जगमोहन सिंह राजपूत। जाने-माने बौद्ध विचारक थिच नहत हान ने जलवायु परिवर्तन की गहराती समस्या पर कहा था कि यदि हम उसी रास्ते पर चलते रहे, जिस पर इस समय चल रहे हैं तो निश्चित ही मनुष्य जाति का विनाश हमारे अनुमानों से पहले ही हो जाएगा। जो लोग जलवायु परिवर्तन की स्थिति को समझते हैं और तथ्यों से परिचित हैं, उन्हें इससे कोई असहमति नहीं सकती है।

आश्चर्य तब होता है जब विश्व भर में सत्ता पर काबिज लोग भी वर्तमान रास्ते को बदलने की बात तो लगातार करते हैं, अनेक उपायों की चर्चा भी करते हैं, लेकिन जमीन पर कोई व्यावहारिक बदलाव नहीं हो पाता है। इसका सबसे निकटस्थ उदाहरण है दिल्ली में वायु प्रदूषण की भयावह समस्या।

प्रतिवर्ष वही वादे, वही न्यायालय के नाराजगी भरे निर्णय और उत्तरदायी व्यक्तियों द्वारा लगातार अपनी कर्मठता जाहिर करते देखना मात्र तक ही दिल्ली की नियति बन गई है। वैसे यह समस्या सिर्फ दिल्ली की ही नहीं, देशव्यापी है, विश्वव्यापी है। करीब बीस वर्ष पहले एक ऐसी संभावना बनी थी, जिसमें भारत की नई पीढ़ी को पर्यावरण प्रदूषण से निपटने के लिए तैयार किया जा साकता था, मगर वह राजनीति की भेंट चढ़ गया।

दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने एनसीईआरटी को दिसंबर 2003 में निर्देश दिया था कि वह पर्यावरण शिक्षा को एक अलग विषय के रूप में पढ़ाए जाने के लिए कक्षा एक से लेकर 12 तक का पाठ्यक्रम बनाए, जिसे संस्था ने मार्च 2004 में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। न्यायालय ने उसे सभी राज्य सरकारों को भेजा।

यह राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत संतोष की स्थिति थी कि सभी राज्य सरकारों ने उस पाठ्यक्रम को स्वीकार किया। साथ ही अपने स्कूल शिक्षा की संरचना में आवश्यक परिवर्तन कर पर्यावरण शिक्षा को एक अलग स्वतंत्र विषय बनाने की बात कही। मई 2004 में केंद्र में नई सरकार आ गई।

चूंकि उक्त निर्णय पूर्ववर्ती सरकार के प्रयास का परिणाम था अतः उसने उस निर्णय को लागू नहीं किया। नीति-निर्धारण स्तर पर जब भविष्यदृष्टि की कमी होती है, तब अनेक ऐसे निर्णय लिए जाते हैं, जिनका आधार शैक्षिक या अकादमिक न होकर कहीं न कहीं राजनीतिक विचारधाराओं के सतत संघर्ष में छिपा होता है।

कल्पना कीजिए कि यदि 20 वर्ष से पहले पर्यावरण शिक्षा को अनिवार्य और स्वतंत्र विषय बना दिया जाता तो देश के प्रशासन में आज युवाओं की एक ऐसी पीढ़ी कार्यरत होती, जिसके मन मस्तिष्क में पर्यावरण रक्षा के प्रति श्रद्धा पैदा हो चुकी होती। संभव है कि उनमें से कोई एक दिल्ली की समस्या को चुनौती मानकर इसका समाधान करने के लिए जी जान से जुट जाता और सफल होता।

इंदौर और सूरत जैसे शहरों में जो सफलताएं स्वच्छता को लेकर मिलीं और सारे देश में इन शहरों की सराहना हुई, उसके पीछे भी कहीं न कहीं एक उत्साहित, अध्ययनशील और भविष्यदृष्टि वाला व्यक्तित्व उपस्थित था। सामान्यजन अब यह समझ चुके हैं कि उत्तरदायी व्यक्ति यदि निष्ठापूर्वक किसी समस्या का समाधान करना चाहे तो रास्ते निकाल सकते हैं और समाधान भी प्राप्त कर सकते हैं।

इसके लिए पहली आवश्यकता यह है कि उन्हें अपने परिवार और करियर के बजाय जनसेवा को जीवन का उद्देश्य बनाकर आगे बढ़ना होगा। लोकतंत्र कहता है कि जो चयनित जनप्रतिनिधि संवैधानिक पदों पर नियुक्त होंगे वे जनसेवा के कारण ही वहां पहुंचेंगे और इसके बाद वे पूर्णरूपेण अपना सर्वस्व उसी के लिए समर्पित कर देंगे।

यही अपेक्षा तो गांधी, सुभाष चंद्र बोस, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी जैसे मनीषियों ने स्वतंत्र भारत में नेतृत्व प्रदान करने वाले जन प्रतिनिधियों से की थी। दुख की बात है कि उनकी अपेक्षाओं को वर्तमान राजनीतिक और दलगत वैचारिक प्रतिबद्धताओं की आधी-अधूरी समझ के अंतर्गत पूरी तरह नकार दिया गया है।

हर उस क्षेत्र में जहां जनसाधारण का जीवन प्रभावित होता है, निर्णय ले सकने वालों की स्वार्थपरकता व्यक्ति के लिए कष्टकर स्थितियां ही उत्पन्न करती हैं। जनहित की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं इसी कारण अपने लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाती हैं।

उदाहरण के रूप में अगर देश के स्वास्थ्य क्षेत्र को ही लें तो अनेक सरकारी योजनाओं की घोषणा होने के बावजूद आज भी सरकारी अस्पतालों की स्थिति सामान्य व्यक्ति के लिए सुविधाजनक नहीं बन पाई है। ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों की हालत और चिंताजनक है। उनमें नियुक्त डाक्टर सप्ताह में एक या दो दिन ही जाते हैं, उनके वरिष्ठ अधिकारी यह सब जानते हैं, मगर पता नहीं क्यों किसी कार्रवाई की आवश्यकता महसूस नहीं करते। अंततः लोग इस स्थिति को अपरिवर्तनीय मानकर स्वीकार कर लेते हैं।

वर्ष 2013 में आई न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति की रिपोर्ट में बताया गया था कि देश में 10 हजार शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान केवल व्यापार कर रहे हैं, प्रशिक्षण की गुणवत्ता में उनकी कोई रुचि नहीं है और वे डिग्री बेच रहे हैं। नई शिक्षा नीति-2020 में भी इस कथन को शामिल किया गया है और शिक्षक प्रशिक्षण में गहन सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार किया गया है।

शिक्षा नीति में न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति के शब्दों को दोहराया जाना यह स्पष्ट करता है कि डिग्री बेचने वाले संस्थान इस बीच अपना कार्य करते रहे। राष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्थागत निष्क्रियता और अन्यमनस्कता का यह एक सटीक उदाहरण है। देश में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। स्पष्ट है सामान्य जन के जीवन में अपेक्षित परिवर्तन तभी होगा, जब देश का प्रबुद्ध वर्ग अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए आगे आएगा और सरकारी तंत्र ईमानदारी, कर्मठता और सेवा भाव को प्राथमिकता देगा।

(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और पंथक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं)