तरुण गुप्त। बीते रविवार को हम भारतीयों को यह अनुभूति हुई कि लक्ष्य के एकदम निकट आकर उससे चूक जाने की टीस कितनी गहरी होती है। यह कुछ-कुछ ‘हाथों को आया, लेकिन मुंह को न लगा’ जैसा वाकया था। असल में जब शब्दों का अभाव पड़ जाता है तो कहावतों के माध्यम से ही भावनाओं की कहीं बेहतर अभिव्यक्ति हो पाती है।

हर दृष्टिकोण से हम टूर्नामेंट की सबसे बेहतरीन टीम रहे। यह पराजय मात्र एक खराब दिन का परिणाम थी। वास्तव में, इस टीम ने हमें गर्व की अनुभूति कराई है। हमें न केवल उनका समर्थन करना चाहिए, बल्कि उनके प्रदर्शन पर आनंदित भी होना चाहिए। ये सभी तथ्य कुछ सुकून अवश्य देते हैं, किंतु साथ ही कहीं न कहीं इस हार को पचाना और कठिन भी बनाते हैं। एक बार जब भावनाएं संयत हो जाएं, कोलाहल थम जाए, तब हमें वास्तविकता का सामना भी करना चाहिए। कीर्ति के मुहाने पर एक बार फिर पराजय से हमारा सामना हुआ। आइसीसी ट्राफी अभी भी दूर की कौड़ी बनी हुई है। खिताब का सूखा निरंतर कायम है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि टास हारना बहुत खराब रहा, लेकिन हमारे कप्तान रोहित शर्मा ने तो यही कहा कि वह खुद पहले बल्लेबाजी करना पसंद करते। क्या आस्ट्रेलियाई खेमे ने परिस्थितियों का हमसे कहीं बेहतर आकलन किया? क्या रविचंद्रन अश्विन को न खिलाना रणनीतिक चूक थी? क्या इससे नतीजा बदलता? संभवत: नहीं, किंतु परिस्थितियों के अनुसार यह संभवतः हमारी सबसे बेहतर प्लेइंग इलेवन नहीं थी।

हमारे सशक्त बल्लेबाजी क्रम में केवल सूर्यकुमार यादव ही इकलौते ऐसे बल्लेबाज रहे, जो अपनी ख्याति को नहीं बढ़ा पाए। टी-20 की उनकी चमक एकदिवसीय क्रिकेट में भी बिखरती दिखने के लिए प्रशंसकों को अभी और प्रतीक्षा करनी होगी। आधुनिक दौर की क्रिकेट में टीमों को सीमित ओवरों वाले अपने संयोजन में न केवल बल्लेबाजी में गहराई लानी होगी, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर निचले क्रम को भी योगदान देने के लिए सक्षम बनाना होगा।

पूरे टूर्नामेंट में टीम को स्वयं से आगे रखने के लिए रोहित शर्मा भरपूर सराहना के पात्र हैं। आंकड़ों एवं कीर्तिमानों को लेकर आसक्त देश में शतक जैसी निजी उपलब्धियों का मोह छोड़ना आसान नहीं होता। रोहित शर्मा ने पूरे नि:स्वार्थ भाव के साथ अग्रिम मोर्चे से अगुआई की। अपनी विस्फोटक बल्लेबाजी से उन्होंने भारतीय पारी के लिए उचित आधार बनाकर दिया और पहली गेंद से ही विपक्षी टीम को दबाव में लेना शुरू किया। फिर भी, रणनीति सदैव लचीली होनी चाहिए जिसमें समयानुकूल समायोजन किया जा सके।

फाइनल मुकाबले में पारी के आरंभ में आवश्यक रन गति प्रदान करने के बाद अतिशय आक्रामकता और वह भी एक विकेट गिर जाने के उपरांत, उसे जारी रखना जड़ता एवं परिस्थितियों की अनदेखी करने जैसा था। क्या धुआंधार शुरुआत के बाद रोहित अपने रवैये में कुछ परिवर्तन कर सकते थे? क्या वह आक्रामकता पर कुछ संयम साधकर एक बड़ी पारी का जुझारूपन दिखाते? उनके शानदार फार्म को देखते हुए यह अपेक्षित ही था कि वह एक बड़ा शतक जड़ने की ओर बढ़ते। रोहित की लंबी पारी ही परिणाम को प्रभावित करने की एकमात्र प्रभावी कारक बन सकती थी। अब बस हम ऐसी अटकलें ही लगा सकते हैं कि-यूं होता तो क्या होता।

नि:संदेह, किसी भी घटनाक्रम के बाद उसका विश्लेषण अपेक्षाकृत सरल होता है। मूल रूप से एक सामूहिक विफलता के लिए हम किसी एक को दोष नहीं दे सकते। हालांकि, एक सत्य यह भी है कि लगातार दस मैच जीतने वाली टीम के लिए असफल जैसा विशेषण अपने आप में ही कठोर लगता है। कहते हैं न कि कुछ त्रासदियों में केवल पीड़ित ही होते हैं। फिर भी, सबक तो सीखना ही पड़ता है। यह भी एक तथ्य है कि जो इतिहास से नहीं सीखते, वे उसे दोहराने को अभिशप्त होते हैं। हमारे क्रिकेट तंत्र में जुनून और प्रतिभाओं की भरमार होने के साथ ही संसाधनों का भी कोई अभाव नहीं है। इसके बावजूद हम अपनी नियति नहीं बदल पा रहे। इस बार भी पटकथा के अंतिम दृश्य को अपने अनुकूल परीकथा सरीखा नहीं बना सके।

कुछ सुझाव प्रशासकों के लिए भी हैं। आइपीएल की तरह अंतिम चार में आने के बाद क्वालीफायर और एलिमिनेटर वाली व्यवस्था अपनाने पर विचार किया जा सकता है। वहीं, फाइनल को आस्ट्रेलिया की त्रिकोणीय शृंखला की तर्ज पर कराया जाना बेहतर हो सकता है। क्या निरंतरता को पुरस्कृत करना एक अधिक उपयुक्त परिणाम सुनिश्चित नहीं करता? दूसरी ओर, विश्व कप फाइनल के चार दिन बाद ही वह मुकाबला खेलने वाली दोनों टीमों को पांच टी-20 मैचों की एक शृंखला भी खेलनी है। प्रतीत होता है कि किसी भी अतिरेक से उत्पन्न होने वाली थकान और ऊब की अवधारणा से क्रिकेट प्रशासक परिचित नहीं हैं। यह भले ही तात्कालिक तौर पर असीमित लोभ को तुष्ट करता हो, लेकिन यह खेल के दीर्घकालिक हित में नहीं।

और अंत में, इस अंतिम पायदान पर मिली यह अनपेक्षित असफलता विश्लेषकों से लेकर प्रशंसकों को एक विनम्र सीख देने वाली है। तार्किक आकलन पर हमारी भावनाएं हावी रहीं। फाइनल की पूर्वसंध्या पर खुद मैंने ‘भारत की झोली में आता विश्व कप!’ शीर्षक से एक आलेख लिखा था। हमने उस पुरानी लोकोक्ति को विस्मृत ही कर दिया कि ‘चूजों के बाहर निकलने से पहले मुर्गियों की गणना उचित नहीं।’ मैच प्रारंभ होने से पहले ही हम भारत को विजेता मानने लग गए। खेल की तरह जीवन का भी एक विशिष्ट पहलू यही है कि वह अनिश्चितताओं से भरा होता है। वास्तव में यह अनिश्चितताएं ही हैं, जो खेल और जीवन में रोमांच लाती हैं।