किसी भी कारण से एक देश पर किए गए आक्रमण को न्यायोचित ठहराया जा सकता है और क्या विश्व समुदाय द्वारा बनाए गए कानून व संस्थाएं आक्रमण रोकने में असहाय हैं?
इसमें कोई संदेह नहीं कि देशों के अपने राजनीतिक, कूटनीतिक, सामरिक व आर्थिक हित होते हैं। परंतु उन हितों को साधने के लिए किसी संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र पर आक्रमण कर उसे तबाह करना, उसकी भूमि और संसाधनों पर कब्जा करना, निर्दोष जनता को मारना और उन्हें अपना घर व देश छोडऩे पर मजबूर करना कितना न्यायोचित है? दुर्भाग्य है कि यूक्रेन के आम व्यक्तियों को देश की रक्षा के लिए हथियार उठाना पड़ रहा है व विदेश में रह रहे लोग देश के लिए लडऩे के लिए वापस आ रहे हैं।
युद्ध की भयावहता : युद्ध में मारे गए व घायल लोग, उनके बिलखते परिजन व रोते बच्चों की दुर्दशा देख कर हृदय को असहनीय पीड़ा होती है कि किस प्रकार एक देश द्वारा अपने हितों को साधने के लिए एक खुशहाल देश को बर्बादी की राह पर ला दिया गया। रूस ने यह हमला करके अंतरराष्ट्रीय बल निषेध, मानव अधिकार व आपराधिक कानूनों का घोर उल्लंघन किया है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर देशों की समानता, संप्रभुता, राजनीतिक स्वतंत्रता व क्षेत्रीय अखंडता पर आधारित है और देशों को एक दूसरे के विरुद्ध किसी भी प्रकार का बल प्रयोग करने पर प्रतिबंध लगाता है। चार्टर के अनुसार बल का प्रयोग केवल आत्मरक्षा में देश में वास्तविक सशस्त्र हमला होने की स्थिति में सुरक्षा परिषद द्वारा मामले का संज्ञान लेने तक किया जा सकता है। बिना किसी उत्प्रेरक के आक्रमण कर रूस ने न केवल बल निषेध कानून, बल्कि आम नागरिकों पर हमला कर वैश्विक मानवीय व आपराधिक कानूनों का भी उल्लंघन किया है। रूस द्वारा यूक्रेन पर किए गए आक्रमण ने न केवल यूक्रेन में भीषण मानवीय त्रासदी को जन्म दिया है, अपितु वैश्विक शांति व सुरक्षा के समक्ष भी गंभीर खतरा पैदा किया है।
अंतरराष्ट्रीय कानून और संबंधित संस्थाएं : इस प्रकार की घटनाएं निसंदेह अंतरराष्ट्रीय कानून व संस्थाओं की प्रासंगिकता व विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न खड़े करती हैं। परंतु ऐसा नहीं है कि इस संघर्ष से अंतरराष्ट्रीय कानून व संस्थाएं प्रभावहीन या समाप्त हो गई हैं। अंतरराष्ट्रीय पटल पर कानून व व्यवस्था केवल एक पहलू है। इसके अतिरिक्त असंख्य ऐसे पहलू हैं जहां अंतरराष्ट्रीय कानून व संस्थाएं निरंतर सफलता से कार्यरत हैं और विश्व शांति व विकास में उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
देशों की आंतरिक शांति : द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत ही यह अहसास हो गया था कि जब तक देशों में आंतरिक शांति नहीं होगी, वैश्विक शांति व सुरक्षा संभव नहीं है। देशों की आंतरिक शांति व वैश्विक शांति का आपस में सीधा संबंध है। देशों की आंतरिक शांति के लिए मानवाधिकारों की रक्षा व देश का सामाजिक व आर्थिक विकास अत्यंत आवश्यक है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र केवल शांति व सुरक्षा पर ही कार्य नहीं करता, अपितु अपनी अनेक विशिष्ट संस्थाओं के माध्यम से पूरे विश्व में स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव अधिकार व आर्थिक प्रगति के लिए लगातार कार्यरत है।
अनुभव बताता है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन अधिक व उल्लंघन कम होता है और अधिकांश देश स्वेच्छा से उनका आदर व अनुपालन करते रहे हैं। अनेक ऐसे कार्य हैं जो दैनिक जीवन में हमारे आस-पास होते रहते हैं और हमें पता भी नहीं होता कि वे अंतरराष्ट्रीय कानून व संस्थाओं की सफलता से कार्यरत होने से ही संभव हो रहे होते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, संपर्क, संचार, उड््डयन, व्यापार, अंतरिक्ष, समुद्र, मानव अधिकार, बौद्धिक संपदा, राजनयिक विशेषाधिकार आदि अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जिनमे अंतरराष्ट्रीय कानून व संस्थाएं अनवरत सफलता से कार्यरत हैं।
पूर्व में भी यदि किसी देश ने बल का प्रयोग किया है तो उसने अपने कृत्य को विधि अनुसार न्यायोचित ठहराया है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अनेक बार ऐसी परिस्थितियां पैदा हो चुकी हैं जब ऐसा लगा कि पुन: विश्व युद्ध का सामना करना पड़ सकता था। निसंदेह यह संयुक्त राष्ट्र की सफलता को ही दर्शाता है कि उसके प्रभाव से तृतीय विश्व युद्ध आज तक नहीं हुआ।
वर्तमान में उपजे घटनाक्रम का यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि समस्त वैश्विक व्यवस्था ध्वस्त हो गई है। वर्तमान परिस्थिति केवल मात्र एक कानून व्यवस्था की समस्या है जो संभवत: क्षणिक है और जल्द ही समाप्त हो जाएगी।
रूस-यूक्रेन मामले पर आम नागरिक के नजरिये से देखें तो लगता है कि अंतरराष्ट्रीय कानून व संस्थाएं अपने कार्य व उद्देश्य में एकदम विफल हो गई हैं। परंतु एक जानकार की दृष्टि से आकलन करने पर प्रतीत होता है कि यह एक अस्थायी समस्या है जो कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों व संस्थाओं की अमान्यता को नहीं, अपितु एक कमी को इंगित करती है। निरंतर चर्चा व कार्य कर कानूनों व संस्थाओं की कमियों का निदान कर अंतराष्ट्रीय संस्थाओं को सुदृढ़ व मजबूर करने की जरूरत है। इससे भविष्य में वर्तमान संघर्ष जैसे मामलों और घटनाओं को रोका जा सकता है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय में प्रोफेसर हैं )