जागरण संपादकीय: संयुक्त राष्ट्र में सुधार का इंतजार, अक्षम हो चुकी हैं संस्थाएं
अमेरिका भी भारत की खेमेबाजी से परे अवसरानुकूल कूटनीति को लेकर आशंकित रहा है। इसका नवीनतम उदाहरण भारत का रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंधों में शामिल न होना और यूक्रेन पर रूसी हमले के निंदा प्रस्तावों से दूर रहना है। इसलिए वह भी भारत को वीटो अधिकार वाली स्थायी सदस्यता देने का समर्थन कर ही देगा यह सुनिश्चित नहीं है।
शिवकांत शर्मा। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने भविष्य शिखर सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में कहा, 'दुनिया एक बवंडर में फंसी है। हम ऐसी अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जो वैश्विक समाधान चाहती हैं।' इससे पहले उन्होंने कहा था, 'सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाएं आज पूरी तरह अप्रासंगिक, अयोग्य और अक्षम हो चुकी हैं। इनमें सुधार किए बिना वैश्विक चुनौतियों से नहीं निपटा जा सकता।' अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा, 'हताश होने के बजाय हमें एकजुट होकर चुनौतियों का सामना करना चाहिए। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र को और सक्षम, प्रभावी और समावेशी बनाने की जरूरत है। इसीलिए हम सुरक्षा परिषद का सुधार और विस्तार करने का समर्थन करते हैं।' वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने वैश्विक संस्थाओं में सुधार के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा था, 'सुधार प्रासंगिक बने रहने की कुंजी हैं। मानव की सफलता उसकी संगठित शक्ति में है, जंग के मैदान में नहीं।' इन वक्तव्यों से संकेत मिलता है कि सुरक्षा परिषद के सुधार और विस्तार के लिए आम सहमति बन चुकी है। दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति रामफोसा ने भी सुरक्षा परिषद में सुधार करने और अफ्रीका को स्थायी सीट देने की मांग रखी।
महासचिव गुटेरस ने माना है कि अफ्रीका को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट देने पर सहमति हो चुकी है, पर सुधार और विस्तार की प्रक्रिया क्या हो और इसकी शुरुआत कब हो, इसे लेकर सहमति नहीं बन पा रही। लैटिन अमेरिका से ब्राजील को स्थायी सदस्यता देने पर भी किसी को आपत्ति नहीं है। मसला विश्व की दो तिहाई आबादी और लगभग आधी अर्थव्यवस्था वाले एशिया का है, जिसका प्रतिनिधित्व अकेले चीन के पास है। यूरोप के पास रूस, फ्रांस और ब्रिटेन की तीन सीटें हैं। इसलिए कुछ देशों का सुझाव है कि इन तीन देशों में से कम से कम एक को अपना वीटो अधिकार और सीट छोड़ देनी चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के आठ दशकों में विश्व के सामरिक और आर्थिक समीकरण पूरी तरह बदल जाने के बावजूद वीटो अधिकार वाले पांचों स्थायी सदस्यों में से कोई अपने वीटो अधिकार और स्थायी सीट को छोड़ने को तैयार नहीं है। स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने पर आम सहमति है, परंतु चीन को वीटो अधिकार वाले सदस्यों की संख्या बढ़ाना मंजूर नहीं, खासकर एशिया से जहां स्थायी सदस्यता के दोनों दावेदारों, भारत और जापान पर वह अलग-अलग कारणों से संदेह करता है। यह समय की विडंबना है कि भारत ने जिस चीन को मान्यता देने में पहल की थी और सुरक्षा परिषद में उसकी स्थायी सीट को सिद्धांत के तौर पर लेने से मना कर दिया था, आज वही चीन भारत की स्थायी सदस्यता के मार्ग में आड़े आ रहा है। चीन के अलावा भारत के दूसरे पड़ोसी देश भी चुनाव प्रक्रिया, न्याय प्रक्रिया, संवैधानिक संस्थाओं और मानवाधिकारों पर उचित-अनुचित सवाल उठाकर स्थायी सदस्यता की राह को कठिन बनाते रहते हैं।
