शिवकांत शर्मा : जानी-मानी अमेरिकी सट्टेबाज कंपनी हिंडनबर्ग रिसर्च के नाटकीय हमले ने भारत के सबसे तेज रफ्तार से बढ़ते अदाणी समूह के कदमों को रोक दिया है। हिंडनबर्ग कंपनी की रिपोर्ट के एक हफ्ते के भीतर अदाणी समूह का बाजार मूल्य गिरकर लगभग आधा रह गया है। भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकों से अदाणी समूह को दिए गए कर्जों का हिसाब मांगा है ताकि यह तय किया जा सके कि कर्जे क्या गिरवी रखकर दिए गए हैं। जेफरीज और सोसियते जनराल जैसी ब्रोकरेज कंपनियों की रिपोर्ट के अनुसार अदाणी समूह की कंपनियों को दिया गया कर्ज भारतीय बैंकों द्वारा दिए गए कुल कर्ज के केवल आधे प्रतिशत के ही बराबर है। फिर भी रिजर्व बैंक शायद यह देखना चाहता है कि कर्जे यदि शेयर गिरवी रखकर दिए गए हैं तो क्या वे शेयरों के गिरते दामों को देखते हुए सुरक्षित हैं?

इस बीच नेशनल स्टाक एक्सचेंज ने अदाणी एंटरप्राइजेज, अदाणी पोर्ट्स और अंबुजा सीमेंट के शेयरों के सौदों पर पूरी रकम अदायगी का नियम लगा दिया है ताकि सट्टे पर रोक लग सके। बांड बाजार में अदाणी समूह की कई कंपनियों के बांड के दाम 40 प्रतिशत तक गिर गए हैं। इसके बाद क्रेडिट सुइस और सिटीबैंक जैसे कुछ अंतरराष्ट्रीय बैंकों ने इन बांडों को गिरवी रखकर पैसा देना बंद कर दिया है। हालात को देखते हुए समूह को 20 हजार करोड़ के एफपीओ को रद करते हुए निवेशकों को उनका पैसा लौटाना पड़ा है।

अदाणी समूह का कहना है कि शेयरों की मांग जारी किए जा रहे शेयरों से ज्यादा थी, लेकिन यह मांग धनी निवेशकों, उद्योगपतियों और संस्थागत निवेशकों की तरफ से आई। आम निवेशकों ने उनके लिए निर्धारित शेयरों में से केवल 11 प्रतिशत खरीदने की ही हिम्मत दिखाई। यहां तक कि अदाणी समूह के कर्मचारी भी उनके लिए रखे शेयरों का केवल 53 प्रतिशत ही लेने को तैयार हुए। अदाणी समूह ने अगले पांच वर्षों में अदाणी न्यू इंडस्ट्रीज, अदाणी एयरपोर्ट और अदाणी रोड ट्रांसपोर्ट जैसे पांच आइपीओ लाने की योजना भी बना रखी थी। हिंडनबर्ग हमले ने इन सब पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

नए उद्यमों के अधिग्रहण, विकास और उन्हें मुनाफा कमाने लायक बनाने के लिए अदाणी को निरंतर नई पूंजी की जरूरत पड़ती रही है, जो बंदरगाहों, सीमेंट कारखानों, खदानों और बिजलीघरों के मुनाफे से पूरी नहीं की जा सकती थी। इसलिए समूह ने बैंकों से कर्ज लेकर, अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बांड बेचकर और बड़े विदेशी निवेशकों को हिस्सेदारी बेचकर पूंजी बटोरी। कारोबार फैलाने के लिए पूंजी बटोरने की प्रक्रिया का परिणाम यह हुआ कि समूह का कर्ज उसकी करीब दो लाख करोड़ की आय से भी ऊपर चला गया, पर मुनाफा केवल 475 करोड़ रुपये ही रहा। इतने कम मुनाफे के बावजूद अदाणी समूह के दाम इतनी तेजी से बढ़ने का एक कारण इन कंपनियों के 72.6 प्रतिशत से अधिक शेयरों का प्रमोटर या मालिकों के हाथों में होना है। केवल 15.39 प्रतिशत शेयर विदेशी निवेशकों और मात्र 6.53 प्रतिशत शेयर आम लोगों के पास हैं। इतने कम शेयर लेनदेन में रहने के कारण उनके दामों में उतार-चढ़ाव का जोखिम ज्यादा रहता है।

एक सूचीबद्ध कंपनी के मालिक 75 प्रतिशत से ज्यादा शेयर अपने पास नहीं रख सकते। हिंडनबर्ग रिसर्च की आलोचना का एक बिंदु यह भी है कि अदाणी समूह अधिकतम सीमा के पास शेयर अपने पास रखकर कंपनी को कुनबाशाही की तरह चलाता है जिसमें अपेक्षित पारदर्शिता नहीं। अदाणी की निजी संपत्ति के तेजी से बढ़ने का सबसे बड़ा कारण कोविड की मंदी के बावजूद उनकी कंपनी के शेयरों में आश्चर्यजनक तेजी आना और कंपनियों के 72.6 प्रतिशत शेयरों का उनके पास होना था। यूरोपीय और अमेरिकी कारोबारी जगत में कुनबाशाही और साठगांठ को अच्छा नहीं माना जाता। जबकि यह भारतीय समाज और राजनीति के स्वभाव में है जिसका कारोबार में झलकना स्वाभाविक है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के कई सवाल अदाणी समूह के कामकाज में दिखती इसी गड़बड़ी की बात करते हैं।

जो भी हो, देश की कारोबारी साख को बनाए रखने के लिए ऐसे सवालों का संतोषजनक उत्तर देना बहुत जरूरी है। उससे भी जरूरी उन सवालों की पारदर्शी तरीके से निष्पक्ष छानबीन कराना है जो हिंडनबर्ग ने विदेश में स्थित फर्जी कंपनियों के माध्यम से शेयर सौदों में और खातों में हेराफेरी को लेकर उठाए हैं। ये आरोप 15 साल पुराने सत्यम कंप्यूटर घोटाले और उससे भी पुराने एनरान घोटाले की याद भी दिलाते हैं। देश की कारोबारी व्यवस्था की साख बनाए रखने के लिए इनकी गहन पड़ताल जरूरी है। इसमें कोई दोराय नहीं कि हिंडनबर्ग कोई भारत-मित्र नहीं है। वह एक सट्टेबाज कंपनी है जो तेज तरक्की की रफ्तार पर सवार कंपनियों की आसमान छूती कीमतों और प्रबंधकीय गडबड़ियों का भय फैलाकर पैसे बनाती है। उसकी रिपोर्ट से भारत के निवेशकों को लगभग दस लाख करोड़ की चपत लग चुकी है। बहुत संभव है कि उसकी आड़ में तीर कोई और चला रहा हो, परंतु उसने सवाल वही उठाए हैं जिन्हें भारत में बहुत पहले उठाया जाना चाहिए था।

अदाणी समूह पर हिंडनबर्ग के हमले ने जो सबसे चिंताजनक बात उजागर की है वह है समाज में कारोबारियों और उद्यमियों के विरुद्ध फैली संदेह, ईर्ष्या और द्रोह की भावना जो देश की उन्नति में सहायक नहीं है। यूरोप और अमेरिका में भी कारोबारी घोटालों का लंबा इतिहास है। फिर भी वहां उद्यम-कारोबार को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, क्योंकि उद्यमी अपने साथ-साथ कई दूसरों को काम देकर उनकी भी उन्नति का जरिया बनते हैं। लोग उद्यमी-कारोबारी को उन्नति करता देख खुद भी वैसी सफलता हासिल करने की सोचते हैं। उन्हें लुटेरा और शोषक मानकर उनसे ईर्ष्या नहीं करते। भारतीय समाज में भी उद्यम-कारोबार का वैसा ही आदर होता था, लेकिन अब नहीं। इसका एक कारण आर्थिक विषमता हो सकती है, परंतु वह तो यूरोप और अमेरिका में भी है। पिछली सदी के छठे और सातवें दशक की फिल्मों का भी उद्यमियों की नकारात्मक छवि बनाने में योगदान रहा है। आजकल राजनीतिक नारेबाजी उसकी भूमिका निभा रही है। वस्तुत:, अपनी उन्नति के लिए हमें उद्यमों-कारोबारों के लिए वैसी भावना बहाल करने की जरूरत है जिसकी पैरवी गांधीजी ने ‘मेरा समाजवाद’ में की थी।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)