सुप्रीम कोर्ट ने तिरुपति मंदिर के लड्डुओं में पशुओं की चर्बीयुक्त घी का इस्तेमाल किए जाने के मामले में विशेष जांच दल का गठन करके आंध्र सरकार की ओर से की जाने वाली जांच को लेकर उठ रहे संदेह को खत्म करने का काम किया है। आशा की जानी चाहिए कि पांच सदस्यीय विशेष जांच दल इस मामले में दूध का दूध और पानी का पानी करने में सफल होगा। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि हिंदुओं की आस्था का प्रश्न है। तिरुपति मंदिर के प्रसाद को तैयार करने में अशुद्ध घी का इस्तेमाल किए जाने का आंध्र के मुख्यमंत्री का आरोप बहुत ही सनसनीखेज था। इस आरोप ने हिंदू समाज को विचलित किया, क्योंकि कोई यह सोच भी नहीं सकता कि विश्व प्रसिद्ध तिरुपति मंदिर के प्रसाद में जिस घी का इस्तेमाल होता है, उसमें पशुओं की चर्बी प्रयुक्त होती है।

ऐसा होने की आशंका इसलिए गहरा गई थी, क्योंकि यह सामने आया था कि घी की आपूर्ति करने वाली कंपनी उसे लगभग चार सौ रुपये प्रति किलो में उपलब्ध कराती थी। इतना सस्ता घी तो तभी मिल सकता है, जब उसमें कोई मिलावट की जाए, क्योंकि दूध की औसत कीमत 45-50 रुपये प्रति लीटर है और एक किलो घी तैयार करने में 20 से 25 लीटर दूध चाहिए होता है। स्पष्ट है कि यह जानने की जरूरत है कि तिरुपति मंदिर में प्रसाद बनाने के लिए इतना सस्ता घी कैसे उपलब्ध कराया जा रहा था और यदि उसमें मिलावट की जा रही थी तो किस चीज की? यदि देश में कहीं पर भी पांच-छह सौ रुपये में एक किलो घी उपलब्ध हो रहा है तो वह शुद्ध नहीं हो सकता। प्रश्न यह है कि इसकी जांच कौन करेगा कि विभिन्न कंपनियां पांच-छह सौ रुपये में घी कैसे उपलब्ध करा रही हैं?

अपने देश में खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट कोई नई बात नहीं है। खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट रुके, इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को भी अपने स्तर पर कुछ करने की जरूरत है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि विभिन्न एजेंसियां खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट को रोकने के लिए सक्रिय रहती हैं, क्योंकि उनकी सक्रियता निष्प्रभावी ही साबित हो रही है। तिरुपति मंदिर का मामला केवल यह जानने तक सीमित नहीं रहना चाहिए कि उसके प्रसाद में पशुओं की चर्बी वाले घी का इस्तेमाल होता था या नहीं?

इस मामले ने यह प्रश्न भी खड़ा किया है कि आखिर हिंदुओं के मंदिरों का संचालन सरकारों को क्यों करना चाहिए? यदि अन्य समुदायों को अपने धार्मिक स्थलों के संचालन का अधिकार मिला हुआ है तो ऐसा ही अधिकार हिंदू समाज को क्यों नहीं मिलना चाहिए? यह वह प्रश्न है, जो अनुत्तरित नहीं रहना चाहिए, क्योंकि कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं कि राज्य सरकारों की ओर से संचालित हिंदू मंदिरों की देख-रेख सही तरीके से नहीं हो रही है।