कैप्टन आर विक्रम सिंह। संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने विघटनकारी शक्तियों से सावधान रहने की जो आवश्यकता जताई, उसमें भले ही इन शक्तियों की ओर संकेत न किया गया हो, लेकिन ऐसी शक्तियों की ओर गंभीरता से ध्यान दिया जाना चाहिए। इन दिनों म्यांमार भीषण गृहयुद्ध से जूझ रहा है।

बीते दिनों नई दिल्ली में म्यांमार के उपप्रधानमंत्री यू थान श्वे ने विदेश मंत्री एस. जयशंकर से गंभीर चर्चा की। म्यांमार की सैन्य सरकार ने फरवरी 2021 में निर्वाचित चांसलर आंग सान सू की सरकार को बर्खास्त किया था। सैन्य सरकार के खिलाफ ताजा विद्रोह उसका ही परिणाम जान पड़ता है। सीमावर्ती क्षेत्रों के काचिन, सैगाइन, चिन और रखाइन राज्यों में विद्रोहियों से सेना लगातार पराजित हो रही है।

पूर्वोत्तर भारत से व्यापार का नया व्यावसायिक समुद्री एवं सड़क मार्ग भी विद्रोहियों की गतिविधियों से प्रभावित हो रहा है। भारत को म्यांमार में सितवे का काउंसलेट बंद करना पड़ा है। राजनयिक वापस बुला लिए गए हैं। वहां के शरणार्थी जिनमें सरकारी सैनिक भी हैं, भाग कर मिजोरम आ रहे हैं।

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना भी बीते दिनों भारत यात्रा पर थीं। उन्होंने कुछ दिन पूर्व एक बड़ा बयान दिया था कि एक बड़ी शक्ति म्यांमार एवं बांग्लादेश के हिस्सों को लेकर एक ईसाई राज्य स्थापित करने की योजना बना रही है। उन्होंने यह भी कहा था कि उन पर सेंट मार्टिन द्वीप लीज पर देने का दबाव है।

पश्चिमी देश के एक प्रतिनिधि ने उनसे कहा था कि यदि वह सहयोग करेंगी तो उनके चुनावों पर कोई आपत्ति नहीं होगी, अन्यथा उनके लिए बहुत सी समस्याएं खड़ी होंगी। ध्यान रहे कि बांग्लादेश के सेंट मार्टिन आइलैंड को लीज पर लेने के लिए अमेरिकी दबाव की बातें खूब सामने आई हैं। शेख हसीना ने किसी सभा में कहा भी था कि वह देश को किराये पर देने नहीं आई हैं।

सेंट मार्टिन द्वीप बांग्लादेश एवं म्यांमार की सीमाओं के निकट बंगाल की खाड़ी में स्थित है। यहां से बड़े इलाके की निगरानी की जा सकती है। शेख हसीना का बयान यही संकेत करता है कि इस क्षेत्र में एक ईसाई देश बनाने का प्रयास हो रहा है। यह प्रयास 1941-47 में भी ब्रिटिश क्राउन कालोनी संरक्षित राज्य के रूप में किया गया था, लेकिन बदली हुई परिस्थितियों एवं अंग्रेजों के भारत से जल्द भागने के फेर में वह परियोजना सिरे नहीं चढ़ सकी।

म्यांमार के संकट में चीन द्वारा विद्रोहियों को अस्त्र-शस्त्र दिए जाने की सूचना है। यदि अमेरिका असल में भारत का रणनीतिक भागीदार है तो म्यांमार संकट के समाधान में उसे भारतीय हित का पक्षधर होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं दिख रहा है। यदि म्यांमार चीन के पाले में चला गया तो म्यांमार के बंदरगाहों से हिंद महासागर में चीन के प्रवेश के आसार बन जाएंगे और इस तरह वह मलक्का स्ट्रेट की बाधा का विकल्प तलाश लेगा। इसके साथ ही अपने पूंजी निवेश एवं दोहन के लिए पाकिस्तान के समान उसे म्यांमार जैसा देश भी मिल जाएगा।

तीन भारतीय राज्य नगालैंड, मणिपुर एवं मिजोरम की सीमा म्यांमार से लगती हैं। म्यामांर का एक राज्य काचिन है, जो चीन की सीमा के दक्षिण में है। यह म्यांमार का उत्तरी राज्य है। एक सैगाइन राज्य है और उसके बाद चिन राज्य आता है। इनकी जनसांख्यिकी को देखें तो चिन राज्य मिजोरम एवं मणिपुर से मिलता है। वहां ईसाई आबादी 85 प्रतिशत है। काचिन राज्य की सीमा अरुणाचल और नगालैंड से मिलती है।

