आर. विक्रम सिंह। हम 16 दिसंबर, 1971 को एक नए देश-बांग्लादेश के जन्म के गवाह बने थे। तब वैश्विक परिस्थितियां विपरीत थीं। चीन और अमेरिका में नए संबंध विकसित हो रहे थे। वह हेनरी किसिंजर की कूटनीति का दौर था। मार्च 1971 में ढाका में पाकिस्तानी सेना की भीषण हिंसा के बाद पूर्वी पाकिस्तान यानी आज का बांग्लादेश दमन का गढ़ बन गया था। पाकिस्तानी सेना ने जिस तरह लगातार नरसंहार और महिलाओं से दुष्कर्म का खौफनाक सिलसिला चलाया, वैसा किसी भी सेना ने अपने नागरिकों के साथ नहीं किया होगा। तीस लाख बंगालियों की नृशंस हत्या हुई।

पाकिस्तान का दुर्भाग्य उसके साथ-साथ चला। व्यवस्था लोकतंत्र की थी, पर पाकिस्तानी संविधान तक न बना सके। हिंदू समुदाय के कानून मंत्री जोगेंद्रनाथ मंडल को पाकिस्तान छोड़कर भागना पड़ा। प्रधानमंत्री लियाकत अली की आर्मी हेडक्वार्टर में हत्या हो गई। नौकरशाही और सेना के गठजोड़ वाले शासन के बाद 1958 में जनरल अय्यूब खान का सैन्य शासन आ गया।

जनरल याह्या खान सैन्य शासक थे, जब पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार निष्पक्ष चुनाव हुए। शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को नेशनल असेंबली में पूर्ण बहुमत मिला। भुट्टो और सेना को बतौर प्रधानमंत्री मुजीबुर्रहमान अस्वीकार्य थे। पाकिस्तानी सेना की ओर से आम नागरिकों पर किए जा रहे अत्याचार की घटनाओं ने भारतीय जनमानस को हिला कर रख दिया। इंदिरा गांधी ने जनरल मानेकशा को सैन्य कार्रवाई का निर्देश तो दिया, लेकिन उस सैन्य कार्रवाई के राजनीतिक और सैन्य लक्ष्य तय नहीं किए गए।

क्या बांग्लादेश की आजादी से हमारी मूल कश्मीर समस्या का कोई समाधान संभव था? क्या पश्चिमी मोर्चे पर बड़े लक्ष्य की जरूरत नहीं थी? इन प्रश्नों के बीच जब जनरल मानेकशा ने पूर्वी पाकिस्तान में तत्काल सैन्य कार्रवाई से यह कह कर मना कर दिया कि हम अभी तैयार नहीं हैं तो इंदिराजी ने वह बैठक स्थगित कर दी। दोपहर बाद बैठक फिर बुलाई गई।

मानेकशा ने कैबिनेट को रणनीतिक पक्ष से अवगत कराया। आखिर पूरी तैयारियों के बाद नवंबर के अंतिम सप्ताह से हमारी सेनाएं पूर्वी पाकिस्तान में तीन दिशाओं से प्रवेश करने लगीं। लक्ष्य था ढाका। मानेकशा के नेतृत्व के चलते सैन्य मनोबल में कोई कमी नहीं थी। विक्रांत एयरक्राफ्ट कैरियर मोर्चे पर हाजिर था। उसके लड़ाकू विमानों ने काक्स बाजार और चटगांव के बंदरगाहों को आक्रमणों से अक्षम कर दिया। पिस्टन इंजन से चलने वाले बीते जमाने के उन विमानों ने अपेक्षाओं से बढ़ कर काम किया।

पूर्वी पाकिस्तान के हालात से विश्व अवगत था, लेकिन नैतिकता और मानवीयता के आधार पर भी कोई बंगालियों के समर्थन में हमारे साथ नहीं आया। विश्व के कई प्रमुख देशों समेत अमेरिका के लिए लाखों बंगालियों का नरसंहार कोई मुद्दा ही नहीं था। भारतीय सेनाएं अपने अभियान पर थीं। इंदिरा गांधी वैश्विक कूटनीतिक दबावों को अपनी क्षमतानुसार झेल रही थीं। विश्वास था कि हमारी विजय होगी तो फिर यही दुनिया बदल जाएगी। संसार सफलता का साथी होता है।

ढाका का घेरा कसता जा रहा था। निक्सन और किसिंजर की कूटनीति-रणनीति असफल हो रही थी। वे डर रहे थे कि बांग्लादेश में आत्मसमर्पण होते ही भारत कहीं पश्चिमी पाकिस्तान को लक्ष्य न बना ले। वे दोनों सोवियत संघ पर दबाव बनाने में लगे थे। सुरक्षा परिषद में युद्धविराम के प्रस्तावों पर सोवियत संघ लगातार वीटो कर रहा था। निक्सन ने तो चीन को भी उकसा कर भारत के विरुद्ध सेनाएं भेजने का अनुरोध किया, लेकिन बाजी उनके हाथ से निकलती जा रही थी।

जब जनरल गंधर्व नागरा ने जनरल नियाजी को संदेश भेजा कि तुम अपने आप को हमारे हवाले कर दो, हम तुम्हारा ध्यान रखेंगे तो नियाजी की हिम्मत जवाब दे गई। उन्हें पाकिस्तान से झूठे आश्वासन आ रहे थे। जनरल नागरा नियाजी को पहले से जानते थे। नियाजी के सामने असंभव सी परिस्थितियां थीं। इस बीच जनरल जैकब अचानक ढाका पहुंच जाते हैं और नियाजी से कहते हैं कि कोई फायदा नहीं है जनरल साब, सरेंडर करें। नियाजी को यही संदेश जनरल अरोड़ा से मिलता है। नियाजी की हिचकियां बंध जाती हैं। वह कहता है, ‘रावलपिंडी में बैठे बदमाशों ने मरवा दिया।’

अपनी यूनिट 65 फील्ड रेजिमेंट के जवानों से मैंने ढाका विजय के तमाम किस्से सुने कि किस तरह हमने अपनी तोपों को नौ हिस्सों में खोलकर कभी खच्चरों से, कभी रिक्शा-तांगों से लेकर चले। फिर मोर्चे पर पहुंचकर तोपें जोड़ीं, गोले दागे और आगे बढ़े। हमारी पलटन का युद्ध घोष ‘चढ़ जा छोरे’ जबरदस्त जोश भरने वाला था। अंततः विजय हमारी हुई, क्योंकि हथियारों से अधिक महत्वपूर्ण उनके पीछे खड़ा आदमी होता है।

हमारे यहां विदेश और रक्षा नीतियों को भूराजनीतिक विमर्श के बगैर चलाना एक बड़ा संकट रहा है। राष्ट्रहित का सोच और शत्रुबोध तो अब विकसित हो रहा है। पहले हम अपने दीर्घकालिक हितों को भूलकर वैश्विक शांति का झंडा लगाए आदर्शवाद के ऊंचे आकाश में उड़ते रहते थे। आज जैसी गंभीरता है, वह 1947-48 के प्रथम कश्मीर युद्ध के बाद ही आ जानी चाहिए थी। भारत विभाजन के बाद हमारे राजनीतिक मानस का सोच खुद को पाकिस्तान के बराबर का देश मानने तक सीमित रहा।

पंडित नेहरू ने कश्मीर में घुस आई पाकिस्तानी सेना को पूरी तरह खदेड़ने के बजाय मध्य में ही युद्धविराम करना पसंद किया। इसके बाद उन्होंने तीन लाख की सेना में से एक लाख को रिटायर कर घर भेजने का निर्णय ले लिया। कुछ को भेज भी दिया गया। विरोध बढ़ा तब कहीं जाकर शेष सैनिकों का घर जाना रुक सका। नेहरू के लिए युद्धविराम के बाद कश्मीर कोई समस्या थी ही नहीं। ऐसी परिस्थितियों में हम सेनाओं के मनोबल की कल्पना कर सकते हैं। युद्धविराम न किया गया होता तो हमारी सेना कश्मीर मुक्त करा लेती।

1971 में भी हमारा यह मान लेना एक गलती रही कि बांग्लादेश बन जाने के बाद पाकिस्तान हमारे लिए कोई समस्या नहीं रहेगा। बांग्लादेश को मुक्त कराने के लिए लड़े गए युद्ध में हमें जो मिला, वह शिमला की वार्ता में गंवा दिया गया। पाकिस्तान को आणविक शस्त्र बनाने देना हमारी एक और बड़ी गलती रही। 1971 एक महान विजय थी, लेकिन वह प्रतिफलों को गंवा देने की कथा बन कर गई।

(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)