सुशांत झा। तिरुपति बालाजी मंदिर में पशुओं के चर्बीयुक्त घी से बने प्रसाद पर विवाद के बीच यह मांग उठ रही है कि मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए। इस मांग के विरोध में यह कहा जा रहा है कि अगर मंदिरों से सरकारी नियंत्रण हट गया तो क्या वे फिर से ब्राह्मण वर्चस्व में नहीं चले जाएंगे?

इसी के साथ यह भी कहा जा रहा है कि ये ब्राह्मण ही थे, जिन्होंने सारे मंदिरों पर कब्जा कर लिया और उनमें दलितों और पिछड़ों की भागीदारी सीमित कर दी। यह सही है कि भारत में अधिकांश मंदिरों के पुजारी जन्मना ब्राह्मण होते रहे। शायद आज भी अधिकांश मंदिरों में वही हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि शत-प्रतिशत मंदिरों के पुजारी ब्राह्मण होते हैं।

अनुसूचित जाति और जनजाति के पुरोहित उनकी अपनी जाति के होते हैं और उनके मंदिरों के पुजारी भी, खासकर दलितों के यहां। जनजातियों का सिस्टम अलग है। हिंदू व्यवस्था में ब्राह्मण उन्हीं के पुरोहित थे, जिनसे उनका ‘पानी पीने का संबंध’ था यानी अभी की अधिकांश कथित सवर्ण और पिछड़ी जातियों के यहां, जो सकल आबादी की करीब 50 प्रतिशत हैं।

सवाल है कि क्या दलितों के यहां पूजा न करवाने का फैसला अकेले ब्राह्मणों का था? क्या देश के दो-तीन प्रतिशत ब्राह्मण और उसमें भी 0.01 प्रतिशत पुरोहित ऐसा अपने मन से थोप सकते थे? स्पष्ट है कि इसमें सवर्ण और पिछड़ा सहित पूरा समाज शामिल था। 2011 की जनगणना में देश में करीब 26 लाख धार्मिक संस्थान/ मंदिर-मस्जिद-चर्च इत्यादि होने की बात कही गई। इसमें करीब 19 लाख हिंदू संस्थान थे।

यह मान लें कि पिछले सौ साल में अनेक मंदिर सड़कों के किनारे निहित स्वार्थों के लिए भी बने हों तो यह ध्यान रहे कि उन्हें बनवाने वाले ऐसे बहुत सारे लोग थे, जो ब्राह्मण नहीं थे। करीब 15 लाख मंदिर सैकड़ों-हजारों सालों से देश में हैं, वे राजाओं, जमींदारों और सेठों द्वारा बनाए गए और उन्होंने उसमें ब्राह्मण पुरोहित नियुक्त किए। ऐसा परंपरा से हुआ। किसी ब्राह्मण ने कोई मीटिंग या जलसा नहीं किया कि उसे ही पुरोहित बनाया जाए।

इन 15 लाख मंदिरों में से लाखों ऐसे मंदिर भी हैं, जो ब्राह्मणों से इतर मठ हैं। आप गोरखपुर मठ का नाम लें या कर्नाटक में लिंगायत/वोक्कालिगा मठों के, इनके स्वामी गैर-ब्राह्मण होते हैं। हाल में जिस ‘सेंगोल’ नामक राजदंड का प्रधानमंत्री मोदी ने प्रचार किया और जिसकी जड़ें चोल राजवंश तक जाती हैं, उनके मठाधीश गैर-ब्राह्मण हैं।

देश में आर्य समाज, कबीर पंथ, ब्रह्म समाज इत्यादि के हजारों मंदिर हैं, जिनमें ब्राह्मण पुरोहित नहीं हैं। शहरों में तो खैर पता ही नहीं चलता कि किस मंदिर में ब्राह्मण या गैर-ब्राह्मण पुरोहित हैं। आधुनिक काल में ऐसे बहुत से संप्रदाय बने हैं-खासकर इस्कान, साईं मंदिर समूह, गायत्री परिवार आदि जिनमें सभी जातियों के पुरोहित हैं।

