संकटग्रस्त पड़ोसी देशों के राजनीतिक एवं आर्थिक अस्थिरता के लिए सहारा बना भारत
पड़ोसी देशों को अब आभास हो जाना चाहिए कि भारत एक सच्चा साथी है जो बिना भेदभाव के उदार मन से उनकी यथासंभव मदद करता है। अस्थिर पड़ोसी देशों के लोकतांत्रिक सशक्तीकरण के लिए भारत तैयार भी है।
श्रीराम चौलिया। क्या यह महज एक दुर्योग ही है कि पाकिस्तान, श्रीलंका, अफगानिस्तान और म्यांमार फिलहाल राजनीतिक एवं आर्थिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे हैं? अगर हम पिछले कुछ वर्षो का जायजा लें तो मालदीव और नेपाल भी कई बार राजनीतिक और आर्थिक अनिश्चितता के शिकार रहे हैं। भारत के इन सभी पड़ोसी देशों को नाजुक देश कहना ज्यादा उचित होगा।
अमेरिकी विचार मंच ‘फंड फार पीस’ द्वारा संकलित कमजोर देशों की क्रमसूची के अनुसार 179 देशों में अफगानिस्तान नौवें, म्यांमार 23वें, पाकिस्तान 29वें, नेपाल 51वें और श्रीलंका 55वें स्थान पर हैं। भारत इन सभी देशों के मुकाबले 66वें नंबर पर आता है यानी कि अधिकांश पड़ोसियों की तुलना में हमारा देश स्थिर और व्यवस्थित है। यह निर्विवाद तथ्य है कि भारत अस्थिर और संकटग्रस्त देशों के रेगिस्तान के बीच एक नखलिस्तान यानी मरुउद्यान जैसा है।
जरा स्वतंत्रता के बाद भारत और पाकिस्तान के हालात का जायजा लें। खासकर इस प्रश्न पर कि भारत क्यों एक स्थिर लोकतंत्र और बेहतर शासित देश बना, जबकि पाकिस्तान सैन्य तानाशाही और सामाजिक एवं आर्थिक अस्थिरता के दुष्चक्र मे फंसा रहा? दरअसल भारत के विभाजन की मांग और एक नए राष्ट्र पाकिस्तान को केवल इस्लाम के आधार पर खड़ा करना बुनियादी भूल थी। पाकिस्तान में राष्ट्र निर्माण नहीं हो सका, क्योंकि उसका अस्तित्व ही कृत्रिम और अस्वाभाविक था। 1971 में बंगालियों के संहार और बांग्लादेश की मुक्ति ने सिद्ध किया कि पाकिस्तान मूलत: अलाभकारी सृजन था। यदि कोई राज्य मौलिक रूप से नाजायज है तो वह खुद को एकजुट रखने में असमर्थ होगा। ऐसे देश में कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए निरंकुश प्रवृत्तियों और शक्तियों की जरूरत पड़ने लगती है। पाकिस्तानी फौज यही जताती रही है कि उसके वर्चस्व के बगैर मुल्क टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। पाकिस्तानी फौज ने शुरुआत से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राज किया है।
म्यांमार में भी सेना ने अपने आपको राजनीति में सर्वोच्च अधिष्ठान बना लिया। वहां की फौज का दावा है कि म्यांमार में सामाजिक विविधता और जातीय अलगाववाद की समस्याओं को कड़ाई से ही निपटाया जा सकता है। दरअसल सैन्य शासन हमेशा ही राष्ट्रों को बर्बाद करता है और उनकी रगों में विष घोलता है। पाकिस्तान की आज जो दुर्दशा है, उसका जिम्मेदार वहां का फौजी अधिष्ठान ही है। वहां इमरान खान समेत पिछले 22 प्रधानमंत्रियों में से किसी एक ने भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अब तक 22 बार कर्ज देकर पाकिस्तान को वित्तीय संकट से बचाया है।
