चीन के विरुद्ध बहुपक्षीय मोर्चा हो रहा तैयार, भारत-अमेरिका निभाएंगे अहम भूमिका
चीन के विरुद्ध शीतयुद्ध में भारत को पश्चिमी देशों से अधिक विदेशी निवेश मिले तो हमारा आर्थिक विकास भी होगा और वैश्विक शक्ति संतुलन भी सधेगा। चीन के विरुद्ध बहुपक्षीय मोर्चा तैयार हो रहा है और उसमें भारत एक मुख्य स्तंभ की भूमिका निभाने को तत्पर है।
श्रीराम चौलिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपलब्धि भरी हालिया अमेरिकी यात्र ने एक सत्य को सिद्ध कर दिया है। वह यह कि चीन के विरुद्ध बहुपक्षीय मोर्चा तैयार हो रहा है और उसमें भारत एक मुख्य स्तंभ की भूमिका निभाने को तत्पर है। हालांकि, मोदी ने पूरे दौरे में सार्वजनिक तौर पर एक बार भी चीन का नाम नहीं लिया, फिर भी हमारी कूटनीति नि:संदेह चीन से मुकाबले की ओर उन्मुख है। समय की भी यही मांग है। मौजूदा विश्व व्यवस्था में भारत का स्थान एक संतुलन बनाने वाली शक्ति यानी बैलेंसिंग पावर का है। हम बिना किसी संकोच के इस दायित्व के निर्वहन की पूर्ति में लगे भी हैं। वाशिंगटन में इसके स्पष्ट संकेत दिखे। वहां मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की पहली शिखर बैठक के परिणाम से साफ झलकता है कि चीन के वर्चस्व को रोकना ही विश्व के सबसे बड़े और पुराने लोकतंत्र की व्यापक सामरिक साझेदारी का मूल सार है। वैसे तो भारत और अमेरिकी संबंधों के अनेक आयाम हैं। मसलन व्यापार, निवेश, प्रवास, प्रौद्योगिकी, शिक्षा, रक्षा एवं स्वास्थ्य आदि और चीन इन सभी बिंदुओं से जुड़ा है।
इस समय अमेरिका का ध्येय है चीन को विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति बनने में विफल करना। वहीं, भारत का लक्ष्य है एशिया में चीन-केंद्रित व्यवस्था को नाकाम करना। भले ही मोदी और बाइडन ने राजनयिक औचित्य के चलते चीन का खुलकर जिक्र न किया हो, फिर भी उनके साझा संयुक्त बयान में हिंद-प्रशांत का उल्लेख पांच बार हुआ है। इसका सीधा तात्पर्य चीन को चुनौती देना है।
अफगानिस्तान को लेकर बाइडन का रवैया भले निराशाजनक रहा हो और उससे भारत की भूराजनीतिक स्थिति एवं राष्ट्रीय सुरक्षा को ठेस पहुंची हो, परंतु इससे यह अनुमान लगाना गलत है कि अमेरिका हिंद-प्रशांत में भी मित्र राष्ट्रों का परित्याग कर भाग निकलेगा। उधर चीन इसी प्रचार में लगा है कि ताइवान हो या एशिया में अन्य अमेरिकी साङोदार, सबको अफगानिस्तान से सबक लेना चाहिए कि अमेरिका गैर-भरोसेमंद है और उसके सहारे की आस में चीन का विरोध करना मूर्खता है। बाइडन की नीतियों से इतना स्पष्ट है कि चाहे दुनिया भर से अमेरिका पीछे लौट जाए, परंतु हिं-प्रशांत को छोड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि ऐसा करना खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। अमेरिका ने हाल में ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया के साथ आकस नाम से नया सैन्य गठबंधन बनाया है। इससे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में 21वीं सदी के खतरों यानी चीनी विस्तारवाद का प्रतिरोध करने की क्षमताएं बढ़ने की बात कही जा रही हैं। हालांकि, हिंद-प्रशांत में ब्रिटेन की सीमित ताकत और इसमें एशियाई देशों की अनुपस्थिति से आकस का चीन पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा।
