विकास सारस्वत। पिछले दिनों ज्यों हीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय के नए भवन का शिलान्यास किया, त्यों ही मीडिया से लेकर इंटरनेट मीडिया पर यह दुष्प्रचार शुरू हुआ कि नालंदा महाविहार को बख्तियार खिलजी ने नहीं, बल्कि ब्राह्मणों ने जलाया था। इस दुष्प्रचार को मुख्य स्वर आइआइटी, बांबे के पूर्व प्रोफेसर राम पुनियानी ने दिया। पुनियानी पहले भी सोमनाथ और काशी विश्वनाथ विध्वंस पर बेशर्मी से झूठ बोल चुके हैं।

नालंदा महाविहार पर उनके स्वयं के बयान को शायद इतना महत्व न मिलता, परंतु पुनियानी ने अपनी दलील के समर्थन में प्रख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार द्विजेंद्र नारायण झा को उद्धृत किया। आर्यों के तथाकथित आक्रमण से लेकर राम मंदिर की अदालती कार्यवाही में मार्क्सवादी इतिहासकारों ने जितना झूठ परोसा है, वह एक अच्छे खासे पुस्तकालय की सामग्री बन सकता है।

नालंदा पर झूठा कथानक भी ऐसा ही एक प्रयास है। प्रोफेसर डीएन झा द्वारा नालंदा पर तथ्यों से किए गए खिलवाड़ का जवाब प्रख्यात लेखक एवं पत्रकार अरुण शौरी ने बहुत पहले ही दे दिया था। शौरी की अकाट्य दलीलों पर आने से पहले प्रामाणिक इतिहास जान लेना आवश्यक है। वर्ष 1197 में नालंदा विध्वंस का सबसे पहला उल्लेख मामलूक सल्तनत के फारसी इतिहासकार मिन्हाज अल दीन की किताब तबकात-ए-नासिरी में मिलता है।

मिन्हाज 1227 में भारत आया और नालंदा पर हमले का वर्णन उसने कुछ इस प्रकार किया, ‘वह (बख्तियार) दो सौ घुड़सवारों के साथ विहार के किले के प्रवेश द्वार की ओर बढ़ा और अचानक उस स्थान पर हमला कर दिया। बड़ी निडरता से बख्तियार ने खुद को महल के प्रवेश द्वार के पीछे फेंक दिया और किले पर कब्जा कर लिया और भारी लूट हासिल की।

उस स्थान के निवासियों में, जिनमें बड़ी संख्या ब्राह्मणों की थी, और उन सभी ब्राह्मणों के सिर मुंडे हुए थे, वे सभी मारे गए। वहां बड़ी संख्या में पुस्तकें थीं और जब यह सभी पुस्तकें मुसलमानों के हाथ आईं तो उन्होंने हिंदुओं को बुलवाया ताकि वे उन पुस्तकों की लेखनी के संबंध में जानकारी दे सकें, लेकिन सारे हिंदू मारे गए थे। उन किताबों की सामग्री से परिचित होने पर पता चला कि वह पूरा किला और शहर एक कालेज था और हिंदू अपनी भाषा में कालेज को विहार कहते हैं।’

मिन्हाज जिन्हें ब्राह्मण बता रहा था, वे संभवत: बौद्ध भिक्षु रहे होंगे। अन्यथा मुंडे हुए सिर की अपेक्षा शिखाओं का वर्णन आता। यदि कोई कहे कि तबकात-ए-नािसरी में ‘नालंदा’ नाम विशेष रूप से नहीं आया है तो यह कमी नालंदा विध्वंस के सैंतीस वर्ष बाद भारत भ्रमण पर आए तिब्बती भिक्षु धर्मस्वामी की जीवनी से पूरी हो जाती है। इस जीवनी में नालंदा में चौदह शिखर और अस्सी विहारों के तुरुष्कों द्वारा तोड़े जाने का वर्णन है।

कुछ इतिहासकारों ने मिन्हाज द्वारा वर्णित तोड़े और जलाए गए विहार को नालंदा की जगह ओदंतपुरी बताया है, परंतु धर्मस्वामी की जीवनी में नालंदा जलाकर एक दिन बाद ओदंतपुरी पहुंचने का विवरण है जो कि दोनों स्थानों की दस किमी दूरी होने के कारण एकदम सटीक बैठता है। इतने स्पष्ट विवरण के उलट ऐतिहासिक महत्व की इस घटना पर डीएन झा ने अपना विपरीत पक्ष 2004 की इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अध्यक्षीय भाषण में दिया।