वहां ईसाई आबादी तेजी से बढ़कर 80 प्रतिशत पहुंच रही है। हमारे यहां मणिपुर के मैतेयी एवं कुकियों के बीच विवाद का मूल यही चिन राज्य क्षेत्र है। कुकी चिन जाति की ही एक शाखा है। सीमावर्ती राज्यों नगालैंड, मणिपुर एवं मिजोरम में ईसाई आबादी क्रमशः 80, 45 और 87 प्रतिशत हैं। इसी कारण अब इस क्षेत्र में म्यांमार की कमजोर डांवाडोल राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर एक ईसाई देश स्थापित होने के आसार बनने लगे हैं।

म्यांमार में 85 प्रतिशत ईसाई आबादी का चिन राज्य तो पहले से उपलब्ध है ही। उसे समुद्र तक पहुंच के लिए रखाइन राज्य और बांग्लादेश के चटगांव प्रायद्वीप की भूमि की भी आवश्यकता पड़ेगी। यहीं भारत का महत्वाकांक्षी सितवे कलादान प्रोजेक्ट भी पूर्ण होने के निकट है। यहां के एक बड़े शहर पलेटवा पर पिछले माह विद्रोही बलों का कब्जा हो चुका है। यहां भारत के हितों के विरुद्ध स्थितियां आकार ले रही हैं।

जो लोग इस क्षेत्र में एक ईसाई राज्य के रणनीतिकार हैं, उनकी जानकारी में ब्रिटिश योजना निश्चय ही है। कमजोर होता म्यांमार गृहयुद्ध की स्थिति में अपनी मुख्यभूमि को सुरक्षित करने में ही अपने संसाधन लगाएगा। हमारी सीमा से जुड़े म्यांमार के ईसाई क्षेत्रों पर उनकी सत्ता का कमजोर होना हमारे लिए एक बहुत बड़ा संकट खड़ा कर रहा है। चिंता का सबसे बड़ा कारण यह है कि इस बिंदु पर आकर पश्चिमी लाबी और ईसाई मिशनरियों के हित तो सध रहे हैं, लेकिन इसकी तपिश हमें झेलनी पड़ेगी। मणिपुर में हिंदू-ईसाई विभेद पहले ही बढ़ा हुआ है।

भारत विभाजन के दौर का यह तथ्य ध्यान रहे कि भारत को दो नहीं, बल्कि तीन भागों में विभाजित करने की योजना थी। मिशनरियों की मांग पर पूर्वोत्तर एवं म्यांमार के ईसाई राज्यों को मिलाकर ‘क्राउन कालोनी संरक्षित राज्य’ बनाने की योजना असम के तत्कालीन गवर्नर राबर्ट रीड एंड्रू ग्लो ने प्रस्तुत की थी।

हालांकि कांग्रेस नेता गोपीनाथ बोरदोलोई के विरोध के कारण असम को पूर्वी बंगाल के समूह से अलग करना पड़ा। परिणामस्वरूप अंग्रेजों को कैबिनेट मिशन की तीसरी सूची संशोधित करनी पड़ी थी। यदि असम पूर्वी बंगाल के साथ पूर्वी पाकिस्तान के समूह में चला जाता तब पूर्वोत्तर में एक ईसाई राज्य की भूमिका बन जाती। अब 75 वर्ष बाद पुनः उसकी संभावनाएं तलाशी जा रही हैं।

जार्ज सोरेस एवं भारत विरोधी शक्तियों की मोदी सरकार को सत्ता से बाहर करने की योजना सफल हो जाती तो म्यांमार के विखंडन एवं बांग्लादेश में विद्रोही शक्तियों को उभार कर ऐसी स्थितियां बना दी जातीं, जिसमें 75 वर्ष पहले का ईसाई राज्य बनाने का ब्रिटिश साम्राज्यवादी एजेंडा अंतत: सफल हो सकता था। अच्छी बात है कि उनकी इस साजिश पर पानी फिर गया, मगर भारत को कहीं अधिक सावधान रहने की जरूरत है।

(लेखक पूर्व सैन्य एवं प्रशासनिक अधिकारी हैं)