पुजारी और पुरोहित में फर्क करना जरूरी है। पुजारी वह है, जो दैनिक पूजा-अर्चना या भोग लगाता है। पुरोहित वह है, जो खास अंतराल पर पारिवारिक कर्मकांड करता है। सवर्णों या पिछड़ों के बीच कर्मकांड पर तो ब्राह्मणों का वर्चस्व है, लेकिन पुजारी होने पर नहीं। यह फर्क हमें समझना चाहिए। कुछ तो पुरोहित भी गैर-ब्राह्मण हैं। बिहार के सबसे प्रसिद्ध पटना के हनुमान मंदिर में करीब 40 प्रतिशत गैर-ब्राह्मण पुरोहित हैं, जो पूर्व आइपीएस अफसर द्वारा संचालित है। वह भूमिहार हैं।

देश के कुछ हिस्सों में ‘राज्य’ ने मंदिरों में गैर-ब्राह्मण पुरोहितों को नियुक्त करना शुरू किया है। इन मंदिरों पर राज्य का नियंत्रण है। तमिलनाडु इसमें अग्रणी है। तमिलनाडु की ब्राह्मण विरोधी राजनीति के बावजूद मंदिरों में गैर-ब्राह्मण पुजारी ज्यादा नहीं हैं। संभवत: इसका एक कारण यह है कि पुजारी बनने का लाभ कम है और जीवनशैली कठिन है।

फिर भी प्रतीकात्मक रूप में इसे समतावाद के तौर पर लिया जा रहा है। यह कहना कि ब्राह्मणों ने एक समूह बनाकर धर्मस्थलों पर कब्जा कर लिया, सत्य से परे है। यह कहना वैसे ही है, जैसे यह प्रचार करना कि मारवाड़ियों ने देश की अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर लिया है! यह भी उल्लेखनीय है कि सामान्य मंदिर अलग हैं, मठ अलग हैं और लोकदेवताओं के मंदिर अलग हैं। मठों और लोकदेवताओं के मंदिर पर तो लगभग अधिकांश में गैर-ब्राह्मणों का ही नियंत्रण है।

एक अन्य मसला वीआइपी कल्चर से जुड़ा है, जिसमें पैसा देकर वीआइपी दर्शन इत्यादि की व्यवस्था की जाती है। इसका विरोध होना चाहिए। अगर कोई अपने आराध्य का दर्शन करने जा रहा है तो उसे घंटे-दो घंटे लाइन में लगने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए। गौरतलब है कि यह वीआइपी कल्चर सरकारी ट्रस्ट नियंत्रित मंदिरों में अधिक है।

इसे मंदिरों के राजस्व में बढ़ोतरी का माध्यम बना दिया गया है। अंत में फिर वही सवाल कि क्या मंदिरों में गैर-ब्राह्मण पुजारी होने चाहिए? अवश्य होने चाहिए और सार्वजनिक मंदिरों में तो और भी। हां, पुजारियों को उस मंदिर की मत-परंपरा, वहां के लोकाचार, कर्मकांड, अनुष्ठान का ज्ञान और उनमें थोड़ी बहुत धार्मिक प्रवृत्ति होनी चाहिए।

यह नहीं हो सकता कि धार्मिक प्रवृत्ति न रखने वाला कोई व्यक्ति पुजारी बन जाए और वहां की स्थापित परंपरा को ध्वस्त कर दे या कोई मुसलमान, ईसाई या कोई नास्तिक हिंदू धर्मस्थान बोर्ड का सदस्य बन जाए। रही बात पुरोहिती की तो यह समाज का फैसला है कि वह किससे पुरोहिती कराता है। आप किसी को बाध्य नहीं कर सकते कि वह किससे पूजा करवाए।

(लेखक मंजुल पब्लिशिंग हाउस में प्रबंध संपादक हैं)