उतार पर सत्ता विरोधी राजनीति का दौर, एक नई दास्तान बयान कर रहे पूर्वोत्तर के चुनावी नतीजे
भाजपा की लगातार दूसरी जीत से स्पष्ट संदेश है कि कांग्रेस और माकपा शासन से त्रिपुरा के लोगों ने तौबा कर ली है। मतदाता पीछे मुड़कर देखने को तैयार नहीं है। उसे भाजपा की गवर्नेंस में अपना भविष्य नजर आता है।
प्रदीप सिंह : हर चुनाव अपने नतीजों से एक राजनीतिक संदेश देता है। यह राजनीतिक दलों और उसके नेताओं पर निर्भर करता है कि वे इसे किस रूप में ग्रहण करते हैं। अक्सर हारने वाली पार्टी को जनादेश पर संदेह होता है। नेता कहते तो हैं कि जनता-जनार्दन का आदेश सिर माथे पर, लेकिन सिर माथे पर लेना तो दूर, नतीजा गले के नीचे भी नहीं उतरता। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों का एक साफ संदेश है कि सत्ता विरोधी (एंटी इनकंबेंसी) राजनीति का दौर उतार पर है। मतदाता अब सत्तारूढ़ दल को एक और मौका देने को तैयार है।
तीन राज्यों, त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के चुनाव में त्रिपुरा के चुनाव का राजनीतिक महत्व इसलिए ज्यादा है, क्योंकि यहां कई मुद्दे एक साथ कसौटी पर थे। पहला, क्या वाम और दक्षिण की विचारधारा की लड़ाई में भाजपा अपनी जीत दोहरा सकती है। दूसरा, क्या माकपा और कांग्रेस का गठबंधन विपक्षी एकता का कोई रास्ता खोलेगा? तीसरा, राज्य के चुनावी मैदान में आई नई पार्टी टिपरा मोथा को जनसमर्थन मिलेगा या नहीं? चौथा, राज्य का विभाजन कर एक अलग आदिवासी राज्य बनाने के मुद्दे पर मतदाता की क्या राय है? चुनाव नतीजों ने इन सभी मुद्दों पर स्पष्ट जनादेश दिया।
भाजपा की लगातार दूसरी जीत से स्पष्ट संदेश है कि कांग्रेस और माकपा शासन से त्रिपुरा के लोगों ने तौबा कर ली है। मतदाता पीछे मुड़कर देखने को तैयार नहीं है। उसे भाजपा की गवर्नेंस में अपना भविष्य नजर आता है। भाजपा के खिलाफ सीधी वैचारिक लड़ाई के स्तर पर वाम दलों को तीसरी बार मात मिली। पहली बार, 2018 में त्रिपुरा में, जब भाजपा शून्य से 36 सीटों पर पहुंची और माकपा को सत्ता से बाहर किया। दूसरी बार, 2021 में बंगाल में वाम दलों को शून्य पर पहुंचा दिया। तीसरी बार इस चुनाव में माकपा की सीटें और मत प्रतिशत, दोनों को घटाकर।
कांग्रेस और माकपा का गठबंधन बंगाल के बाद त्रिपुरा में भी असफल रहा। यदि यहां सफलता मिलती तो विपक्षी एकता का नया माडल बनाने की कोशिश होती। इसके साथ ही भाजपा के पराभव की कहानी लिखी जाने लगती, पर नतीजों ने विपक्षी एकता के इस नए प्रयास को गहरा धक्का पहुंचाया। विपक्षी एकता का रास्ता खुलने के बजाय और मजबूती से बंद हो गया। त्रिपुरा की नई पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया है। प्रद्योत देवबर्मन की पार्टी कुछ ही महीने पुरानी है और उसका मुकाबला उन दो पार्टियों के गठबंधन से था, जो चार दशक से ज्यादा समय तक इस प्रदेश पर राज कर चुकी हैं। यह प्रदर्शन यही बताता है कि जमीन से जुड़ने और जमीन से कटे होने का क्या नतीजा होता है। कम से कम त्रिपुरा में कांग्रेस और माकपा, दोनों ही जमीन से कटी हुई पार्टियां हैं।
यह बात राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता का सपना संजोने वाली कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों के लिए बुरी खबर है। राज्य का विभाजन कर एक नया राज्य बनाने के मुद्दे पर दोनों पार्टियों ने डंके की चोट पर अपनी राय मतदाता के सामने रखी। टिपरा मोथा का कहना था कि अलग राज्य से कम कुछ नहीं। तो भाजपा का कहना था कि राज्य का विभाजन किसी कीमत पर नहीं। मतदाता ने टिपरा मोथा की मांग से सहानुभूति तो जताई, पर समर्थन नहीं किया। लोगों ने माना कि इस नई पार्टी को आदिवासी समाज के हितों की चिंता है, पर भाजपा को उसने ज्यादा जिम्मेदार पार्टी के रूप में देखा और प्रदेश की एकता के पक्ष में फैसला सुनाया।
नगालैंड में एनडीपीपी और भाजपा का गठबंधन स्पष्ट बहुमत के साथ लौट आया है। मेघालय में पिछली बार की तरह ही त्रिशंकु विधानसभा आई। संभावना है कि कोनराड संगमा की एनपीपी और भाजपा की सरकार फिर से बने। पूर्वोत्तर के इन तीन राज्यों के नतीजों का राष्ट्रीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? विधानसभा चुनाव के नतीजों का लोकसभा चुनाव से कोई सीधा नाता नहीं होता। याद कीजिए 2018, जब भाजपा राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश हार गई थी और कर्नाटक में बहुमत से दूर रह गई थी। इसके चलते 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार की भविष्यवाणी की जाने लगी थी, पर कुछ ही महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में इन प्रदेशों में उसकी आंधी चली। इसके बावजूद चुनाव नतीजों का अलग-अलग दल अपनी तरह विश्लेषण करते हैं। जीतने वाला इसके इर्दगिर्द एक विमर्श गढ़ता है। इस बार भी होगा। जो हार जाता है, वह इन नतीजों को ज्यादा महत्व नहीं देने की वकालत करता है। फिर भी हर चुनाव नतीजा कुछ कहता है।
तीन राज्यों के चुनाव नतीजों ने एक बार फिर इस अवधारणा को पुष्ट किया कि विकास के काम से भी चुनाव जीता जा सकता है। पूरे पूर्वोत्तर में राजनीतिक स्थायित्व के पीछे विकास की तेज हुई गति का सबसे बड़ा योगदान है। प्रधानमंत्री मोदी ने विकास को चुनावी राजनीति की मुख्यधारा में शामिल करा दिया है। चुनाव नतीजों ने धार्मिक फतवों की राजनीति को भी धक्का पहुंचाया है। नगालैंड में चर्च की ओर से भाजपा और एनडीपीपी का नाम लिए बिना इन्हें वोट न देने की अपील जारी की गई, पर मतदाता ने उसे अनसुना कर दिया।
मेघालय में भाजपा की दो कोशिशें विफल रहीं। पहली, ईसाई समुदाय में पैठ बनाने की और दूसरी, वंशवादी राजनीति के विरुद्ध आक्रामक मुहिम की। राज्य में भाजपा को सभी सीटें लड़ने और गठबंधन से बाहर निकलने का तात्कालिक फायदा नहीं मिला। बढ़े हुए मत प्रतिशत का लाभ भविष्य में मिल सकता है। कुल मिलाकर पूर्वोत्तर के लिए चुनाव नतीजे बहुत सकारात्मक हैं। ये इस क्षेत्र में सकारात्मक राजनीति का संदेश देते हैं। ये नतीजे पूरे पूर्वोत्तर में भाजपा की मजबूत पकड़ को भी दिखाते हैं। सात राज्यों में से चार-असम, अरुणाचल, मणिपुर और त्रिपुरा में उसका अपना मुख्यमंत्री है। दो राज्यों नगालैंड और मेघालय में गठबंधन की सरकार होगी। ये नतीजे पूर्वोत्तर से कांग्रेस की विदाई की भी मुनादी करते हैं। कांग्रेस अब भाजपा तो क्या, क्षेत्रीय दलों से भी मुकाबला करने की स्थिति में नहीं रह गई है। पूर्वोत्तर की राजनीति भाजपा के राजनीतिक उत्थान और कांग्रेस के पतन की दास्तान बयान कर रही है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)