दिव्य कुमार सोती। हिजबुल्ला के मुखिया हसन नसरुल्ला की इजरायली हमले में मौत के बाद पश्चिमी एशिया में तनाव की आग और भड़क गई है। नसरुल्ला की मौत के जवाब में ईरान ने इजरायल पर मिसाइलों से हमला बोला। इजरायल ने इन मिसाइल हमलों का बदला लेने की कसम खाई है। इससे पहले इजरायल ने ईरान में हमास चीफ इस्माइल हानिया को भी ढेर किया था, लेकिन तब ईरान ने इजरायल पर कोई सीधी सैन्य कार्रवाई नहीं की थी। इस बार लेबनान में विभिन्न इलेक्ट्रानिक उपकरणों में विस्फोटों के जरिये हजारों हिजबुल्ला आतंकियों के घायल होने और कई के मारे जाने और फिर नसरुल्ला की मौत के बाद ईरान अत्यंत मजबूर दिखने लगा और उसके द्वारा समर्थित विभिन्न आतंकी गुटों के भीतर ही ईरान की इजरायल नीति को लेकर आवाजें उठने लगी थीं।

ईरान में 1979 की इस्लामिक क्रांति के चलते अायतुल्ला खोमैनी के नेतृत्व में बनी कट्टरपंथी इस्लामिक सरकार ने पूरे पश्चिमी एशिया में आतंकी संगठनों का जाल बिछाया। इस्लामिक जगत का नेतृत्व शिया वर्ग के हाथ में लेने के लिए खोमैनी के नेतृत्व वाले ईरानी शासनतंत्र ने पूरे विश्व के मुस्लिम मानस को प्रभावित करने वाले फलस्तीन के मुद्दे को चुना और इजरायल के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष छेड़ने के लिए हिजबुल्ला जैसे आतंकी संगठनों को समर्थन देना शुरू किया। शिया और सुन्नी इस्लाम के समीकरणों की एक खास बात यह है कि कोई सुन्नी मुसलमान शिया भी बन सकता है, क्योंकि मुस्लिम जगत में शिया अल्पसंख्यक हैं। इसलिए खोमैनी के कठमुल्ला तंत्र के लिए यह आवश्यक था कि वह सुन्नी अतिवादियों के भी एक तबके को अपने साथ ले। चूंकि अधिकांश सुन्नी अतिवादी शिया इस्लाम के कट्टर विरोधी हैं और आर्थिक रूप से सुन्नी अरब देशों पर निर्भर रहे हैं, इसलिए ईरान के लिए यह चुनाव आसान नहीं था। ऐसे में सुन्नी मुस्लिम ब्रदरहुड की फलस्तीन इकाई यानी हमास ईरान का औजार बनी।

खोमैनी ने इस्लामिक शासन का जो कट्टरवादी माडल मुस्लिम जगत के सामने पेश किया, उससे दुनिया भर के इस्लामिक कट्टरपंथी प्रभावित हुए। इसका एक परिणाम यह हुआ कि अरब जगत की तमाम सेक्युलर सरकारें और तानाशाह धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता खोते गए और इस्लामिक कट्टरपंथी मजबूत होते गए। जो सुन्नी राजशाहियां इस लहर में बच भी पाईं, उन्होंने अपने ऊपर से दबाव हटाने के लिए दूसरे देशों में सुन्नी जिहादी संगठनों का समर्थन करना शुरू किया, जिसकी परिणति अलकायदा से लेकर तालिबान जैसे तमाम सुन्नी आतंकी संगठनों के उदय के रूप में हुई। अफगानिस्तान की तालिबान सरकार तो खोमैनी के कठमुल्ला शासन का सुन्नी संस्करण ही थी।

