किसी सैन्य घटक के बिना क्वाड न तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति कायम करने में समर्थ हो सकेगा और न ही चीन की काट कर पाएगा
वित्तीय उदारता और सैन्य सहायता अमेरिका यूक्रेन की रक्षा के नाम पर दे रहा है उससे कई गुना अधिक निवेश उसे क्वाड के साथ एकजुट होकर हिंद-प्रशांत की रक्षा के लिए करना होगा। अन्यथा चीन सबको पछाड़ देगा और हम सब हाथ मलते ही रह जाएंगे।
श्रीराम चौलिया। टोक्यो में आयोजित क्वाड देशों का तीसरा शिखर सम्मेलन विश्व व्यवस्था के निर्धारण में हिंद-प्रशांत की केंद्रीय भूमिका की पुष्टि का प्रतीक है। इस समय रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण अंतररराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान पूर्वी यूरोप पर टिका हुआ है। ऐसी स्थिति में क्वाड के चारों देशों भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के राष्ट्र प्रमुखों का जापान में बैठक करना और एशिया के भविष्य की रूपरेखा पर रणनीति बनाना यही संकेत करता है कि एशिया में शक्ति संतुलन ही अंतत: वैश्विक भू-राजनीति एवं भू-अर्थनीति में निर्णायक सिद्ध होगा। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति यही रही कि दुनिया के तीन प्रमुख क्षेत्रों में किसी भी प्रतिद्वंद्वी को हावी नहीं होने देना है। ये प्रमुख क्षेत्र रहे यूरोप, पश्चिम एशिया और पूर्वी एशिया। इसके पीछे अमेरिका का यह सोच रहा कि इनमें से कहीं भी अगर शक्ति संतुलन अमेरिका के विपरीत गया तो उसके लिए वैश्विक महाशक्ति बने रह पाना संभव नहीं होगा। बाइडन प्रशासन द्वारा 2021 में जारी 'राष्ट्रीय सुरक्षा सामरिक मार्गदर्शन' में यही दोहराया गया है। उससे यही स्पष्ट होता है कि अमेरिकी सुरक्षा के लिए दुनिया के प्रमुख क्षेत्रों पर विरोधियों का आधिपत्य होने से रोकना अनिवार्य है।
पश्चिम एशिया और यूरोप में कोई ऐसी शक्ति नहीं जो अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दे सके। ईरान और रूस जैसे देश अमेरिका को परेशान करते आए हैं, लेकिन उनमें उतना आर्थिक एवं सैन्य बल नहीं, जिससे वे अमेरिका को मात दे सकें। केवल पूर्वी एशिया में स्थित चीन ही अमेरिका को चुनौती देने में सक्षम दिखाई पड़ता है और वह इसके कमर भी कस रहा है। अमेरिका भी इससे भलीभांति अवगत है। यही कारण है कि अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने कहा कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र ही इक्कीसवीं सदी के भविष्य को परिभाषित करेगा और अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन इस मामले में अमेरिकी नेतृत्व एवं भागीदारी को लेकर प्रतिबद्ध हैं। उल्लेखनीय है कि क्वाड के साथ ही अमेरिका एक और महत्वाकांक्षी पहल कर रहा है। इसे 'हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचा' नाम दिया गया है। इसमें अमेरिका, भारत, आस्ट्रेलिया, ब्रुनेई, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, न्यूजीलैंड, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस फ्रेमवर्क के उद्घाटन पर उपस्थित होना दर्शाता है कि भारत इसके सामरिक लाभ को समझता है। आपूर्ति शृंखला को लचीला बनाना, 5जी तकनीक का सुरक्षित एवं भरोसेमंद विकास, उच्च गुणवत्ता वाला बुनियादी ढांचा और स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन आदि इस गठजोड़ के प्रमुख उद्देश्य बताए जा रहे हैं। सुलिवन ने डंके की चोट पर कहा कि इसकी धमक बीजिंग तक सुनाई पड़ेगी। इसमें चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना को टक्कर देने की पूरी संभावना है। यह क्वाड प्लस के रूप में उसका औपचारिक विस्तार तो नहीं, किंतु अनौपचारिक तरीके से आकार लेने वाले इस ढांचे में चीन की काट करने की क्षमता जरूर है।
क्वाड के चार मूल सदस्य ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बहुआयामी क्षमता रखते हैं। ऐसे में उन्हें स्वाभाविक रूप से इस इकोनमिक फ्रेमवर्क का साझा नेतृत्व करना होगा। ये चारों देश पहले ही इन्फ्रास्ट्रक्चर, वैक्सीन, आपूर्ति शृंखला, सामरिक साझेदारी और सेमीकंडक्टर आदि क्षेत्रों में समझौते कर चुके हैं और उनमें से कुछ पर काम भी शुरू हो चुका है। ऐसे में साझेदारी के इस दायरे को बढ़ाना और नए सहयोगियों को उसमें जोडऩा ही बुद्धिमत्ता होगी। अमूमन यही माना जाता है कि जिन अंतरराष्ट्रीय आर्थिक ढांचों में अधिक हितधारक होते हैं, वहां समन्वय, सहमति बनाकर अपेक्षित कार्य को शीघ्रता से संपादित करना संभव नहीं होता। इसलिए इस फ्रेमवर्क में विभिन्न पक्षों को देखते हुए उसकी कार्यसंस्कृति को बेहतर बनाने के उपाय करने होंगे। बाइडन प्रशासन कहता आ रहा है कि उसका लक्ष्य यह सिद्ध करना है कि 'लोकतांत्रिक देश वादों और अपेक्षाओं पर खरे उतर सकते हैं और तानाशाही वाले देशों से बेहतर प्रदर्शन दिखा सकते हैं।' क्वाड सदस्य इसे तभी चरितार्थ कर पाएंगे जब वे मिलकर एशिया के चुनिंदा संकटग्रस्त देशों को संभाल सकें। रूस-यूक्रेन संकट से क्वाड का बहुत सरोकार नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी पिछले कुछ अवसरों पर कह भी चुके हैं कि हमें 'हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने मूल उद्देश्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।'
इस बीच संयुक्त राष्ट्र ने चेताया है कि कोविड महामारी के बाद यूक्रेन युद्ध के झटके से न केवल आर्थिक रिकवरी की राह बाधित हुई है, बल्कि दुनिया के तमाम देश खाद्य एवं ऊर्जा संकट से जूझ रहे हैं। कई देशों में स्थितियां विस्फोटक हो चली हैं। श्रीलंका इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। पाकिस्तान, कजाखस्तान से लेकर म्यांमार और नेपाल तक की हालत नाजुक बनी हुई है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र के कुछ देशों में भी इसी प्रकार का जोखिम कायम है। ऐसे में यदि क्वाड देश मिलकर कुछ देशों का भला करें और उन्हें चीनी चंगुल से मुक्ति दिला सकें तो यह एक मिसाल कायम करने वाली जीत होगी। याद रहे कि चीन का दुष्प्रभाव केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि सामरिक भी है।
एक 'खुला एवं स्वतंत्र हिंद-प्रशांत' क्षेत्र ही क्वाड का मूलमंत्र है। ऐसे में चारों सदस्यों की सैन्य सक्रियता में बढ़ोतरी स्वाभाविक है। टोक्यो शिखर वार्ता के पूर्व ही चीन ने अमेरिका और जापान पर ताइवान के मामले में दखलंदाजी का आरोप लगाया है। इतना ही नहीं उसने क्वाड को एक प्रकार से नाटो का एशियाई विस्तार करार दिया है। वहीं बाइडन ने भी यह कहकर अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैैं कि यदि चीन ताइवान पर हमला करेगा तो अमेरिका ताइवान का सैन्य संरक्षण करेगा। फिर भी बड़ा सवाल यही है कि क्या क्वाड ताइवान और छोटे दक्षिण एशियाई देशों की रक्षा के लिए कोई कारगर कवच बना सकेगा? शिखर बैठकों में चीन के सैन्य विस्तारवाद की निंदा करना ही काफी नहीं है। न ही कोई आर्थिक पहल हिंद-प्रशांत को चीनी खतरे से बचाने के लिए पर्याप्त होगी। किसी सैन्य घटक के बिना क्वाड हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति और स्थिरता कायम करने में असमर्थ होगा। जो वित्तीय उदारता और सैन्य सहायता अमेरिका यूक्रेन की रक्षा के नाम पर दे रहा है, उससे कई गुना अधिक निवेश उसे क्वाड के साथ एकजुट होकर हिंद-प्रशांत की रक्षा के लिए करना होगा। अन्यथा चीन सबको पछाड़ देगा और हम सब हाथ मलते ही रह जाएंगे।
(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)