क्षमा शर्मा। काफी समय से यह माना जाता रहा है कि बुजुर्गों में अकेलापन बढ़ गया है। इसका कारण संयुक्त परिवार का न होना, बच्चों का विदेश या बाहर के शहरों में बस जाना, रिटायरमेंट, जीवनसाथी का न रहना और दोस्तों से संपर्क टूटना आदि हैं, मगर अब नए शोध के अनुसार अकेलापन युवाओं को भी बहुत परेशान कर रहा है। यह असमय ही उन्हें मृत्यु की ओर धकेल रहा है। इसका एक कारण हमउम्र लोगों से कम संपर्क और परिवार से दूरी है।

नौकरियां भी अब ऐसी हो चली हैं, जहां युवा 24 घंटे के नौकर हैं। उन्हें हर हाल में टारगेट पूरे करने होते हैं। भले ही इसके लिए कितने ही घंटे काम क्यों न करना पड़े। इस अतिरिक्त व्यस्तता के कारण वे अपने आसपास और दोस्तों से कट रहे हैं। आपको अमेरिका में रहने वाले सर्वश्रेष्ठ गुप्ता का केस तो याद ही होगा। यह युवा बहुत तेजस्वी और मेधावी था।

अमेरिका के एक बड़े संस्थान में काम करता था। वह दफ्तर में 16-18 घंटे काम करता था, फिर भी अधिकारी कहते थे कि और करो। न उसके पास घर जाने का समय था और न ही सोने का। तब परिवार और दोस्तों के लिए समय कहां से आता। एक दिन इस युवा ने जिंदगी से हार मान ली। जिनके लिए 16-18 घंटे काम किया, उन्हें भला क्या फर्क पड़ा। उसकी जगह कोई और आ गया। कंपनियों का तो यह नियम ही है।

विशेषज्ञ कहते हैं कि अपनों से कट जाने का मतलब एक तरह की असामयिक मृत्यु है। अकेलापन धूमपान करने से भी अधिक खतरनाक है। कुछ दिन पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बढ़ते अकेलेपन पर चिंता प्रकट की। उसके अनुसार अकेलापन दुनिया में महामारी की तरह फैल रहा है। डाक्टरों का कहना है कि अकेलेपन के कारण लोगों को नींद नहीं आती। उन्हें तरह-तरह की समस्याएं होती हैं।

अवसाद बढ़ता है। प्रतिरोधक प्रणाली कमजोर हो जाती है। मानसिक स्वास्थ्य कमजोर हो जाता है। दिल की बीमारियों के खतरे बढ़ जाते हैं और तरह-तरह के रोग घेर लेते हैं। अकेलापन किसी गंभीर बीमारी जैसा ही खतरनाक है। अकेलापन हमारी भावनाओं पर आघात करता है। यह हमें हमेशा दुखी रखता है। दुखी होने से चिंता और तनाव बढ़ता है।

यह जीवन की कठिनाइयों को बढ़ाता है। रही-सही कसर इंटरनेट मीडिया ने पूरी कर दी है। युवाओं का दफ्तर के कामकाज से जो समय बचता है, उसे वे इंटरनेट मीडिया पर खर्च करते हैं। इंटरनेट मीडिया भी तरह-तरह की प्रतिस्पर्धा से भरा है। किसको कितनी रीच एवं लाइक्स मिले, यह एक चिंता का विषय बन जाता है। अकेलेपन के जो कारण बताए जाते हैं, उनमें बेरोजगारी और कम आय भी महत्वपूर्ण है।

जो लोग नौकरी या अन्य किसी कारण अकेले रहते हैं, उनका अकेलापन भी बढ़ता है। गंभीर बीमारियों से ग्रस्त लोग भी अकेलेपन का शिकार होते हैं। बहुत से सामाजिक दबाव भी इसे बढ़ाते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अकेलेपन की समस्या से समय रहते निपटा जाना चाहिए। इसके लिए ऐसी आदतें डाली जानी चाहिए, जो किसी को अकेला न रहने दें।

अकेलेपन को दूर करने के लिए लोगों से मिलें-जुलें, दोस्ती बढ़ाएं। एक-दूसरे के सुख-दुख का हिस्सा बनें। सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने से भी जीवन सार्थक लगता है। इसलिए इनसे भी जुड़ना चाहिए। दोस्तों या परिवार के अन्य सदस्यों के साथ बाजार जाएं। दूसरों के अनुभवों से सीखें। यदि समय हो तो किसी अभिरुचि को पूरा कर सकते हैं। बहुत से शौक अपनाए जा सकते हैं।

बागवानी, पेंटिंग और संगीत भी अकेलेपन को दूर करने में बहुत मदद करते हैं। संगीत सुनना और संगीत सीखना, दोनों उपयोगी हैं। योग और व्यायाम से न केवल अकेलेपन को दूर किया जा सकता है, बल्कि स्वास्थ्य को भी अच्छा रखा जा सकता है। इन दिनों कहा जाता है कि युवाओं में पढ़ने की आदत कम होती जा रही है, जबकि कोई अच्छी किताब हमारी सबसे अच्छी साथी होती है।

मनपसंद किताबें कभी अकेला नहीं रहने देतीं। प्रकृति के साथ रहना भी हमारे अवसाद को कम करता है और हमें बहुत सी चिंताओं से मुक्ति दिलाता है। सबसे प्रमुख तो हमारा परिवार ही है। यदि परिवार के साथ रहते हैं तो स्वजनों के साथ समय बिताना एक अच्छा विकल्प है। दूर रहते हैं, तो मोबाइल ने यह सुविधा प्रदान की है कि हम कभी भी परिवार के सदस्यों से बात कर सकते हैं।

आज की तकनीक भले ही हमें बहुत आकर्षित करती हो, लेकिन यह मानवीय संबंधों का रूप कभी नहीं ले सकती। वह पश्चिम जो तमाम तकनीकी उपकरणों और सुविधाओं से भरा पड़ा है, वहां न केवल युवा, बल्कि अधिकांश आबादी अकेलेपन की पीड़ा झेलने को मजबूर है। लंबे अर्से तक वहां अकेलेपन को आत्मनिर्भरता और ताकत के रूप में पेश किया गया।

आज पश्चिम के लोग परिवार-परिवार चिल्ला रहे हैं। यह अफसोस की बात है कि भारत में अकेलेपन को किसी वरदान की तरह समझा जा रहा है। अकेलेपन की विशेषता के रूप में यह बताया जाता है कि हम जो चाहें, वह सब कर सकते हैं। पहले संयुक्त परिवार को तोड़कर एकल परिवार बने। अब बहुत से युवा जिनमें लड़के-लड़कियां दोनों शामिल हैं, परिवार नाम की संस्था से ही दूर भागते हैं।

उन्हें लगता है कि अकेले हैं तो आजाद हैं। परिवार है तो जिम्मेदारियों का बोझ है और आजादी खतरे में है। थोड़े दिनों तक तो यह सोच बहुत अच्छा लग सकता है, मगर एक वक्त के बाद यह लगने लगता है कि हमारा कोई नहीं। जब तक यह बात समझ आती है कि शेयरिंग और केयरिंग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, तब तक कई बार देर हो चुकी होती है।

(लेखिका साहित्यकार हैं)