उमेश चतुर्वेदी। बिहार की जातिगत गणना की रिपोर्ट के बाद जाति केंद्रित राजनीति नए सिरे से परवान चढ़ने लगी है। जातिगत गणना के समर्थन में ज्यादातर समाजवादी वैचारिकी वाले दल हैं। जाति के बजाय वर्ग की बात करने वाले मार्क्सवादी खुद को चूंकि समाजवादी धारा की राजनीति के करीब पाते हैं, इसलिए वे भी जाति जनगणना को मौन समर्थन दे रहे हैं। राष्ट्रीय विचार परिवार के दल इस गणना के विरोध में हैं। घोषित तौर पर कांग्रेस का दावा गांधीवादी दर्शन पर आधारित है, मगर हाल में वह वाम वैचारिकी से कुछ ज्यादा ही प्रेरित नजर आ रही है। यही वजह है कि कांग्रेस कार्यसमिति ने खुलकर कहा कि अगर वह सत्ता में आती है तो वह जातिगत जनगणना कराएगी।

जाति भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई है, लेकिन इसे खुले तौर पर कभी स्वीकार नहीं किया जाता। जब राजनीतिक फायदा उठाने की बात होती है तो जाति का सवाल खड़ा कर दिया जाता है, लेकिन जब आदर्श की बात होती है तो जाति रहित समाज की ओर कदम बढ़ाने की चर्चा होने लगती है। ये दोनों ही बातें विरोधाभासी हैं। राजनीति जब भी जाति का सवाल उठाती है तो उसकी निगाह अपने समर्थक आधार वाली जातियों को खुश करना और उसके जरिये अपना वोट बैंक बनाना होता है। उसका मकसद समाज व्यवस्था से जातियों का खात्मा नहीं होता, बल्कि अपनी समर्थक जातियों को उनकी संख्या के लिहाज से नौकरियों में आरक्षण, आर्थिक मदद आदि दिलवाना होता है।

स्वाधीनता आंदोलन के दो उद्देश्य थे। विदेशी सत्ता से मुक्ति के साथ ही भविष्य के भारत को सामाजिक बुराइयों से मुक्त बनाकर आर्थिक और सामाजिक आधार पर एक बड़े और सुहृद समाज के रूप में स्थापित करना। इसीलिए पूरे स्वाधीनता आंदोलन की मुख्यधारा में दो चीजें साफ दिखती हैं। अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ अहिंसात्मक और हिंसात्मक दोनों तरह की धाराएं आंदोलन चला रही थीं। इन दोनों ही धाराओं के लोग समानांतर रूप से रचनात्मक कार्यक्रम जैसे स्त्री शिक्षा, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जागरूकता और आर्थिक स्वावलंबन की बात भी करते रहे।

संविधान सभा की बहसों में भी जाति की राजनीति से परहेज दिखता है। संविधान सभा में बेशक भावी भारत में शासकीय नौकरियों में जातियों के हिसाब से आरक्षण देने का प्रस्ताव मंजूर किया गया, लेकिन संविधान में साफ तौर पर कानून के समक्ष समानता की अवधारणा को स्वीकार किया गया। संविधान का अनुच्छेद 15 कहता है कि राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध केवल पंथ, नस्ल, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।

इसी तरह अनुच्छेद 16 में कहा गया कि रोजगार के मामलों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी। किसी भी नागरिक को सिर्फ पंथ, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर राज्य के अधीन किसी पद के लिए अपात्र नहीं माना जा सकेगा। राज्य के नीति निर्देशक तत्व भी समानता आधारित समाज की अवधारणा पर जोर देते हैं। ऐसे में स्वाधीनता के कुछ साल बाद तक ये सभी लक्ष्य हासिल हो जाने चाहिए थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

स्वाधीनता संघर्ष और संविधान के निर्माण तक आदर्शवाद हावी रहा, लेकिन बाद की राजनीति पूरी तरह अपने समर्थक आधार को मजबूत करने और उसके जरिये राजनीतिक ताकत हासिल करने पर केंद्रित होती चली गई। इसी का नतीजा है कि आज भी देश की राजनीति जाति के इर्द-गिर्द ही घूम रही है।

राजनीतिक क्षितिज पर जब राममनोहर लोहिया का उभार हुआ तो जाति की राजनीति नए सिरे से परवान चढ़ी। लोहिया ने जाति तोड़ो का नारा दिया। तब माना जाता था कि करीब साठ प्रतिशत लोग पिछड़े वर्ग के हैं। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी यानी संसोपा के महासचिव के रूप में लोहिया ने नारा दिया, संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ।

समाजवादी राजनीति के नेता, जैसे लालू यादव, मुलायम सिंह, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार या फिर देवेगौड़ा, ये सब लोहियावादी दर्शन की राजनीति की उपज हैं, लेकिन लोहिया और उनके अनुयायियों के सोच में एक बुनियादी फर्क है। लोहिया विकास की दौड़ में पिछड़ी रह गई जातियों के लोगों को आरक्षण देकर उन्हें अगड़ी माने जाने वाली जातियों के बराबर लाना चाहते थे। लोहिया का मानना था कि एक दौर ऐसा आएगा, जब लगभग सभी जातीय समूह के लोग सोच और आर्थिक आधार पर बराबर होंगे तो जाति व्यवस्था टूटने लगेगी, लेकिन लोहिया अपनी धारणा के नकारात्मक असर को भांप नहीं पाए।

आज पिछड़े पावैं सौ में साठ का नारा लगाने वाले दरअसल जातियों के नेता बन गए हैं। इस सोच से जाति की नई तरह की राजनीति विकसित हुई। हर जाति अपने आरक्षण के आधार को और व्यापक करने में ही अपनी ताकत महसूस करती है। राजनीति अपने स्वार्थ के लिए जातिवादी ढांचे को और मजबूत ही कर रही है। इसके चलते विकास के बजाय जाति राजनीति का ताकतवर औजार बन गई। सरदार पटेल शायद इस खतरे को समझते थे। यही वजह है कि उन्होंने 1951 में होने वाली जनगणना में जाति को आधार बनाने का विरोध किया। तब से लेकर जाति आधारित जनगणना की न तो पुरजोर मांग उठी और न ही उसे लागू किया गया।

कांग्रेस जाति जनगणना से दूर रही। 2009 में दोबारा मनमोहन सरकार बनने के बाद उसे समर्थन दे रहे लालू और मुलायम जैसे नेताओं ने जाति जनगणना के लिए दबाव डाला। इसके चलते 2011 में सामाजिक-आर्थिक आधार पर जनगणना कराई गई। चार हजार करोड़ रुपये के खर्च से हुई इस जनगणना के बाद जब 46 लाख जातियों की संख्या सामने आई, तो सरकार हिल गई। उसे लगने लगा कि अगर आंकड़े जारी हुए तो देश में जातीय तनाव फैल सकता है। अब वही कांग्रेस जातीय जनगणना में ही राष्ट्र का भला देख रही है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं)