डॉ. मनीष कुमार चौधरी। हाल में जारी संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की इंडिया एजिंग रिपोर्ट, 2023 का आकलन है कि देश में बुजुर्गों यानी 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की आबादी का हिस्सा वर्ष 2021 में 10.1 प्रतिशत से बढ़कर 2036 में 15 प्रतिशत और 2050 में 20.8 प्रतिशत हो जाएगा। इस प्रकार वर्ष 2050 तक संपूर्ण विश्व में प्रत्येक छह लोगों में से एक भारत का निवासी होगा तथा चीन एकमात्र ऐसा देश होगा, जहां सबसे अधिक संख्या में बुजुर्ग होंगे।

अभी दुनिया में पांच ऐसे देश हैं, जहा 65 वर्ष से अधिक उम्र के बुजुर्गों की संख्या सर्वाधिक है। जापान में बुजुर्गों की संख्या 29.1 प्रतिशत, इटली में 24.5 प्रतिशत, फिनलैंड में 23.6 प्रतिशत, पुर्तगाल एवं ग्रीस में 21 प्रतिशत है। जापान दुनिया का इकलौता देश है, जहां बुजुर्गों के लिए अलग से मिनिस्ट्री आफ लोनलीनेस है। वहां 10 प्रतिशत से अधिक आबादी 80 वर्ष या उससे अधिक उम्र के बुजुर्गों की है।

वृद्धावस्था मानवीय जीवन की अनिवार्य परिणति है। बढ़ती हुई वृद्धों की आबादी का सूक्ष्म तथा स्थूल, दोनों ही स्तरों पर महत्वपूर्ण अर्थ है। इसके बहुतेरे गंभीर सामाजिक एवं आर्थिक संकेत हैं। आबादी की प्रौढ़ता का मुद्दा केवल वृद्धजनों से नहीं, बल्कि आबादी के हर वर्ग से है। वृद्ध जीवन की प्रक्रिया का असर हर सामाजिक समुदाय और समाज के प्रत्येक संबंध पर पड़ता है। जीवन की औसत आयु में वृद्धि के कारण वृद्धों की आबादी का बढ़ना एक वैश्विक परिदृश्य है, परंतु भारत जैसे विकासशील देशों में भी यह उभरती हुई समस्या है।

भारत बहुलतावादी देश है। इसलिए यहां वृद्धों की समस्याएं भी विविधताओं से भरी हैं। संस्कृति, भाषा, आर्थिक स्थिति, जीवन प्रणाली, गांव, नगर, जाति, वर्ग, लिंग, रहन-सहन, रूढ़ियां आदि की भिन्नताएं वृद्ध जीवन को कई प्रकार से प्रभावित करती हैं। भारत में वृद्धों की बढ़ती आबादी के साथ उनसे जुड़ी कुछ गंभीर पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं से आज हम सब लड़ रहे हैं। वृद्धावस्था एक सामाजिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्या के रूप में मौजूद है। वृद्धों की सबसे बड़ी समस्या अकेलेपन की है। इस अकेलेपन के साथ भावनात्मक लगाव की कमी समस्या को और भी जटिल बना देता है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 30 से 50 प्रतिशत बुजुर्गों में ऐसे लक्षण देखे गए, जो उन्हें अवसाद का शिकार बनाते हैं। अवसाद का गरीबी, खराब स्वास्थ्य और अकेलेपन से गहरा संबंध है। कभी-कभी वृद्ध व्यक्ति बुजुर्गियत को स्वीकार न कर विद्रोही तेवर अख्तियार कर बुढ़ापे को सामाजिक कलंक मान लेता है। अवकाश प्राप्ति, विधवा या विधुर, अलगाव, सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी, पदेन शक्ति की कमी, नाते-रिश्तेदारों में सामाजिक सहारे का अभाव, अव्यवस्था, विस्थापन, अपर्याप्त पारिवारिक समर्थन तथा देख-रेख करने वालों का अभाव आदि बुढ़ापे में सामाजिक बीमारी के सामान्य अंग हैं। वैसे तो भारतीय समाज में वृद्धों को पारंपरिक रूप से उच्च सामाजिक मान-मर्यादा मिलती है।

शादी-विवाह, शिक्षा, आर्थिक मुद्दे आदि महत्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय ली जाती है, लेकिन समाज के आधुनिकीकरण के कारण यह स्थिति तेजी से बदल रही है। परिवार के युवा अपने जीवन संघर्ष की राह चलते हुए शहरों की तरफ कूच कर जाते हैं, जिसके कारण परिवार के बुजुर्गों से अलग होना पड़ता है। युवाओं का शिक्षा या जीविका के लिए बड़े पैमाने पर शहरों में स्थानांतरण वृद्धों को बच्चों से मिलने वाले भावनात्मक सहारे से वंचित करता है। पीढ़ीगत वैचारिक अंतर भी पारिवारिक संबंधों में सामंजस्य नहीं होने के बुनियादी कारण हैं, जिसका सबसे ज्यादा दुष्परिणाम बुजुर्गों को भुगतना पड़ता है।

भारत दुनिया में अपने संबंधों की आत्मीयता और गरिमा के लिए जाना जाता है। व्यक्ति अपना संपूर्ण यौवन अपने बच्चों के लिए होम कर देता है, किंतु एक दिन वही बच्चे उसे त्याग देते हैं या उसकी उपेक्षा करने लगते हैं। जीवन की इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है? सफलता की अंधी दौड़ में हम सब बेतहाशा भाग रहे हैं। आखिर रुकने के बाद हमें मिलेगा क्या? बुजुर्गों के लिए परिवार का अर्थ आत्मीयता, घनिष्ठता एवं सुरक्षा है, जिसका विकल्प राज्य द्वारा उत्तम प्रयास, सुविधाएं एवं योजनाओं के आधार पर नहीं बनाया जा सकता है। सरकार द्वारा वरिष्ठ नागरिक अधिनियम बनाया गया है, जो वृद्धजनों के अधिकार को सुरक्षा प्रदान करता है।

वृद्धजनों के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों की कई लाभकारी एवं कल्याणकारी योजनाएं चल रही हैं। कई स्वयंसेवी संगठन इस दिशा में सक्रिय और सार्थक पहल कर रहे हैं, लेकिन वृद्धजनों का सबसे सुरक्षित परिवेश संयुक्त परिवार है। 21वीं सदी को संयुक्त परिवार के विघटन की सदी के तौर पर भी जाना जाएगा। आज परिवार की संकल्पना ही बदल चुकी है। एकल परिवार की विसंगतियों का सबसे बड़ा दुख परिवार के बुजुर्गों को झेलना पड़ता है। परिवार समाज की प्रथम इकाई होता है।

परिवार के हर सदस्य का कर्तव्य बनता है कि बुजुर्गों की देखभाल करे। बुजुर्गों के प्रति सम्मानजनक और गरिमामय वातावरण निर्मित करना परिवार, समाज और सरकार की संयुक्त जिम्मेदारी है। हमारे बुजुर्ग परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए किसी धरोहर से कम नहीं हैं। जीवन में बुजुर्गों की भूमिका सदैव रचनात्मक होती है। हमें अपने पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्यों को पुनः स्थापित करना होगा। नई पीढ़ी को बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। पारिवारिक संस्था जितनी मजबूत होगी, वृद्धावस्था उतनी ही सुरक्षित होगी। ऐसा करके ही हम वृद्धावस्था को अभिशाप बनने से बचा सकते हैं।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलत राम कालेज में सहायक प्रोफेसर हैं)