प्रणय कुमार : समय सदा एक सा नहीं रहता। सत्य अंततः प्रकाशित होता है। छल-बल से आरोपित एवं प्रायोजित स्थापनाओं को जनसामान्य के गले उतारने की कितनी भी कोशिशें क्यों न की जाएं, वे लंबे कालखंड तक नहीं टिकतीं। अनुकूल अवसर एवं परिवेश पाते ही देश के साथ नाभिनाल संबधों से जुड़ा उसका संतानवत समाज अपनी मूल पहचान की ओर निश्चित लौटता है। भारतीय समाज भी इन दिनों अपनी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर सजग हुआ है। वह अपनी ऐतिहासिक विरासत को संजोना चाहता है। वह लोक में प्रसिद्ध नायकों-महानायकों के बारे में विस्तार से जानना चाहता है।

अकादमिक जगत और इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों द्वारा उसके समक्ष अब तक जो इतिहास परोसा गया, उससे वह सहमत नहीं। उसे वह अधूरा, एकांगी एवं औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त पाता है। उसे इन पुस्तकों में अपनी संस्कृति, धर्म, ज्ञान-परंपरा, लोक एवं साहित्य आदि के दर्शन नहीं होते, बल्कि इन्हें पढ़ने से हीनभावना विकसित होती है। ये राष्ट्रीय विस्मृति एवं स्वाभिमानशून्यता का संचार करते हैं। इनमें आक्रांताओं का यशोगायन तो खूब किया गया है, परंतु साहस एवं दृढ़ता के साथ उनका प्रतिकार करने वाले देश के वीर सपूतों की घनघोर उपेक्षा की गई है। इनमें पराजय को ही भारत की नियति सिद्ध करने की कुचेष्टा की गई है। जबकि दुनिया जानती है कि यह एकमात्र ऐसा देश है, जो अपनी सनातन संस्कृति की सत्यता को बनाए रखने में लगभग सफल रहा है।

क्या कोई पराजित सभ्यता अपने जीवनमूल्यों, आदर्शों, परंपराओं, मानबिंदुओं की रक्षा कर सकती थी? कदापि नहीं। सत्य यही है कि भारत का इतिहास पराजय का नहीं, बल्कि संघर्ष, शौर्य एवं पराक्रम का है। देश का कोई भी भूभाग ऐसा नहीं, जहां विदेशी आक्रांताओं को निरापद शासन करने दिया गया हो। हर कालखंड में इस देश में ऐसे महापुरुष हुए, जिन्होंने इन आक्रांताओं के विरुद्ध स्वतंत्रता की अलख जलाए रखी और उनके दुर्बल पड़ते ही अपने राज्य और प्रजाजनों को उनके अन्याय-अत्याचार से मुक्त कराया, परंतु दुर्भाग्य से ब्रिटिश इतिहासकारों ने इतिहास संबंधी जो मिथ्या धारणाएं गढ़ीं, उसे निहित स्वार्थों की पूर्ति एवं छद्म पंथनिरपेक्षतावादी राजनीति के नाम पर स्वतंत्रता के पश्चात भी निरंतर जारी रखा गया।

यह सुखद है कि देश के अलग-अलग भूभागों से आने वाले जिन नायकों को षड्यंत्रपूर्वक विस्मृति के गर्त में धकेल दिया गया था, आजादी के इस अमृत काल में केंद्र सरकार की पहल से उनकी चर्चा सामान्य जन के बीच पुनः होने लगी है। उनके प्रति और अधिक जानने की आम जनों की इच्छा तीव्र हुई है।

चाहे ‘मानगढ़ धाम की गौरव गाथा’ कार्यक्रम के माध्यम से भील समुदाय से आने वाले महान स्वतंत्रता-सेनानी गोविंद गुरु को याद करने या बेंगलुरु शहर के संस्थापक नादरप्रभु केंपेगौड़ा की 108 फीट ऊंची कांस्य-प्रतिमा का अनावरण करने या इसी वर्ष जुलाई में आंध्रप्रदेश के भीमावरम में महान स्वतंत्रता-सेनानी अल्लूरी सीताराम राजू की 125वीं जयंती पर वर्ष भर चलने वाले समारोह की शुरुआत करने या जून में मुंबई राजभवन में ‘क्रांति गाथा गैलरी’ का शुभारंभ कर बासुदेव बलवंत फड़के, चाफेकर बंधु, बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर, बाबा राव सावरकर, क्रांतिगुरु लाहूजी साल्वे, अनंत लक्ष्मण कान्हेरे, भीखाजी कामा और राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों की स्मृति को संजोने या रांची में भगवान बिरसा मुंडा स्मृति उद्यान सह स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय का उद्घाटन करने या बहराइच में महाराजा सुहेलदेव-स्मारक तथा पानीपत में पानीपत संग्राम संग्रहालय के शिलान्यास आदि करने की बात हो-वर्तमान केंद्र सरकार अतीत के इन गौरवशाली व्यक्तित्वों के प्रति श्रद्धावनत दिखाई देती है। ऐसे प्रयास जहां राष्ट्रीय चेतना का संचार करते हैं, वहीं इनसे युवाओं के भीतर राष्ट्र के प्रति गौरव, भक्ति एवं कर्तव्यपरायणता की भावना विकसित होती है।

षड्यंत्र से नेपथ्य में धकेल दिए गए इतिहास के इन नायकों को यथोचित सम्मान देने-दिलाने की शृंखला में बीते दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्वोत्तर के शिवाजी कहे जाने वाले अहोम साम्राज्य के महान सेनापति लचित बरफुकन को उनकी 400वीं जयंती पर श्रद्धापूर्वक याद किया और युवाओं को उनके जीवन से ‘राष्ट्र प्रथम, राष्ट्र सर्वोपरि’ का भाव ग्रहण करने की प्रेरणा दी। लचित बरफुकन ने केवल पूर्वोत्तर भारत को ही नहीं, अपितु पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया को तत्कालीन मुगलिया सल्तनत की मजहबी कट्टरता से बचाए रखने का अभूतपूर्व कार्य किया।

बंगाल से आगे मुगलों की सत्ता के निर्बाध विस्तार में वे सुदृढ़ प्राचीर की भांति डटे और खड़े रहे। उन्होंने अपने सीमित संसाधनों के सहारे विभिन्न जनजातियों को साथ लेकर मुगलों की विशाल सेना से डटकर मुकाबला किया और उन्हें सरायघाट की लड़ाई में बुरी तरह पराजित किया। यह पराजय इतनी बड़ी थी कि उसके बाद कोई भी मुगल शासक असम पर कुदृष्टि डालने का साहस न कर सका। चाहे अकबर हो या औरंगजेब, कुतुबुद्दीन ऐबक हो या इल्तुतमिश, बख्तियार खिलजी हो या इवाज खली, मुहम्मद बिन तुगलक हो या मीर जुमला, असम में अहोम राजाओं के शौर्य के आगे उन्हें झुकना ही पड़ा। 1206 से 1671 तक मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा असम पर 22 बार आक्रमण किया गया, पर उस पर स्थायी आधिपत्य उनके लिए सपना ही रहा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे महान अहोम साम्राज्य और उसके प्रतापी सेनापति पर इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें मौन हैं। स्पष्ट है कि इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों को नए सिर से लिखे जाने की आवश्यकता है।

(लेखक शिक्षाविद एवं ‘शिक्षा-सोपान’संस्था के संस्थापक हैं)