साझा चिंता और तात्कालिक चुनौती: चीन की काट भारत-अमेरिका से जुड़ा एक मुद्दा है, पर अभी अफगान पर ध्यान दिया जाना ज्यादा जरूरी
नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद यह झिझक टूटी है। अब भारतीय हितों की पूर्ति के लिए साहसिक फैसले लेने से परहेज नहीं किया जाता। अमेरिका भी भारत के इन बदलते तेवरों पर गौर कर निर्णायक कदम उठाए।
[ श्रीराम चौलिया ]: आज से अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन का भारत दौरा शुरू हो रहा है। बतौर विदेश मंत्री वह पहली बार भारत आए हैं। यूं तो इस दौरे का मकसद द्विपक्षीय संबंधों में सुधार और वैश्विक समस्याओं के समाधान में परस्पर सहयोग को बढ़ाना है, परंतु एक और तात्कालिक महत्वपूर्ण मसला है। यह अफगानिस्तान से जुड़ा है, जहां से अमेरिकी फौजों की वापसी को देखते हुए हालात तेजी से बदल गए हैं। इस पर ब्लिंकन और भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बीच गहन मंथन होने की उम्मीद है। बीते कुछ वर्षों से भारत-अमेरिका के बीच लगातार मजबूत हुई दोस्ती की डोर ने उनसे अपेक्षाएं बढ़ाई हैं। इससे दोनों देशों की जिम्मेदारियां भी बढ़ी हैं। आज अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तेजी से बदल रही है। अमेरिकी वर्चस्व घटा है। उसके वैश्विक नेतृत्व पर अनिश्चितता बढ़ी है।
चीन और अमेरिका के बीच शक्ति में अंतर घट रहा
चीन ने जिस तेजी से अपनी ताकत बढ़ाई है उससे अमेरिका केंद्रित एकध्रुवीय व्यवस्था अस्त होने के कगार पर है। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या अब हम उस द्विध्रुवीय विश्व में प्रवेश कर रहे हैं, जहां अमेरिका और चीन बराबर की टक्कर वाली महाशक्तियां होंगी। वहीं अन्य देशों को मध्यम या उससे कम स्तर की शक्तियों के रूप में ही संतुष्ट होना पड़ेगा। नार्वे के राजनीतिशास्त्री आयस्टीन ट्यून्सजो के अनुसार चीन और अमेरिका के बीच शक्ति में अंतर दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है। उधर चीन से पिछड़े देशों और उसके बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। ट्यून्सजो मौजूदा भू-राजनीतिक परिदृश्य की तुलना शीतयुद्ध के आरंभिक काल से करते हैं। यह वह दौर था जब सोवियत संघ और अमेरिका शिखर पर जबकि अन्य देश वैश्विक ढांचे के अनुक्रम में उनसे काफी निचले पायदान पर थे।
भारत की विदेश नीति बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था बनाने की हिमायत करती
यदि भारत की विदेश नीति के लक्ष्यों की बात करें तो वह बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था बनाने की हिमायत करती है। इससे आशय है कि हम भी दुनिया की अग्र्रणी शक्ति बनें। साथ ही अन्य देशों की आर्थिक, सामरिक और सांस्कृतिक शक्ति में बढ़ोतरी हो। इसके पीछे यही मंतव्य है कि इससे अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था और लोकतांत्रिक बने और शक्ति का संकेंद्रण महज एक या दो महारथियों के पास न होकर उसका सही संतुलन बना रहे। चीन का रवैया हमारे इस दृष्टिकोण के ठीक उलट है। वह चाहता है कि एशिया में उसके समान कोई और शक्ति न उभरे। वह अपने धन-बल की शक्ति से अमेरिका को पछाड़कर एक नई विश्व व्यवस्था बनाना चाहता है, जो उसके मूल्यों से ही संचालित हो। चीनी राष्ट्रपति शी चिर्नंफग के ‘राष्ट्रीय पुनर्जागरण’ की मंशा ही चीन केंद्रित साम्राज्य की स्थापना है। इसमें चीन के अंतरराष्ट्रीय स्वामित्व का लक्ष्य है। इससे नि:संदेह अमेरिका को क्षति पहुंचेगी, लेकिन भारत के लिए स्थिति असहनीय हो जाएगी। चीन पड़ोस में सबसे पहले भारत पर नियंत्रण की कुचेष्टा करेगा, क्योंकि अमेरिका के बाद भारत में ही चीन के लिए चुनौती बनने का माद्दा है। फिलहाल चीन के तेवर इतने तीखे हो गए हैं कि उसे रोक पाना अकेले अमेरिका के बूते की बात नहीं रह गई है। भारत जैसे मित्रों को साधकर ही अमेरिका चीन पर दबाव बना सकता है। बाइडन प्रशासन इसी को ध्यान में रखकर पूर्ववर्ती ट्रंप प्रशासन के उलट बहुपक्षीय और व्यापक दृष्टिकोण वाले क्षेत्रीय राजनयिक दांव चल रहा है।