दूसरी ओर बाइडन ने भारत के साथ हिंद-प्रशांत और अफ्रीका में त्रिकोणीय विकास सहयोग पर जोर दिया है। इससे दोनों पक्ष मिलकर चुनिंदा विकासशील देशों मे कृषि, क्षेत्रीय संपर्क, स्वास्थ्य, आपदा तैयारी, ऊर्जा और पोषण जैसे क्षेत्रों मे परियोजनाएं चलाएंगे। भारत और अमेरिका सहमत हैं कि इससे हिंद-प्रशांत में चीनी आक्रामकता के बरक्स ‘क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता एवं अंतरराष्ट्रीय कानूनों’ का बचाव किया जा सकता है। बाइडन चीन के खिलाफ दूरगामी रणनीति और सामरिक धैर्य वाला दृष्टिकोण अपनाना चाहते हैं। वैसे भी केवल सैन्य आक्रामकता से चीन के कद पर प्रहार नहीं किया जा सकता।
चीनी विस्तारवाद के कुछ मुख्य बिंदु हैं उसकी भीमकाय इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं, आर्थिक विकास के नाम पर कर्ज का जाल और प्रौद्योगिकी के माध्यम से कमजोर देशों पर नियंत्रण। उसकी इन बलाओं से मुक्ति दिलाने में भारत और अमेरिका सहित जापान और आस्ट्रेलिया जैसे क्वाड के सभी सदस्य देश चाहते हैं कि एक वैकल्पिक ढांचा बने, जो बहुआयामी और दीर्घकालिक हो। क्वाड की पहली औपचारिक बैठक में इसके स्पष्ट संकेत मिले। क्वाड बैठक का एक विशेष परिणाम था प्रौद्योगिकी में साझा पहल, जो ‘सार्वभौमिक मानवाधिकारों और मूल्यों’ का संरक्षण करेगी। इस अवसर पर चारों साथियों ने ‘5जी विविधीकरण’ का प्रण लिया और ‘भरोसेमंद विक्रेताओं’ को प्रोत्साहित करने पर सहमति जताई।
दरअसल, हुआवे और जेडटीई जैसी चीनी दिग्गज कंपनियों ने कई विकासशील देशों में 5जी का ढांचा तैयार कर इस दिशा में बढ़त बनाई है। इसी आड़ में चीन इन देशों के दूरसंचार जैसे संवेदनशील क्षेत्र पर अपनी पकड़ बनाना चाहता है। इसीलिए क्वाड सदस्यों ने सेमीकंडक्टर उत्पादन में विविधतापूर्ण एवं सुरक्षित आपूर्ति श्रृंखला सुनिश्चित करने का फैसला किया, ताकि चीनी दबदबे को घटाया जा सके। साथ ही ताइवान, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे लोकतांत्रिक आपूर्तिकारों की क्षमताएं बढ़ें। भारत भी सेमीकंडक्टर उत्पादन में उतरने की तैयारी कर रहा है। इसी लक्ष्य की पूर्ति की दिशा में मोदी ने अमेरिकी चिप महारथी क्वालकाम के मुखिया से मुलाकात की।
चीन के विरुद्ध नए शीतयुद्ध में भारत को लोकतांत्रिक पश्चिमी देशों से अधिक विदेशी निवेश मिले तो इससे हमारा आर्थिक विकास भी होगा और वैश्विक शक्ति संतुलन भी सधेगा। जब से ट्रंप प्रशासन ने चीन को निशाना बनाते हुए आर्थिक जंग शुरू की तबसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ‘चीन प्लस वन’ रणनीति बनाई है। इससे वे अकेले चीन मे निवेश करने के बजाय अन्य देशों मे भी निवेश कर भूराजनीतिक जोखिमों को घटा रही हैं। मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के अपने संबोधन में भारत को ‘लोकतांत्रिक और भरोसेमंद साझेदार’ कहा और याद दिलाया कि लोकतंत्र के साथ प्रौद्योगिकी को सुनिश्चित करना अहम आवश्यकता है। वह इशारा कर रहे हैं कि भारत और चीन में जमीन-आसमान का अंतर है और हमें चुनने के नैतिक और व्यावहारिक लाभ हैं।
याद रहे कि चीन नाजी जर्मनी जैसी शक्ति नहीं है, जो दूसरे देशों पर हमला कर उन पर कब्जा कर लेगा। वह धीरे-धीरे प्रतिद्वंद्वियों पर शिकंजा कसने में जुटा है। ऐसे प्रतिद्वंद्वी से धैर्य और संयम से निपटना होगा। हम उसे उसकी ही भाषा में जवाब दें तो जरूर दबाव में ला सकते हैं। ऐसे में सवाल यह नहीं होना चाहिए कि क्वाड एक सैन्य गठबंधन क्यों नहीं बन पाया, बल्कि यह होना चाहिए कि चीन को मात कैसे दी जाए? भारत सही सवाल और सही जवाब के पथ पर है।
(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)