1971 में विजय के बावजूद गंवाया अवसर: बस एक और कदम की दरकार थी कश्मीर विवाद हो जाता समाप्त
1971 तो एक महान जनरल की सैन्य विजय थी जिससे कश्मीर का हल निकलता परंतु राजनीति की स्थापित क्षुद्रताओं ने इसे अर्थहीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बस एक और कदम की दरकार थी कि कश्मीर विवाद समाप्त हुआ होता।
[ आर विक्रम सिंह ]: आजादी के पहले और उसके उपरांत हम भारत के लोग संविधान के अतिरिक्त ऐसी धुर भारतीय सोच विकसित करने में नाकाम रहे जो आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारतीयता का एक स्थिर दर्शन व परिभाषा प्रतिपादित करती। हम अब कहीं जाकर राष्ट्रीय हित की दिशा में चले हैं। समझौतापरस्त राजनीति वास्तव में विभाजनकारी सोच के लोगों को भी सत्ता में ले आती है। यह देश उसका प्रतिरोध नहीं करता, बल्कि उसे बर्दाश्त करता है। समय-समय पर इसके प्रमाण मिलते रहे हैं। साल 1971 भी ऐसा ही एक पड़ाव था जब हमें महान विजय प्राप्त हुई, जिसमें हमने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को दफन किया था। वह एक सैन्य विजय के साथ महान वैचारिक विजय भी थी। बस एक और कदम की दरकार थी कि कश्मीर विवाद समाप्त हुआ होता। हम पाकिस्तान के विचार को ध्वस्त कर देते। 1971 में गंवाए इस अवसर ने राजनेता इंदिरा गांधी के नजरिये की सीमाएं स्पष्ट कर दीं। शायद नेताओं की जमात सत्ता हित से आगे सोच भी नहीं पाती।
1971 का युद्ध यदि कश्मीर-मुक्ति का मुख्य लक्ष्य लेकर चला होता तो...
हम कल्पना ही कर सकते हैं कि 1971 का युद्ध यदि कश्मीर-मुक्ति का मुख्य लक्ष्य लेकर चला होता तो क्या परिणाम होते। पाकिस्तान का बंगाल आक्रमण 25 मार्च 1971 को प्रारंभ हुआ। जनरल मानेकशॉ की जीवनी में जनरल दीपेंदर सिंह लिखते हैं कि उसी रात सेना मुख्यालय में हुई आपात बैठक में इंदिरा गांधी ने जनरल मानेकशॉ से पूछा कि हम कुछ कर सकते हैं क्या? इसके जवाब में ‘मुक्ति वाहिनी’ का जन्म हुआ। फिर 28 अप्रैल की कैबिनेट बैठक में पूर्वी पाकिस्तान पर तत्काल आक्रमण के निर्देश को लेकर मानेकशॉ का यह जवाब कि सेनाएं अभी इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं हैं, उन्हें भू-राजनीति की स्पष्ट समझ वाला कमांडर सिद्ध करता है। उन्होंने कहा कि सेनाएं चुनाव करा रही थीं। अब खाली हुई हैं।
मानेकशॉ को पूरी छूट दे दी गई, 1971 की विजय उसी का परिणाम है
मोबिलाइजेशन, स्टाकिंग, मेंटिनेंस में दो माह लगेगा और पूर्वी कमान में सिर्फ 13 टैंक हैं। वित्त मंत्री चव्हाण ने पूछा सिर्फ 13? जवाब था, मैं पिछले डेढ़ साल से लगातार कह रहा हूं, लेकिन आपका जवाब होता है कि पैसे नहीं हैं। दो माह बाद मानसून में बंगाल की जमीन समुद्र जैसी हो जाएगी, कोई सैन्य अभियान संभव नहीं होगा। दूसरा चीन अल्टीमेटम दे सकता है। सरदार स्वर्ण सिंह ने पूछा, ‘क्या चीन अल्टीमेटम देगा?’ जवाब मिला, ‘सर, आप बताएं, आप विदेश मंत्री हैं। जब तक हिमालय पर बर्फ नहीं पड़ती, तब तक प्रतीक्षा करनी होगी। हम दो मोर्चों पर लड़ाई नहीं लड़ सकते।’ यह कैबिनेट को दो टूक जवाब था। कोई प्रतिवाद नहीं कर सका। तमतमाई इंदिरा गांधी ने बैठक 4 बजे तक स्थगित कर दी। जनरल ने कहा कि आप चाहेंगी तो मैं स्वास्थ्य कारणों से त्यागपत्र दे दूंगा। फिर मानेकशॉ को पूरी छूट दे दी गई। 1971 की विजय उसी का परिणाम है।
पश्चिमी मोर्चे पर सेना के हाथ बांध दिए गए