ब्लिंकन भारत में और अमेरिकी रक्षा मंत्री सिंगापुर समेत तीन देशों के दौरे पर
जिस समय ब्लिंकन भारत में होंगे उसी दौरान अमेरिकी रक्षा मंत्री लायड आस्टिन सिंगापुर, वियतनाम और फिलीपींस का दौरा करेंगे। हिंद-प्रशांत की साझा दृष्टि’ पर विचार-विमर्श ब्लिंकन की प्राथमिकता में होगा। वहीं लायड वियतनाम, फिलीपींस, जापान और ताइवान जैसे उन देशों को आश्वस्त करने पर ध्यान देंगे, जो चीन की दबंगई से परेशान हैं। चीन इस क्षेत्र में अपनी आर्थिक और सामरिक ताकत से आक्रामकता दिखा रहा है। इतना ही नहीं म्यांमार, श्रीलंका और नेपाल जैसे छोटे देशों को कर्ज जाल में फंसाकर बेल्ट एंड रोड परियोजना को साकार कर रहा है। चीन की इसी आक्रामकता को जवाब देने के लिए अमेरिका-भारत, जापान और आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर क्वाड को सशक्त बनाने पर ध्यान दे रहा है। भारत ने भी हाल में यूरोपीय संघ के साथ ‘व्यापक साझेदारी’ की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। बाइडन प्रशासन भी यूरोपीय देशों को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक निवेश के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। स्पष्ट है कि क्वाड देश अपने संसाधनों को समन्वित कर एकीकृत रूप से काम करें और साथ में यूरोप को भी जोड़ लें तो चीनी दबदबे की हवा निकालना आसान हो जाएगा। वास्तव में चीन जैसी कठिन चुनौती का जवाब एक बहुपक्षीय वैश्विक गठबंधन द्वारा ही दिया जा सकता है।
चीनी चुनौती की काट भारत-अमेरिका रिश्तों का एक दीर्घकालीन मुद्दा है
चीनी चुनौती की काट भारत-अमेरिका रिश्तों का एक दीर्घकालीन मुद्दा है, लेकिन फिलहाल अफगानिस्तान पर ध्यान दिया जाना कहीं अधिक आवश्यक है। अमेरिकी फौजों की वापसी से पहले कई अफगान इलाकों पर तालिबानी कब्जे ने चिंता बढ़ाई है।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र की तरह अफगानिस्तान में भी भारत-अमेरिकी हित जुड़े
भारतीय हितों के लिहाज से जरूरी है कि अफगानिस्तान पुन: आतंक और अराजकता का गढ़ न बनने पाए। हिंद-प्रशांत क्षेत्र की तरह यहां भी भारत-अमेरिकी हित जुड़े हुए हैं। दोनों को अफगान धरती से निकलते जिहादी विष की काट तलाशनी ही होगी। अमेरिका यह भी ध्यान रखे कि उसकी फौजों की वापसी के बाद उसके लिए अपने पश्चिम एशियाई सैन्य ठिकानों से अफगानिस्तान को समय पर मदद उपलब्ध कराना आसान नहीं होगा। इधर भारत भले ही तालिबान के साथ वार्ता की दिशा में आगे बढ़े, लेकिन उस पर पाकिस्तानी छाप के चलते वह तालिबान को लेकर आश्वस्त नहीं रह सकता। ऐसे में अमेरिकी वायुसेना और नौसेना को यदि अन्य देशों से कुछ मदद मिले तो अफगानिस्तान में आसन्न खतरे से निपटा जा सकता है।
मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत अब साहसिक फैसले लेने से नहीं करता परहेज
एक वक्त था जब भारत भू-राजनीति के अखाड़े में संकोच और अनिर्णय का शिकार हुआ करता था। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद यह झिझक टूटी है। अब भारतीय हितों की पूर्ति के लिए साहसिक फैसले लेने से परहेज नहीं किया जाता। अमेरिका भी भारत के इन बदलते तेवरों पर गौर कर निर्णायक कदम उठाए। इसमें अमेरिका जितना रचनात्मक होगा उतना ही उसे लाभ होगा। अमेरिका यह न भूले कि चीन और अफगानिस्तान दोनों मोर्चे कठिन हैं, जिन्हें भारत के साथ से ही साधा जा सकता है। ऐसी परिस्थितियों में भारत और अमेरिका की जोड़ी अहम हो गई है।
( लेखक जिंदल स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर एवं डीन हैं )