अस्थिर देशों में संकट सर्वव्यापक होते हैं। इनमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और संवैधानिक तत्व शामिल रहते हैं। जब भी ऐसे देशों में सत्ताधारी खतरे में पड़ते हैं, तब वे संविधान के साथ खिलवाड़ करने से भी परहेज नहीं करते, क्योंकि वहां लोकतांत्रिक संस्थानों को पवित्र नहीं माना जाता। श्रीलंका में राजपक्षे परिवार ने प्रचंड संसदीय बहुमत का दुरुपयोग करके 2020 में विवादित संवैधानिक संशोधन करा दिए, जिससे राष्ट्रपति राजपक्षे को इतनी अधिक शक्तियां हासिल हो गईं कि वहां लोकतांत्रिक ‘नियंत्रण और संतुलन’ तार-तार हो गया। निरंकुश राजपक्षे परिवार ने आर्थिक कुशासन और तुगलकी नीतियों से एक अपेक्षाकृत समृद्ध देश के साथ इतना बड़ा धोखा किया कि खाद्यान्न, ईंधन और बिजली की किल्लत ने आज पूरे श्रीलंका को अस्तव्यस्त कर दिया है।
श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार और अफगानिस्तान की वर्तमान दयनीय स्थिति न सिर्फ उनके उच्च वर्ग और नेताओं की नाकामी के कारण है, बल्कि बाहरी ताकतों के कुचक्र का भी नतीजा है। जो राज्य नाजुक होते हैं, वे बुरी नजर वाली बड़ी शक्तियों की कठपुतली बनने की दृष्टि से जोखिम की स्थिति में होते हैं। अस्थिर देशों की आंतरिक वैधता क्षीण होती है। ऐसे में उनके शासकों को बाहर की बड़ी ताकतों के सामने हाथ फैलाने पड़ते हैं। इस प्रकार वे अपने देश की संप्रभुता को गिरवी रख देते हैं। श्रीलंका और पाकिस्तान, दोनों देश चीन के मोहताज रहे हैं।
कर्ज के बोझ तले इन देशों को चीन ने उपनिवेश समझकर शोषण किया और उनकी बदौलत दक्षिण एशिया में भारत के विरुद्ध मोर्चा खड़ा करने की योजना बनाई। चीन ने इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर इन देशों में कर्ज का जाल बिछाया, लेकिन आज जब ये देश वित्तीय संकट में हैं, तब उनकी मदद करने के उत्तरदायित्व से उसने चालाकी से हाथ पीछे खींच लिए। तालिबान शासित अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था पूर्णत: ध्वस्त हो चुकी है। उसे कथित ‘मित्र देश’ चीन की तरफ से कोई ठोस वित्तीय सहायता नहीं मिली, ताकि उसका गुजारा चल सके। चीन के ये सभी ‘घनिष्ठ मित्र’ अंतत: अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दरवाजे पर दुहाई दे रहे हैं। एक और विडंबना देखिए कि जिन्होंने भारत की निष्कपट मदद ठुकराकर चीन का साथ दिया था, आज वे भारत के संकटमोचक अवतार की जय-जयकार करने को मजबूर हैं।
नेपाल और मालदीव को भी चीन पर निर्भरता महंगी पड़ी। हालांकि इन देशों की आम जनता ने संघर्ष करके चीन के पिछलग्गू नेताओं को बीते कुछ समय में हटा दिया, लेकिन अगर तिकड़मबाजी से नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन सत्ता में बने रहते तो आज इन देशों की स्थिति श्रीलंका और पाकिस्तान से भी बदतर होती। मौजूदा संकट को देखते हुए दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशिया में लड़खड़ाते हुए अस्थिर देशों को यह एक बड़ी सीख लेनी चाहिए कि चीन जैसे ‘उपकारी’ का हाथ थामने से सत्यानाश सुनिश्चित है। अब जब वे संकट में घिरे हैं, तब उन्हें आभास हो जाना चाहिए कि भारत एक सच्चा साथी है, जो बिना भेदभाव के उदार मन से उनकी यथासंभव मदद करने को तत्पर है।
संकट अस्थिर राष्ट्रों को नए सिरे से खुद को संभालने के खास मौके भी प्रदान करता है। इस कठिन कार्य में भारत के आदर्श पथ का अध्ययन और भारत की सामाजिक एकता और मजबूत व्यवस्थाओं का अनुसरण इन देशों के लिए लाभदायी होगा।
(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)