झा ने कहा ‘एक तिब्बती परंपरा यह है कि ग्यारहवीं शताब्दी के कलचुरी राजा कर्ण ने मगध में कई बौद्ध मंदिरों और मठों को नष्ट किया था और तिब्बती ग्रंथ पागसैम जानसांग में कुछ ‘हिंदू कट्टरपंथियों’ द्वारा नालंदा के पुस्तकालय को जलाने का उल्लेख है।’ जिस ग्रंथ का जिक्र झा ने किया वह अठारहवीं शताब्दी में लिखा गया था। इसी वाक्य के आधार पर पुनियानी और अन्य लोगों ने अपना प्रोपेगैंडा चलाया है, परंतु इस मिथ्याप्रचार का सच शौरी ने 2014 में उद्घाटित किया।

शौरी ने लिखा कि उन्हें इस वाक्य में जो बात सबसे पहले खटकी वह थी ‘हिंदू कट्टरपंथी’, क्योंकि झा अठारहवीं शताब्दी के ग्रंथ में उस सेक्युलर शब्दावली का हवाला दे रहे थे, जो अभी हाल ही में चलन में आई है। मूल ग्रंथ में शौरी को पागसैम जानसांग द्वारा उद्धृत कहानी कुछ इस प्रकार मिली ‘राजा के एक मंत्री कुकुटसिद्ध द्वारा नालंदा में एक मंदिर निर्माण पर उत्सव के दौरान कुछ शरारती नौसिखिये भिक्षुओं ने दो गैर-बौद्ध भिखारियों पर पानी छिड़क दिया और उन्हें दरवाजे और चौखट के बीच दबा दिया।

इससे क्रोधित होकर एक भिखारी ने दूसरे की परिचर के रूप में सेवा की जो सूर्य की सिद्धि प्राप्त करने के लिए 12 वर्षों तक गहरे गड्ढे में बैठा रहा। सिद्धि प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने द्वारा किए गए हवन की राख को 84 बौद्ध मंदिरों पर फेंक दिया। वे सभी जल गए। विशेष रूप से, धर्मग्रंथों को आश्रय देने वाले नालंदा के तीन धर्म गंज भी आग में भस्म हो गए। गुह्यसमाज और प्रज्ञापरमिता के धर्मग्रंथों से पानी की धाराएं बहने लगीं, जो रत्नधाती मंदिर की नौवीं मंजिल में स्थित थीं। इससे अनेक धर्मग्रंथ बच गए। बाद में, राजा के दंड के डर से दोनों भिखारी उत्तर में हसामा (असम) भाग गए। हालांकि, दोनों की मृत्यु आत्मदाह के कारण हुई।’

शौरी के अनुसार डीएन झा द्वारा उद्धृत उपरोक्त वाक्य एक अन्य मार्क्सवादी इतिहासकार बीएनएस यादव की पुस्तक ‘सोसायटी एंड कल्चर इन नार्दर्न इंडिया’ से शब्दशः लिया गया था, परंतु मजे की बात यह थी कि जहां यादव ने कलचूरी राजा द्वारा मगध के मंदिर मठों को नष्ट करने वाली तिब्बती परंपरा को संदेहास्पद बताया है, वहीं झा ने ‘संदेहास्पद’ शब्द को अपने वक्तव्य से हटा दिया। साथ ही यादव द्वारा लिखे गए ‘भिखारी’ शब्द को झा ने ‘हिंदू कट्टरपंथी’ में बदल दिया।

एजेंडा लेखन के तहत डीएन झा ने एक नहीं, बल्कि कई स्तर पर छलावा किया। सबसे पहले एक दूसरे इतिहासकार के लेखन को चोरी किया और फिर उसमें से वैसे शब्दों को हटाया या बदला, जिससे अर्थ का अनर्थ हो गया। इसके अलावा समकालीन विवरण की अपेक्षा अठारहवीं शताब्दी के ऐसे ग्रंथ को महत्व दिया, जो टोने-टोटकों की बात करता है।

नालंदा पर डीएन झा का झूठ वामपंथी इतिहासकारों की मक्कारी की लंबी फेहरिस्त में सिर्फ एक किस्सा है। अफसोस की बात यह है कि तमाम कारगुजारियां उजागर होने के बाद भी वामपंथी इतिहासकारों का प्रभाव अकादमिक जगत और शासकीय व्यवस्था पर पहले की ही तरह बना हुआ है।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)