सुधारों को झटका देने वाला फैसला: महज प्रदर्शनकारियों के दबाव में कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर नहीं हुई मोदी सरकार
यह दलील बहुत गले नहीं उतरती कि सरकार महज प्रदर्शनकारियों के दबाव में आकर कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर हुई। इसके कई और कारण होंगे। लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान देश में कृषि सुधारों के भविष्य को भुगतना होगा।
संदीप घोष। गुरु नानक जयंती के अवसर पर तमाम लोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर यही उम्मीदे लगाए बैठे होंगे कि वह किसी न किसी गुरुद्वारे अवश्य जाएंगे। पंजाब में आसन्न विधानसभा चुनावों को देखते हुए उनके अमृतसर जाने की संभावना भी जताई जा रही थी। मोदी का व्यक्तित्व जिस प्रकार आश्चर्यचकित करने वाला है उससे ऐसी अटकलें भी लगाई जा रही थीं कि वह फिर से खोले गए करतारपुर कारिडोर गुरुद्वारा दरबार साहिब भी जा सकते हैं। ऐसे अनुमानों के बीच जब यह घोषणा हुई कि प्रधानमंत्री सुबह नौ बजे राष्ट्र के नाम संबोधन देंगे तो हर कोई हैरत में पड़ गया।
गुरु पर्व से जुड़े शुरुआती संबोधन के बाद जब प्रधानमंत्री खेती और किसानों के हित में अपनी सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का ब्योरा देने लगे, तो अंदाजा लगाना मुश्किल हो गया कि वह किस दिशा में जा रहे? उन्होंने कृषि कानूनों की पृष्ठभूमि को समझाना शुरू किया। विशेषज्ञों की राय और छोटे एवं सीमांत किसानों के प्रति फिक्र जताने के साथ ही उन्होंने उस बड़े तबके को धन्यवाद दिया, जिसने इन सुधारों का समर्थन किया। फिर वह किसानों के विरोध-प्रदर्शन वाले बिंदु पर आए। उन्होंने जोर देकर कहा कि कुछ राज्यों के किसानों का एक छोटा वर्ग ही इन सुधारों का विरोध करने पर अड़ा था। उन्होंने प्रदर्शनकारी किसानों से सरकार की वार्ता के प्रयासों का उल्लेख किया कि वह गतिरोध का हल निकालने के लिए किस प्रकार सक्रिय थी। ऐसे संभावित स्वीकार्य हल में कानूनों को निलंबित करने का प्रस्ताव भी था। स्पष्ट है कि वह प्रदर्शनकारी किसानों के अड़ियल और अतार्किक रवैये की ओर संकेत कर रहे थे। आखिर में जब उन्होंने एलान किया कि कुछ असंगत प्रदर्शनकारी समूहों की इच्छा को देखते सरकार इन कानूनों को निरस्त कर रही है, तो इस घोषणा ने सभी को चकित कर दिया। लोगों को भरोसा ही नहीं हो रहा था।
पीएम की अप्रत्याशित घोषणा के बाद सरकार समर्थकों और विरोधियों, दोनों को कुछ नहीं सूझ रहा था। यहां तक कि सरकार के इस रुख से खुश होने वाले भी यह नहीं समझ सके कि मजबूत फैसले लेने और अपने रुख पर अडिग रहने वाली सरकार यकायक कैसे झुक गई? जबकि पिछले कुछ महीनों से यही लग रहा था किसान संगठनों का विरोध-प्रदर्शन निस्तेज हो रहा है। इससे जुड़े अहम किरदार निढाल दिखने लगे थे। संयुक्त किसान मोर्चा के विभिन्न धड़ों में भी दरारें पड़ने लगी थीं। किसानों द्वारा सड़कों की घेराबंदी को लेकर सुप्रीम कोर्ट का धैर्य भी जवाब देने लगा था। ऐसे में यह दलील उतनी गले नहीं उतरती कि सरकार महज प्रदर्शनकारियों के दबाव में आकर इन कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर हुई। नि:संदेह इसके पीछे चुनावी परिदृश्य भी है। पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कुछ समय बाद चुनाव होने हैं। वहां कृषि कानूनों का कुछ असर दिख सकता था। पंजाब में तो यह बड़ा मुद्दा बन गया था। वहीं उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से और उत्तराखंड के तराई इलाके में भी यह मुद्दा प्रभावित करता। वैसे इतना बड़ा फैसला केवल चुनावी फायदे को देखकर नहीं लिया गया होगा, जिस पर नरेन्द्र मोदी ने अपनी भारी राजनीतिक पूंजी दांव पर लगा रखी थी। ऐसे में इसके और बड़े निहितार्थ रहे होंगे, जिन्होंने सरकार को इतना बड़ा यू-टर्न लेने पर बाध्य कर दिया।