तालिबान सरकार के 1996 में सत्ता में आने पर उसे तीन देशों से ही मान्यता मिली थी-सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान। इनमें से पहले दो देशों का उद्देश्य ईरान से सटे अफगानिस्तान में खोमैनी के शिया इस्लामिक राष्ट्र जैसा ही एक प्रतियोगी सुन्नी शासनतंत्र खड़ा करना था, जिसका प्रमुख भी एक कट्टरपंथी मौलाना हो और जहां सुन्नी कट्टरपंथियों को इकट्ठा रखकर उनकी शक्ति को दूसरे देशों की ओर निर्देशित रखा जा सके। खोमैनी की इस्लामिक क्रांति का एक और प्रभाव यह भी हुआ कि दुनिया भर के अशांत मुस्लिम क्षेत्रों के लोगों को लगा कि हिंसा के माध्यम से सत्ता को पलटा जा सकता है। खोमैनी ने मुस्लिम जगत में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए इस भावना को खूब हवा भी दी और फलस्तीन से लेकर कश्मीर तक के मुसलमानों को अपने भाषणों के जरिये उकसाया। ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए सुन्नी देशों ने और बढ़-चढ़कर आतंकी संगठनों की सहायता की। इस प्रकार यह एक दुष्चक्र बन चुका है, जिसके चलते लाखों लोग जान गंवा चुके हैं।

भारत के ईरान के साथ संबंध ठीक-ठाक ही रहे हैं और सुन्नी पाकिस्तान को काबू में रखने के लिए दोनों देशों ने कई स्तरों पर साथ काम भी किया है, लेकिन ईरान की ओर से ये संबंध बस यहीं तक सीमित रहे हैं। वह पाकिस्तान के सुन्नी कट्टरपंथियों को बस खुद पर हावी नहीं होने देना चाहता। खोमैनी के कठमुल्लावाद में भी भारत के लिए इससे अधिक जगह नहीं है। अभी हिजबुल्ला पर इजरायली हमलों से कुछ दिन पहले ही भारत में मुसलमानों की दशा की फलस्तीन से तुलना करते हुए खामनेई ने एक भड़काऊ ट्वीट (पोस्ट) किया था। परंपरागत रूप से ईरान भारत और उसके भागों में सक्रिय रही कट्टरपंथी शक्तियों के संरक्षक की भूमिका निभाता रहा है। भारत से उखाड़ फेंके जाने पर हुमायूं ने ईरान के शाह की सहायता से ही मुगल साम्राज्य को भारत में फिर से स्थापित किया था। जब औरंगजेब के बाद मुगल कमजोर पड़े तो नादिर शाह भारतीयों से लूटी गई अपार धन-संपदा को ईरान ले गया। नादिर शाह के बाद उसके सेनापति अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर कई हमले कर मराठों के विस्तार को रोका और मुगलों को पतन से बचाया।

कम ही लोग जानते हैं कि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से पहले ईरान के शाह ने कराची बंदरगाह की रक्षा के लिए पाकिस्तान से गुप्त समझौता कर रखा था। भारत को यह संदेश भी भिजवाया गया था कि अगर उसने पश्चिमी पाकिस्तान पर हमला किया तो ईरानी फौजें आगे बढ़कर पाकिस्तान की रक्षा करेंगी। बलूचिस्तान के एक हिस्से पर कब्जा जमाए बैठा ईरान पाकिस्तान की तरह ही उसके स्वतंत्रता आंदोलन का निर्ममता से दमन करता आया है। ईरान को परमाणु तकनीक उपलब्ध कराने में भी पाकिस्तान के कुख्यात परमाणु वैज्ञानिक एक्यू खान का हाथ रहा है। अगर ईरान भारत का भरोसेमंद मित्र देश होता तो पाकिस्तान के सुन्नी जनरल कभी ईरान को परमाणु तकनीक उपलब्ध न कराते। स्पष्ट है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम भारत के हित में भी नहीं और इजराइल के साथ मौजूदा संघर्ष में यदि ईरान का पलड़ा भारी रहा तो वह विश्व शांति के लिए और बड़ा खतरा होगा। ईरान में उपजे कठमुल्लावाद की भू-राजनीतिक परछाई भारत तक पड़ती है। यह परछाई पूरे विश्व को प्रतिस्पर्धात्मक इस्लामिक उग्रवाद की आग में झुलसा रही है। अच्छा यही होगा कि खोमैनी द्वारा स्थापित मध्ययुगीन कट्टरपंथी शासन का वर्तमान सैन्य संघर्ष के फलस्वरूप पतन हो जाए।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)