वहीं देश के नेता तो यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि युद्ध की इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर कश्मीर और फिर आगे पाकिस्तान समस्या का स्थायी समाधान भी हो सकता है। हमारी असल समस्या कश्मीर थी, लेकिन कश्मीर का कोई जिक्र नहीं करता। वे कैसे समझते कि पश्चिम में पाकिस्तान की पराजय बांग्लादेश की आजादी का मार्ग स्वत: बना सकती है। युद्ध से पूर्व पश्चिमी मोर्चे पर आक्रामक रणनीति के निर्देश जारी किए गए थे। सारी तैयारियां पूर्ण थीं। जनरल संधू अपनी पुस्तक ‘बैटलग्राउंड छंब’ में लिखते हैं कि युद्ध से महज दो दिन पहले अचानक 1 दिसंबर को प्रधानमंत्री द्वारा रक्षात्मक रणनीति के निर्देश दिए गए। इसने पश्चिमी मोर्चे पर हमारे समस्त सैन्य आक्रमण प्लान पर अचानक ब्रेक लगा दिया। अब हम न हाजीपीर पर हमला कर पाते और न लाहौर स्यालकोट सेक्टरों पर। सेना के हाथ बांध दिए गए।
युद्ध में कश्मीर वापसी की संभावनाएं स्पष्ट दिख रही थीं, पर सियासी नेतृत्व में साहस नहीं था
मानेकशॉ के जबरदस्त प्रतिरोध के बावजूद इंदिरा गांधी नहीं मानीं और कहा कि यदि हम पश्चिमी सीमा पर आक्रामक हुए तो अंतरराष्ट्रीय विरोध नहीं झेल पाएंगे। निक्सन-र्किंसग्जर का दबाव था, लेकिन रणनीति बदलने की आखिर मजबूरी क्या थी? इसका कश्मीर विवाद के भविष्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। हम युद्धविराम रेखा तक ही सीमित रह गए। छंब का हमारा 120 वर्ग किमी का इलाका भी पाकिस्तान के कब्जे में चला गया। एक दुर्भाग्यपूर्ण आदेश ने 1971 के युद्ध की उस विजय को हमारे लिए अर्थहीन कर दिया। जबकि उस युद्ध में कश्मीर वापसी की संभावनाएं स्पष्ट दिख रही थीं, पर सियासी नेतृत्व में साहस नहीं था। वह बंगाल की खाड़ी की तरफ बढ़ रहे अमेरिकी बेड़े से डर गया था। आखिर जिनकी प्रकृति ही भीरुता की हो, वे धमकियों से भी डर जाते हैं।
16 दिसंबर को ढाका में जनरल नियाजी का आत्मसमर्पण होते ही युद्धविराम घोषित कर दिया गया
बंगाल में सेनाएं आक्रामक रणनीति के मुताबिक चल रही थीं। 16 दिसंबर को ढाका में जनरल नियाजी का आत्मसमर्पण होते ही रात में युद्धविराम घोषित कर दिया गया। हमारे राजनीतिक नेतृत्व में घबराहट इतनी अधिक थी कि हाजीपीर पास आदि तो छोड़िए छंब पर पुन: आक्रमण कर वापस अपने कब्जे में लेने का समय भी सेनाओं को नहीं दिया गया। यदि आक्रामक नीति कायम रहती तो हम हाजीपीर, स्कर्दू और गिलगिट पर काबिज होते। सेनाएं लाहौर, स्यालकोट में दाखिल हो रही होतीं। नौसेना कराची बंदरगाह को और थल सेना अमरकोट, थरपारकर तक बढ़ गई होती, मगर नहीं, क्योंकि इंदिरा गांधी बांग्लादेश की आजादी के निष्काम कर्म से ही संतुष्ट थीं।
बांग्लादेश बनाने की वाहवाही, शिमला समझौता हुआ, भुट्टो को उनके सैनिक मिल गए, छंब गंवा दिया
बांग्लादेश बनाने की वाहवाही को भारत के राष्ट्रीय हित से अधिक महत्व दिया गया। शिमला समझौता हुआ। भुट्टो को उनके सैनिक मिल गए, पर हमने छंब गंवा दिया। बांग्लादेश बनने के बाद वहां की प्रताड़ित 85 लाख हिंदू आबादी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी हमें लेनी चाहिए थी, लेकिन राष्ट्रीय हित की समझ के अभाव से ऐसा न हो सका।
1971 एक महान जनरल की सैन्य विजय थी
राष्ट्रवाद का जन्म तो इस देश में जैसे 2014 के बाद हुआ है। उससे पहले सत्ताओं ने तुष्टीकरण के खेल में देश को सराय बना रखा था। 1971 तो एक महान जनरल की सैन्य विजय थी जिससे कश्मीर का हल निकलता, परंतु राजनीति की स्थापित क्षुद्रताओं ने इसे अर्थहीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
( लेखक पूर्व सैनिक और पूर्व प्रशासक हैं )