एक अनुमान तो यही है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर सरकार की चिंता बढ़ रही थी। कैप्टन अमरिंदर सिंह प्रदर्शनकारियों के बीच खालिस्तानी और पाकिस्तानी तत्वों की बढ़ती पैठ को लेकर लगातार आगाह करते आ रहे थे। इससे पंजाब में तीन दशक पहले जैसी अशांति एवं अस्थिरता का खतरा बढ़ रहा था। ऐसे तत्वों का तराई इलाके में भी प्रभाव है, जहां सिखों की बड़ी आबादी रहती है। पाकिस्तान में बदलते घटनाक्रम को देखते हुए सरकार यह जोखिम नहीं ले सकती थी। ऐसे में यह कदम इन तत्वों को मात देने और शिरोमणि अकाली दल, भाजपा और अमरिंदर सिंह के नए राजनीतिक धड़े के बीच गठजोड़ की राह खोलने वाला एक दांव हो सकता है, ताकि पंजाब में राष्ट्रवादी ताकतों को मजबूती दी जा सके। इसका समांतर लाभ आम आदमी पार्टी के प्रभाव को कम करने के रूप में भी मिलेगा, जिस पर भाजपा कांग्रेस से भी कम एतबार करती है।
यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि भाजपा को इसका कितना चुनावी लाभ मिलेगा, क्योंकि चुनाव में कई और पहलू भूमिका निभाते हैं। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कुछ सत्ता विरोधी रुझान जरूर है। इसके बावजूद फिलहाल योगी सरकार आगे दिख रही है, लेकिन इससे इन्कार नहीं कि अखिलेश यादव ने माहौल बनाना शुरू कर दिया है, जो और गति पकड़ सकता है। वहीं उत्तराखंड में भाजपा अपनी ही समस्याओं से घिरी है। पंजाब को लेकर अकाली दल और अमरिंदर का मेल भी संदेह से परे नहीं है। इसलिए इन सन्निहित नकारात्मक पहलुओं को देखते हुए इसे एक ‘चुनावी मास्टरस्ट्रोक’ के रूप में चित्रित करना भी इसका सरलीकरण होगा। फिलहाल सबसे बड़ी चिंता यही है कि इसका असर मोदी सरकार के शेष कार्यकाल की कार्यक्षमता पर पड़ सकता है। इससे विपक्ष को लगेगा कि सरकार पर निरंतर दबाव बनाकर उसे झुकाया जा सकता है। हालिया उपचुनावों के मिश्रित नतीजों के बाद पेट्रोल-डीजल की कीमतों में एकाएक कटौती से विपक्ष को पहले ही इसका स्वाद लग गया है। चूंकि अगले दो वर्षों में कई राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं, तो इससे बड़े सुधारों को आगे बढ़ाने की सरकारी क्षमता सीमित हो जाएगी। इसके अलावा नागरिकता संशोधन कानून, अनुच्छेद 370 और श्रम कानूनों जैसे उसके अन्य कदमों पर भी पेच फंस सकता है। बाहरी मोर्चे पर पहले से ही तनाव बढ़ा हुआ है। देश कोविड से लगे झटके के बाद अभी पूरी तरह उबर नहीं पाया है। उसकी तीसरी लहर की आशंका को भी खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे में सरकार के फ्रंटफुट पर खेलने की क्षमता प्रभावित होगी।
दिलचस्प है कि कानून वापसी का एलान करते हुए भी प्रधानमंत्री ने उनकी खासियतों पर जोर देकर कहा कि प्रदर्शनकारी उनके फायदों को नहीं देख सके। उन्होंने यह भी कहा कि इन कानूनों को जल्दबाजी में लागू नहीं किया जा सकता यानी अगले आम चुनाव से पहले तो बिल्कुल नहीं। इसका सबसे बड़ा नुकसान देश में कृषि सुधारों के भविष्य को भुगतना होगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)