जागरण संपादकीय: बंगाल में लापता कानून का शासन, अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के शिकंजे में ममता सरकार
जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इस मामले का संज्ञान लेकर बंगाल सरकार को कठघरे में खड़ा करना शुरू किया और मामला सीबीआई को सौंपने का आदेश दिया तब मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया देखने लायक थी। उन्होंने कहा कि पुलिस ने 90 प्रतिशत जांच पूरी कर ली है इसलिए सीबीआई को दो दिनों में मामला पूरा करना चाहिए। उन्होंने चार दिन के अंदर दोषी को फांसी देने तक की भी मांग की।
अवधेश कुमार। कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल के अंदर एक प्रशिक्षु महिला डॉक्टर के खिलाफ हुई बर्बरता ने समाज के हर वर्ग को उद्वेलित किया है। यह बहुत स्वाभाविक भी है। इसके विपरीत इसमें स्वयं अस्पताल प्रशासन की भूमिका और पुलिस-प्रशासन से लेकर बंगाल सरकार के व्यवहार ने लोगों में भय पैदा किया है। सत्ता से जुड़ा कोई भी पक्ष पीड़िता के न्याय के लिए खड़ा होता नहीं दिखा।
अस्पताल से लेकर सत्ता की संपूर्ण कोशिश में न्याय की गुंजाइश खत्म करने तथा न्याय की मांग करने वालों को धौंस-धमकी देने की रही। अस्पताल में करीब 36 घंटे ड्यूटी करने के बाद महिला डॉक्टर वहां सो रही हो और दुष्कर्म के बाद उसकी हत्या कर दी जाए तो अस्पताल प्रशासन की पहली भूमिका क्या होनी चाहिए? साफ है पुलिस को तुरंत सूचित करना, मामला दर्ज कराना तथा परिवार को सही जानकारी देकर उन्हें अस्पताल बुलाना और साथ खड़े रहना।
आरोप है कि कॉलेज के तत्कालीन प्रिंसिपल संदीप घोष ने इसके उलट कुछ लोगों के साथ मिलकर इसे आत्महत्या साबित करने, परिवार को काफी समय बाद झूठी जानकारी देने और डॉक्टरों की टीमों को अलग-अलग जिम्मेदारी देकर पूरे मामले को खत्म करने का षड्यंत्र किया। डॉक्टर के माता-पिता को आज तक नहीं पता कि बेटी की आत्महत्या करने का फोन किसने किया।
अस्पताल में आने के बाद शव देखने के लिए उन्हें तीन घंटे से ज्यादा प्रतीक्षा करनी पड़े और एक व्यक्ति पीठ पर हाथ रखने वाला नहीं हो तो उनकी क्या दशा हुई होगी? बिना प्राथमिकी के पोस्टमार्टम करना और फिर अपने नियंत्रण में ही शव दहन कर देने को मिलाकर देखें तो दुष्कर्म करने वाले से बड़ा अपराधी अस्पताल प्रशासन दिखेगा। पुलिस भी अस्पताल प्रशासन के निर्देशानुसार भूमिका निभाती रही, जबकि उसका पहला प्रश्न यही होना चाहिए कि आरंभ में हमें सूचना क्यों नहीं दी? पोस्टमार्टम के बाद प्राथमिकी क्यों लिखवा रहे हैं? इसके उलट पुलिस विभाग घटना को रफा-दफा करने में लगा रहा।
स्वयं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने घटना का विरोध करने वालों के विरुद्ध मोर्चाबंदी की। उन्होंने सारी समस्या की जड़ राम और वाम यानी भाजपा और वामपंथी दलों को बता दिया। उनके कुछ राज्यसभा सदस्यों ने घटना की आलोचना करते हुए कुछ प्रश्न उठाए तो उन्हें भी सत्ता के दबाव का सामना करना पड़ा। इस तरह चारों तरफ डर का माहौल बनाया गया, ताकि कोई विरोध करने का साहस न करे।
ममता बनर्जी का सड़क पर उतरना उनके कार्यकर्ताओं, समर्थकों और प्रशासन के लिए सीधा संदेश था कि विरोध करने वाले बंगाल में उथल-पुथल मचाना चाहते हैं इसलिए उन्हें हर हाल में रोका जाए। करीब 30 प्रतिशत मुसलमानों के लिए भी संदेश था कि खतरा तुम पर भी है।
परिणामस्वरूप, शहर से गांव तक उनके लोग सक्रिय होकर ऐसा वातावरण बनाते रहे कि कहीं कोई विरोध प्रदर्शन नहीं हो। अभी दूर-दराज से समाचार आना शेष है कि कितने लोगों को सरकारी तंत्र का कोप झेलना पड़ा। ऐसे जघन्य और वीभत्स कांड पर किसी सरकार का ऐसा व्यवहार कल्पना से परे है। आरजी कर अस्पताल के बाहर न्याय के लिए धरना दे रहे डॉक्टरों पर हिंसक हमले हुए और अस्पताल में भी तोड़फोड़ हुई।
किसी भी न्यायसंगत लोकतांत्रिक धरना-प्रदर्शन या आंदोलन को सुरक्षा देने का दायित्व पुलिस प्रशासन का होता है, लेकिन बंगाल पुलिस ने ऐसा नहीं किया। धरना देने वालों के खिलाफ हिंसा होना यही संकेत है कि कानून-व्यवस्था का नामोनिशान नहीं रहा। जब मुख्यमंत्री ही घटना की संवेदनशीलता को स्वीकार कर मृतका के परिवार के साथ खड़े होने और न्याय दिलाने के लिए कदम उठाने की जगह विरोधियों के विरुद्ध सड़कों पर उतर जाएं तो यही होता है।
जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इस मामले का संज्ञान लेकर बंगाल सरकार को कठघरे में खड़ा करना शुरू किया और मामला सीबीआई को सौंपने का आदेश दिया, तब मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया देखने लायक थी। उन्होंने कहा कि पुलिस ने 90 प्रतिशत जांच पूरी कर ली है, इसलिए सीबीआई को दो दिनों में मामला पूरा करना चाहिए। उन्होंने चार दिन के अंदर दोषी को फांसी देने तक की भी मांग कर दी।
फिर मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचने पर वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल के साथ 21 अधिवक्ता सरकार की ओर से खड़े कर दिए। उनकी एक दिन की फीस कितनी होगी, इसकी कल्पना कीजिए? आखिर वकीलों की टीम क्यों खड़ी हो रही है? क्या मृतका और पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने या फिर सरकार के हर व्यवहार की रक्षा करने के लिए?
अगर ममता सरकार एक शपथ पत्र उच्चतम न्यायालय में डाल देती कि जो कुछ हुआ, वह सरकार को स्वीकार्य नहीं है और न्यायालय जो निर्देश देगा, उसका पालन करते हुए सरकार न्याय दिलाने और ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न होने देने के लिए हरसंभव कदम उठाएगी तो वकीलों की इतनी बड़ी फौज खड़ी नहीं करनी पड़ती।
अभी तक की छानबीन से आरजी कर अस्पताल में भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार और अपराध के काले कारनामे सामने आ रहे हैं। जिस संजय राय पर दुष्कर्म और हत्या का आरोप है, वह सिविल वालंटियर है, जिसे ममता बनर्जी ने 2011 में शासन में आने के बाद स्थापित किया था। यह वैसे ही है जैसे दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने सिविल डिफेंस बनाया।
सिविल वालंटियर पार्टी के लोग माने जाते हैं, तभी तो अस्पताल के अंदर उसकी इतनी बड़ी हैसियत थी। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि एक समय अपनी ईमानदारी और संघर्ष के लिए जानी जाने वालीं ममता बनर्जी मुख्यमंत्री के रूप में अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के तंत्र की प्रमुख बन गई हैं और पूरा बंगाल उनके शिकंजे में है। यह तानाशाही नहीं तो और क्या है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)