तिब्बत की आवाज बने भारत: चीन पर यथार्थवादी कदम उठाने से ही होगा संबंधों में सुधार
चीन द्वारा तिब्बत पर हमले के बाद संपूर्ण विश्व ने पहले भारत की ओर ही देखा था क्योंकि उससे सर्वाधिक प्रभावित होने वाला देश भारत था। भारत द्वारा चीन का समर्थन करते रहने से ही दुनिया चुप रही। वरना तब तक कम्युनिस्ट चीन महाशक्ति क्या मान्यताप्राप्त देश तक नहीं था! संयुक्त राष्ट्र में भी 1971 तक फारमोसा (ताइवान) को मान्यता थी।
शंकर शरण। अमेरिकी सांसदों का एक दल जिस तरह दलाई लामा से धर्मशाला आकर मिला, वह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस दल के सांसदों में नैंसी पेलोसी भी थीं, जिन्होंने अमेरिकी संसद में 'रिसाल्व तिब्बत एक्ट' का विधेयक रखा है। इसमें तिब्बत समस्या के समाधान के लिए चीन पर दबाव डालने की सिफारिश है।
इस विधेयक पर अमेरिकी राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने से चीन पर तिब्बतियों से बातचीत करने का दबाव बनाने की अमेरिकी गंभीरता झलकेगी। इसका प्रभाव दुनिया के अनेक देशों पर भी पड़ सकेगा। इन देशों में सबसे महत्वपूर्ण भारत है।
उल्लेखनीय केवल यह नहीं कि भारत ने अमेरिकी सांसदों के दल को धर्मशाला आकर दलाई लामा से मुलाकात करने की अनुमति दी, बल्कि इस दल से प्रधानमंत्री मोदी ने भी भेंट की। डोकलाम और गलवान घाटी पर भारत-चीन तनाव के संदर्भ में भी इसका संकेत स्पष्ट है।
यदि भारत भी कूटनीति में चीन की तरह यथार्थवादी कदम उठाए तो आपसी संबंध सुधार की संभावना बढ़ेगी। केवल सदिच्छा और सांकेतिक बातों से भारत को आज तक कुछ लाभ नहीं हुआ। वस्तुत: तिब्बत ही भारत-चीन संबंधों की बीच की कड़ी है। इसकी अनदेखी से आपसी विश्वास नहीं बन सकेगा।
यहां स्मरणीय है कि बीजिंग में 1954 ई. में हुआ पंचशील समझौता भारत-तिब्बत पर ही था। इस समझौते का शीर्षक ही है: ‘‘चीन के तिब्बत क्षेत्र और भारत के बीच व्यापार और संबंध के बारे में।’’ छह अनुच्छेदों के इस संक्षिप्त समझौते में कुल नौ बार तिब्बत का नाम आया है। इसमें पांच अनुच्छेद केवल इसके वर्णन हैं कि भारत-तिब्बत संबंध पूर्ववत चलते रहेंगे।
ऐतिहासिक दृष्टि से सौ-पचास साल कुछ नहीं होते। इसलिए यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि 1951 तक तिब्बत स्वतंत्र देश था। मार्च 1947 में दिल्ली में ‘एशियन रिलेशंस कांफ्रेंस’ में तिब्बत और चीन, दोनों ने स्वतंत्र देशों की तरह हिस्सा लिया था। इससे पहले 1914 में शिमला में चीन, तिब्बत और भारत ने आपसी सीमांकन समझौता भी किया था।
यदि चीन 1890 के दस्तावेज का हवाला देकर डोकलाम को अपना बताता है, तो 1914 केदस्तावेज के अनुसार तिब्बत भी स्वतंत्र देश है। ऐसे तथ्य उठाकर ही भारत, चीन और तिब्बत, तीनों के बीच पहले की तरह परस्परता का संबंध बनने का मार्ग मिल सकता है।
यह ठीक है कि 1949 में भारत से भूल हुई जब उसने चीनी कम्युनिस्टों को तिब्बत हड़पने दिया। उसके एवज में चीन ने भारत और तिब्बत को संतुष्ट करने के लिए पंचशील का उपाय किया। उस समझौते का सार यही था कि तिब्बत और भारत के सांस्कृतिक, व्यापारिक, सामाजिक संबंध पहले जैसे चलते रहेंगे- बिना किसी पासपोर्ट, वीजा, या परमिट आदि के।
यह ऐतिहासिक सत्य है कि भारत और तिब्बत के संबंध सदियों से खुले और पारस्परिक थे, जिसमें चीन का कोई अवरोध न था। जब चीनी नेता पंचशील समझौते का हवाला देते हैं, तो भारतीय नेताओं को कहना चाहिए कि उसके अनुच्छेद 2 और 5 के अनुरूप तिब्बती एवं भारतीय तीर्थयात्रियों की बेरोक-टोक यात्राएं पुनर्स्थापित की जाएं।