अमेरिका भी भारत की खेमेबाजी से परे अवसरानुकूल कूटनीति को लेकर आशंकित रहा है। इसका नवीनतम उदाहरण भारत का रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंधों में शामिल न होना और यूक्रेन पर रूसी हमले के निंदा प्रस्तावों से दूर रहना है। इसलिए वह भारत को वीटो अधिकार वाली स्थायी सदस्यता देने का समर्थन कर ही देगा, यह सुनिश्चित नहीं। वीटो अधिकार के बिना सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता से अनुचित निर्णयों पर तमाशबीन बने रहने की बेचारगी के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा। इसलिए भारत की दिलचस्पी ऐसी सदस्यता में नहीं है। या तो सभी अपने-अपने वीटो अधिकारों का परित्याग करें, जिसकी संभावना कम है या फिर नए सदस्यों को भी वीटो अधिकारों के साथ शामिल किया जाए, ताकि वे यूक्रेन पर रूसी हमले जैसे नियमों को ताक पर रखकर किए जाने वाले संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उल्लंघनों को यदि न भी रोक सकें, तो भी कम से कम संयुक्त राष्ट्र के नाम पर इराक पर किए गए हमले जैसी विवादास्पद कार्रवाइयों को तो रोक सकें।
यूक्रेन की अखंडता और संप्रभुता और फलस्तीनियों के अस्तित्व की रक्षा करने में संयुक्त राष्ट्र की बेचारगी दिखाती है कि उसकी संस्थाएं कितनी अयोग्य और अक्षम हो चुकी हैं। वैश्विक व्यवस्था को बहाल करने के लिए नाम के सुधारों की नहीं, बल्कि कारगर सुधारों की जरूरत है, जो मनमानी को रोक सकें। आतंकवाद की सर्वमान्य परिभाषा तय करने और उसकी रोकथाम के लिए वैश्विक रणनीति बनाने की भी जरूरत है, ताकि हमास, लश्कर और अल कायदा जैसे आतंकी संगठनों की रोकथाम की जा सके। साइबर, समुद्र और अंतरिक्ष में व्यवस्था कायम रखना भी बड़ी वैश्विक चुनौती है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में इन तीनों का जिक्र किया, क्योंकि इनमें असुरक्षा रहने से संचार से लेकर व्यापार तक हर पहलू प्रभावित होता है।
इस समय विश्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौतियां हैं कृत्रिम मेधा और जलवायु परिवर्तन। कृत्रिम मेधा से प्रशिक्षित हो रहीं मशीनों का प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में पड़ने वाला है। इनका सही प्रयोग कायाकल्प कर सकता है तो दुरुपयोग के कल्पनातीत दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। साइबर, संचार और जैविक आतंक के क्षेत्रों में इस तकनीक के दुरुपयोग की घातकता परमाणु हथियारों से कम नहीं है। इसलिए इसके दुरुपयोग की रोकथाम के लिए एक वैश्विक रणनीति की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन की रोकथाम पर तो हमारा अस्तित्व ही निर्भर करता है। इसलिए उस पर ऐसी बहुपक्षीय और बहुकोणीय रणनीति बनाने की जरूरत है, जो कारगर होने के साथ-साथ व्यावहारिक और न्यायसंगत भी हो।
भारत इन वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए वैश्विक व्यवस्था में सुधारों की पैरवी और अगुआई तभी कर सकता है, जब वह अपने यहां भी समयोचित सुधारों में आगे रहने की मिसाल कायम करे। आर्थिक सुधारों की गाड़ी मंथर गति से अटक-अटक कर चल रही है। भूमि, श्रम और न्यायिक सुधारों की बात ही शुरू नहीं हुई है। कृषि सुधारों से पीछे हटना पड़ा है। एक देश एक चुनाव और समान नागरिक संहिता जैसे सुधार क्षेत्रीयता और मजहबी राजनीति में उलझ गए हैं। ऐसे में आर्थिक और सामाजिक विकास की गाड़ी कैसे गति पकड़ेगी? कौटिल्य ने ढाई हजार साल पहले कहा था कि देश की असली शक्ति उसकी अर्थशक्ति में होती है। सुधारों के बिना यह शक्ति हासिल नहीं हो सकती और इसके बिना विश्व मंच पर हमारी वैश्विक सुधारों की बात ध्यान से नहीं सुनी जा सकती।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)