दिव्य कुमार सोती। वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर चार साल के व्यापक टकराव के बाद चीन भारत के साथ सैन्य तनाव घटाने को राजी हो गया। प्रश्न है कि क्या चीन इस सैन्य आक्रामकता से अपने किसी उद्देश्य को हासिल कर सका? इस आक्रामक सैन्य तैनाती के पीछे चीन का पहला उद्देश्य था कि वह भारत को संदेश दे कि 1971 के युद्ध के बाद नियंत्रण रेखा पार कर पाकिस्तान में बमबारी करने, अनुच्छेद 370 को समाप्त करने और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने जैसे कदमों के बाद वह अब बस करे। चीन यह भी चाहता था कि भारत जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के उन हिस्सों, जो चीन और पाकिस्तान के कब्जे में हैं, को लेकर कोई बड़ी महत्वाकांक्षा न पाले। चीन किसी सूरत में यह नहीं चाहता था कि भारत गिलगित-बाल्टिस्तान की ओर कदम बढ़ाए, क्योंकि ऐसा होने पर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा तो खतरे में पड़ ही जाएगा, भारत का पारंपरिक भौगोलिक संपर्क अफगानिस्तान, मध्य एशिया, यूरोप और रूस से जुड़ जाएगा। यह भारत को बड़ी आसानी से एशिया की सबसे बड़ी भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक महाशक्ति बना देगा। चीन का दूसरा उद्देश्य था कई स्थानों पर वास्तविक नियंत्रण रेखा को भारत की ओर खिसकाना। तीसरा उद्देश्य था कि भारत की सबसे बड़ी चिंता यानी दो मोर्चों पर युद्ध के हालात को मूर्त रूप दिया जाए। इसमें वह सफल नहीं हो सका, क्योंकि आर्थिक संकट और आंतरिक अस्थिरता में घिरे पाकिस्तान ने सैन्य तनाव के बीच ही भारत के साथ नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम समझौता कर लिया।

गलवन की सैन्य झड़प में अपने दृढ़ रवैये और सैन्य तनाव के बीच कैलास रेंज की कुछ सामरिक चोटियों पर कब्जा करने जैसे कदमों के माध्यम से भारत ने स्पष्ट कर दिया था कि वह जोर-जबरदस्ती से वास्तविक नियंत्रण रेखा को खिसकाने नहीं देगा। इसका परिणाम यह हुआ कि सैन्य तनाव समाप्त किए बिना संबंधों को सामान्य करने की रट लगाने वाले चीन को सीमा पर तनाव घटाने के लिए राजी होना पड़ा। यह मोदी सरकार की बड़ी कूटनीतिक सफलता है। इस घटनाक्रम ने भारत और चीन, दोनों को ही एक-दूसरे के सापेक्ष शक्ति विस्तार की सीमाएं दिखला दी हैं। अब जहां यह स्पष्ट है कि चीन सैन्य ताकत और कमजोर पड़ते दोस्त पाकिस्तान के बल पर नए भारत को दबा नहीं सकता, वहीं भारत के लिए भी यह स्पष्ट है कि गिलगित-बाल्टिस्तान जैसे अपने भूभागों को वापस पाने के लक्ष्य को प्राप्त करने लायक सैन्य और आर्थिक शक्ति अभी उसे एकत्र करनी बाकी है।

चीन के साथ सैन्य तनाव के बीच दिल्ली का जिस तरह किसान आंदोलन के नाम पर महीनों घेराव करके रखा गया और गणतंत्र दिवस पर लाल किले पर धावा बोलकर जैसा उत्पात मचाया गया, उसने यह बताया कि भारत आंतरिक मोर्चे पर कितना भेद्य है। भारत अभी साइबर युद्ध, ड्रोन तकनीक और एआइ आदि में चीन से मीलों पीछे है। मोदी सरकार द्वारा रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए मेक इन इंडिया के माध्यम से कई कदम उठाए गए हैं, पर अभी भी उच्च तकनीक वाले अधिकतर सैन्य साजो-सामान के लिए वह दूसरे देशों पर निर्भर है, जिनमें से कई विश्वसनीय नहीं हैं। हमारे पास अपने कंप्यूटर आपरेटिंग सिस्टम और सोशल नेटवर्क प्लेटफार्म तक नहीं हैं। वहीं चीन इन सभी में पूरी तरह आत्मनिर्भर है।

भारत और चीन के संबंधों में ताजा प्रगति को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भी समझने की आवश्यकता है। सीमा पर सैन्य तनाव घटाने को लेकर समझौते की घोषणा से एक दिन पहले चीनी राष्ट्रपति ने अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा था। स्पष्ट है कि जब चीनी राष्ट्रपति यह बयान दे रहे थे, तब सीमा पर समझौते का खाका खींचा जा चुका था। दरअसल इस वर्ष के प्रारंभ में अमेरिका द्वारा भारत से पूछा गया था कि चीन द्वारा ताइवान पर सैन्य आक्रमण की स्थिति में क्या वह चीन के विरुद्ध एक सैन्य मोर्चा अपनी सीमा पर खोलेगा? स्पष्ट आश्वासन न मिलने पर अमेरिका द्वारा भारत पर दबाव बनाने के लिए कनाडा की सहायता से खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या और गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की कथित साजिश को लेकर आरोप लगाए गए और अमेरिकी मीडिया की सहायता से भारत के शीर्ष नेताओं और सुरक्षा अधिकारियों तक का नाम घसीटने का प्रयास किया गया। मणिपुर और म्यांमार में फैलाई जा रही अस्थिरता में अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की भूमिका को लेकर काफी चर्चा होती रही है। चर्चा इसकी भी होती है कि अमेरिका ने बांग्लादेश में शेख हसीना का तख्तापलट कराया। अमेरिका द्वारा यह सब तब किया गया, जब भारत चीनी शक्ति के बढ़ते विस्तार को रोकने के लिए बने क्वाड का सबसे प्रमुख सदस्य है।

चीन से संबंध सुधार कर भारत ने अमेरिका को भी संदेश दिया है कि उसके सभी विकल्प खुले हैं। चीन को भी समझ आया है कि भारत से शत्रुता बढ़ाकर वह अमेरिकी खेमे को ही मजबूत करेगा। अपनी धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था के लिए भारत के 140 करोड़ ग्राहकों वाले बाजार के दरवाजे बंद करना चीन के लिए आत्मघाती हो सकता है। भारत इस समय अकेला बड़ा देश है, जिसे हर खेमा लुभाना चाहता है। भारत को अमेरिका, फ्रांस से हथियार मिल रहे हैं तो रूस से भी। भारत अगर क्वाड का सदस्य है तो ब्रिक्स का भी। यदि भारत ने अमेरिका के साथ सैन्य समझौते किए हैं तो अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद वह रूस से तेल खरीदने वाला और रूस को प्रतिबंधित तकनीकी बेचने वाला दूसरा बड़ा देश है। भारत और चीन के परोक्ष सहयोग के बिना पुतिन इतने लंबे समय तक यूक्रेन में युद्ध जारी नहीं रख सकते थे। अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते रूस चीन पर निर्भर है, परंतु उसने भारत-चीन सैन्य तनाव के समय भी भारत को हथियारों की आपूर्ति जारी रखी और चीनी सेना की खतरनाक राकेट फोर्स से निपटने के लिए एस 400 मिसाइल रक्षा प्रणाली भारत को दी। चीन द्वारा संबंध सुधारने के लिए तैयार होने से पाकिस्तान पर भी प्रभाव पड़ेगा। वास्तव में वैश्विक संकटों का यह काल भारत के लिए सामरिक दृष्टि से स्वर्णिम काल है। भारत को इसका उपयोग अपनी आंतरिक समस्याओं का दीर्घकालिक हल खोजने में करना चाहिए। साथ ही अपनी अनोखी भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक स्थिति का लाभ उठाते हुए अमेरिका, रूस और यूरोप से उच्च तकनीक से जुड़े क्षेत्रों में पूर्ण आत्मनिर्भरता हासिल करनी चाहिए।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)