वस्तुत: न्याय और व्यवहारिकता, दोनों का तकाजा है कि पंचशील समझौते के सभी छह अनुच्छेद लागू किए जाएं, अन्यथा तिब्बत और उसकी सहायता के लिए भारत समेत दुनिया के अन्य उदार देश उसी तरह स्वतंत्र हैं, जैसे अन्य देश किसी पीड़ित देश की मदद के लिए होते हैं।
निर्मल वर्मा ने तिब्बत को ‘संसार का अंतिम उपनिवेश’ बताया था। भारत और तिब्बत को अपनी साझी चिंताओं और सांस्कृतिक जरूरतों पर बोलने का पूरा अधिकार है। यही पूरे मामले को सुलझाने का सूत्र है, पर अधिकांश नेता और बुद्धिजीवी ‘तिब्बत रीजन आफ चाइना’ की शब्दावली में सदैव चाइना पकड़ते हैं और तिब्बत भूल जाते हैं! वास्तव में होना उलटा चाहिए।
सदैव तिब्बत का नाम लें और चीन को टोकें। भारत का पड़ोसी पहले तिब्बत है। उसके पार चीन है। पंचशील समझौता होने पर कई पत्र-पत्रिकाओं में खबर का शीर्षक था- भारत-तिब्बत समझौता। इसके दो-तीन दशक बाद भी दुनिया भर के नक्शों में तिब्बत अलग देश ही रहा।
दुर्भाग्यवश भारतीय बुद्धिजीवी और नेता कई गंभीर चीजों का नाम लेते हैं, पर उसके अर्थ पर ध्यान नहीं देते, जबकि चीन यथार्थवादी होने के कारण तिब्बत और भारत दोनों के अधिकार से अवगत है। इसीलिए वह दलाई लामा पर सावधान रहता है।
उनसे देशी-विदेशी नेताओं के मिलने-जुलने का विरोध करता है, जबकि भारत अपने कर्तव्य से चूक जाता है। यह विचित्र है कि जिस तिब्बत को लेकर भारत का समझौता बीजिंग में हुआ था, उस तिब्बत की बात भारत ही नहीं करता।
चीन द्वारा तिब्बत पर हमले के बाद संपूर्ण विश्व ने पहले भारत की ओर ही देखा था, क्योंकि उससे सर्वाधिक प्रभावित होने वाला देश भारत था। भारत द्वारा चीन का समर्थन करते रहने से ही दुनिया चुप रही। वरना तब तक कम्युनिस्ट चीन महाशक्ति क्या, मान्यताप्राप्त देश तक नहीं था!
संयुक्त राष्ट्र में भी 1971 तक फारमोसा (ताइवान) को मान्यता थी। अमेरिका ने 1978 तक कम्युनिस्ट चीन से कूटनीतिक संबंध तक नहीं बनाए थे। यदि तिब्बत पर भारत आवाज उठाता, तो चीन मनमानी नहीं कर सकता था। वह भूल सुधारना भारत का अनिवार्य कर्तव्य है। उस पर चुप्पी रखने से भारत की हानि होती है।
यदि भारत ने सहजता से तिब्बत का मुद्दा उठाया होता, तो चीन को भारत के साथ सद्भाव बनाने की चिंता होती। तिब्बत की स्थिति भी सुधरती। जिस मुद्दे पर भारत ने धोखा खाया, उसी को उठाकर यानी तिब्बत से अपने संबंध को महत्व देकर ही सही मार्ग पाया जा सकता है।
अभी तिब्बत असहाय लगता है, पर यदि भारत ने इसे विश्व-मंच पर उठा दिया, तो ऐसा नहीं रहेगा। चीनी सत्ता ने अपने देश में तानाशाही को औजार बनाया है, तो अभिव्यक्ति स्वतंत्रता भारत का साधन बन सकता है।
तिब्बतियों को वैचारिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक अभियान चलाने में सहायता देना भारत के हाथ में है। ऐसा न करना स्वयं भारत की नैतिक प्रतिज्ञा के विरुद्ध है। विविध सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, गैर-राजनीतिक लोग भी तिब्बत पर आवाज उठा सकते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि भारत-चीन संबंध और तिब्बत की स्वायत्तता आपस में जुड़े हैं। वर्तमान स्थिति स्थाई नहीं है। चूंकि किसी भी नए घटनाक्रम से हालत बदल सकते हैं, अतः सभी को अपना धर्म निभाना चाहिए। इससे ही वांछित बदलाव होते हैं।
(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं)