बलबीर पुंज। गांधीजी की 155वीं जयंती पर बापू का स्मरण स्वाभाविक है। स्वाधीनता तक उन्होंने देश की नियति और दिशा, दोनों निर्धारित की थीं। आज जब देश में उनके नाम पर राजनीति करने वाले भारत को एक राष्ट्र न मानकर राज्यों के समूह के तौर पर परिभाषित करते हैं, तब गांधीजी की कल्पना में ‘भारत क्या है’, उस पर विचार आवश्यक हो जाता है। गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ में लिखा था...अंग्रेजों ने सिखाया है कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक-राष्ट्र बनने में आपको सैकड़ों वर्ष लगेंगे। यह बात बिल्कुल निराधार है। दो अंग्रेज जितने एक नहीं, उतने हम भारतीय एक थे और एक हैं...।’ इस संबंध में गांधीजी की विरासत पर दावा करने वालों के विचार में आए परिवर्तन का कारण, उनका वह औपनिवेशिक चिंतन और वामपंथी दर्शन है, जिसमें भारतीय सांस्कृतिक पहचान के प्रति अकूत घृणा और प्रत्येक विषय पर भारतीय दृष्टिकोण का गहरा अभाव है।

गांधीजी आस्थावान सनातनी हिंदू थे। वह ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति’ के दर्शन से प्रेरणा पाते थे और उन्होंने रामराज्य को सुशासन का पर्याय माना। अक्सर वामपंथियों, स्वयंभू गांधीवादियों के साथ मुस्लिम नेताओं का एक वर्ग अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस को ‘कलंक’ बताता है। वास्तव में वह विशुद्ध गांधीवादी समाधान था। गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ में एक प्रश्न का इस प्रकार उत्तर दिया था, ‘अगर ‘अ’ का कब्जा अपनी जमीन पर है और कोई शख्स उस पर कोई इमारत बनाता है, चाहे वह मस्जिद ही हो, तो ‘अ’ को यह अख्तियार है कि वह उसे गिरा दे। अगर उसे उखाड़ डालने की इच्छा या ताकत ‘अ’ में न हो, तो उसे यह हक बराबर है कि वह अदालत में जाए और उसे अदालत द्वारा गिरवा दे।’

गांधीजी ने सदैव भारतीय समाज को स्वावलंबी बनाने हेतु खादी और कुटीर उद्योग के लिए प्रोत्साहित करने के साथ गोसंरक्षण पर बल दिया। मतांतरण का विरोध किया। अपने बाल्यकाल का स्मरण करते हुए उन्होंने लिखा था कि कैसे ईसाई मिशनरी स्कूलों के बाहर खड़े होकर हिंदुओं और उनके देवी-देवताओं के बारे में अपशब्द बोलते थे और हिंदुओं को ईसाई बनाकर गोमांस खाने आदि के लिए विवश करते थे। विडंबना यह है कि वर्तमान समय में स्वयंभू गांधीवादी छल-बल-लालच प्रेरित मतांतरण के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन में, जबकि गोरक्षा के विरोध में खड़े नजर आते हैं। यह भी विडंबना है कि कथित गांधीभक्त यह बताना पसंद नहीं करते कि बापू हर किस्म के अन्याय के विरोधी थे।

कुछ आलोचक गांधीजी को विभाजन और उसकी रक्तरंजित विभीषका के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। हालांकि सच यह है कि देश को इस त्रासदी से बचाने के लिए उन्होंने भरसक प्रयास किए थे। उनकी नीयत एवं दृष्टि निष्कलंक, परंतु नीति त्रुटिपूर्ण थी। वह सोचते थे कि तुष्टीकरण से विभाजन की पक्षधर मजहबी मानसिकता परास्त हो जाएगी, इसलिए उन्होंने खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व करने के साथ जिन्ना को अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव तक दिया। जब इस्लाम के नाम पर विभाजन अपरिहार्य हो गया, तब उन्होंने दूरदर्शी नीति अपनाते हुए पाकिस्तान में बसने की इच्छा जताई थी। यदि ऐसा होता, तो तीन संभावनाएं बन सकती थीं। पहला, वह पाकिस्तान में आम नागरिक की भांति रहते। दूसरा, जिन्ना उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल देते। तीसरा, किसी झूठे मामले में फंसाकर गांधीजी को फांसी पर लटका देते। इन तीनों सूरतों में पाकिस्तान कुछ वर्षों में ही बिखर सकता था, क्योंकि उस समय जिन क्षेत्रों को मिलाकर पाकिस्तान बनाया गया था, वहां तब मुस्लिम लीग से कहीं अधिक गांधीजी की स्वीकार्यता और लोकप्रियता थी।

आखिर गांधीजी ने विभाजन को क्यों स्वीकार किया? उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की भांति इच्छाशक्ति क्यों नहीं दिखाई? लिंकन ने अमेरिका में दासप्रथा के बजाय गृहयुद्ध को चुना? जब खिलाफत आंदोलन जनित सांप्रदायिक दंगों में हिंदुओं पर कई जगह जिहादियों का कहर टूटा, तब गांधीजी को शायद संकेत मिल गया था कि देश की अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने का वांछित सामर्थ्य, शौर्य और संकल्पबल तत्कालीन हिंदू समाज में नहीं था। इस संबंध में उन्होंने ‘यंग इंडिया’ के एक आलेख में हिंदुओं को ‘दब्बू’ और मुसलमानों को ‘धींग’ कहकर संबोधित किया था। इसी पृष्ठभूमि में कांग्रेस से त्यागपत्र देकर डा. केशव बलिराम हेडगेवार ने भारतीय समाज को सुरक्षित और संगठित करने हेतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी।

इसमें संदेह नहीं कि गांधीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन में महती भूमिका निभाई और उसके मुख्य कर्णधार रहे, परंतु इसका श्रेय अकेले उन्हें देना असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ अन्याय होगा। उन्होंने अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के साथ नूतन प्रयोग करके न केवल स्वाधीनता की लौ जलाए रखी, बल्कि ब्रिटिश कुटिलता को कई अवसरों पर निष्प्रभावी भी किया। वर्ष 1932 का पूना समझौता इसका जीवंत प्रमाण है। तब दलित, शेष हिंदू समाज से अलग न हो, इसके लिए गांधीजी ने आमरण अनशन किया था। ऐसा करके उन्होंने हिंदू समाज को एकजुट किया।

स्वतंत्र भारत में दलितों-वंचितों के लिए वर्तमान आरक्षण उसकी अभिव्यक्ति है। गांधीजी कभी स्वयं के लिए और अपने परिवार हेतु महत्वाकांक्षी नहीं रहे। इस पृष्ठभूमि में जो राजनीतिक दल गांधीजी की विरासत-चिंतन पर अधिकार जमाकर राजनीति करते हैं, उनकी स्थिति किसी से छिपी नहीं है। हाल के वर्षों में वामपंथी भी खुद को गांधीवादी बताने लगे हैं। जहां बापू भारत की एकता-अखंडता के पक्षधर रहे, वहीं वामपंथी इसके विरुद्ध थे। गांधीजी अहिंसक थे, तो वामपंथियों की कार्यशैली के केंद्र में आज भी हिंसा है। भारत छोड़ो आंदोलन में गांधीजी के लिए भी वामपंथियों ने ओछे शब्दों का उपयोग किया था। वामपंथियों द्वारा गांधीजी का नाम अलापना उनकी कुटिल और घटिया राजनीति का हिस्सा है, क्योंकि वे इसके माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कठघरे में खड़ा करना चाहते हैं, जो उनके भारत-हिंदू विरोधी एजेंडे की पूर्ति में अवरोध बना हुआ है। समग्रता में देखा जाए तो कांग्रेस सहित तमाम स्वयंभू गांधीवादियों के बजाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उसके सहयोगी संगठन और सत्तारूढ़ भाजपा के नीति-विचार बापू के सनातनी-राष्ट्रवादी दर्शन के कहीं अधिक निकट नजर आते हैं।

(स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकालोनाइजेशन आफ इंडिया’ के लेखक हैं)