दोराहे पर खड़ा अमेरिका: ट्रंप पर हमला निंदनीय, राजनीति में फैल रहे बैरभाव पर चिंतन जरूरी
अमेरिका को इस समय इस तरह के कई प्रश्नों के उत्तर खोजने हैं। वहीं यूरोपीय देशों चीन और भारत को एक बार फिर ट्रंप की अप्रत्याशित नीतियों के लिए कमर कसनी है क्योंकि हमले के बाद उनके जीतने की संभावना प्रबल हो गई है। भारत समेत हर लोकतांत्रिक देश को अपने यहां राजनीति में बढ़ते बैरभाव के प्रभावों से निपटने के बारे में गंभीरता से सोचना होगा।
शिवकांत शर्मा। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर हुए जानलेवा हमले ने अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया को राजनीति में फैल रहे बैरभाव पर सोचने को विवश किया है। गोली निशाने पर लग जाती तो कटुता के इस माहौल में क्या हो सकता था, इसकी कल्पना करना भी भयावह है। इसीलिए राष्ट्रपति जो बाइडन ने हमले की कड़ी निंदा की और लोगों से हिंसक बयानबाजी रोकने की अपील की।
ट्रंप ने भी हमले के बाद कहा कि वह अपनी रिपब्लिकन पार्टी के महाधिवेशन के भाषण में देश से एकजुट होने की अपील करेंगे। दोनों पार्टियों के प्रमुख नेता, राजनीतिक पंडित और मीडिया सभी इस समय समझदारी की बातें कर रहे हैं और लोगों को याद दिला रहे हैं कि लोकतंत्र और हिंसा साथ-साथ नहीं रह सकते।
दोनों एक-दूसरे का विलोम हैं। ट्रंप पर हमले की दुनिया भर के नेताओं ने एक स्वर में निंदा की है। भारत में भी प्रधानमंत्री मोदी और प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी ने हमले की कड़ी निंदा की है, लेकिन हकीकत यह है कि अमेरिका और भारत, दोनों ही लोकतंत्रों की राजनीति में हिंसा की जड़ें बहुत गहरी और पुरानी हैं।
अमेरिका में जब-जब सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर आपसी विरोध बढ़ा, तब-तब राजनीतिक हत्याएं और दंगे-फसाद हुए हैं। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में देश जब दासता उन्मूलन के मुद्दे पर उत्तर और दक्षिण में बंट गया था, तब दासता उन्मूलन के पक्षधर राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की हत्या हुई। पिछली सदी के सातवें दशक में जब नागरिक अधिकार आंदोलन को लेकर आपसी मतभेद बढ़े, तब राष्ट्रपति जान कैनेडी, सीनेटर रोबर्ट कैनेडी तथा मार्टिन लूथर किंग की हत्याएं हुईं।
पिछली सदी के आठवें दशक में वियतनाम युद्ध को लेकर फैली वैचारिक कटुता के बीच दो बार राष्ट्रपति जेरल्ड फोर्ड पर जानलेवा हमले हुए और 1981 में आर्थिक संकट को लेकर फैली कड़वाहट के बीच राष्ट्रपति रीगन पर हमला हुआ। विडंबना यह है कि दुनिया में सबसे अच्छी आर्थिक और सामरिक स्थिति के बावजूद अमेरिका इस समय सबसे गंभीर वैचारिक और राजनीतिक संकट के दौर में है। उसकी अर्थव्यवस्था कोविड की मार के बाद से सबसे शक्तिशाली होकर उभरी है। बेरोजगारी न्यूनतम बिंदु पर है।
महंगाई काबू में आ रही है। ब्याज दरें घटने वाली हैं। चीन की कोशिश के बावजूद डालर और अमेरिकी कंपनियों का वर्चस्व कायम है, फिर भी आधी अमेरिकी जनता को पट्टी पढ़ा दी गई है कि उनका देश तीसरी दुनिया का देश बन चुका है। रिपब्लिकन पार्टी के ट्रंप समर्थकों को लगता है कि बाइडन सरकार देश के दरवाजे अपराधी और पागल आप्रवासियों की भीड़ के लिए खोलकर उनकी संस्कृति और मूल्य नष्ट करने पर तुली है।
डेमोक्रेटिक पार्टी को वे उस डीप स्टेट या नौकरशाही तंत्र का हिस्सा मानते हैं, जो जलवायु परिवर्तन रोकने के नाम पर टैक्स बढ़ाकर देश को बर्बाद करना चाहता है। दूसरी ओर बाइडन की डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों को लगता है कि ट्रंप की जीत लोकतंत्र को खत्म कर तानाशाही ला देगी और ट्रंप के चुने जाते ही अमेरिका में कयामत आ जाएगी।
ट्रंप अपने विरोधियों को कीड़े-मकोड़े कहते हैं, जबकि बाइडन ट्रंप को फासी, तानाशाह और अपराधी कहते हैं। लोकतंत्र में विरोधी बयानबाजी कोई नई बात नहीं है, पर अमेरिका की समस्या यह है कि वहां गनसंख्या जनसंख्या से भी अधिक है। एक आम वयस्क नागरिक आत्मरक्षा के लिए सुपर बाजार से गन खरीद सकता है।
अमेरिका में मानसिक बीमारों की संख्या भी बढ़ रही है। ऐसे सामाजिक परिवेश में इंटरनेट मीडिया पर विरोधियों का दानवीकरण कच्चे मानसिक संतुलन वाले लोगों को राजनीतिक हिंसा के लिए प्रेरित कर सकता है और कर रहा है। ट्रंप पर हमला करने वाला टामस मैथ्यू क्रुक्स इसी की मिसाल है।
अमेरिका के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राजनेता और उनके समर्थक इस घटना से सबक लेकर दूसरे का दानवीकरण करने और हिंसा उकसाने वाली बयानबाजी से बाज आने को तैयार हैं? ट्रंप और उनके समर्थक अभी तो देश जोड़ने की बात कर रहे हैं, लेकिन क्या उन्हें चुनाव प्रचार में चरितार्थ कर पाएंगे? चुनाव प्रचार की दिशा इस समय ट्रंप के हाथों में है।
बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि रिपब्लिकन पार्टी अधिवेशन में अपनी उम्मीदवारी स्वीकार करते हुए ट्रंप किस अंदाज में क्या कहेंगे? हिंसा उकसाने के मामले में सबसे अधिक अंगुलियां उन्हीं पर उठती रही हैं। ऐसी कुछ घटनाओं को बाइडन ने गिनाया भी, जैसे लोगों को अमेरिकी संसद पर धावा बोलने और अमेरिकी कांग्रेस की पूर्व सभापति नैन्सी पेलोसी के घर में घुस कर उनके पति पर हमले के लिए या फिर मिशिगन की गवर्नर के अपहरण के लिए उकसाना।
हमले के कारण इस समय ट्रंप की लोकप्रियता उछाल पर है, परंतु हमले के बाद रीगन की लोकप्रियता में आए उछाल की तरह वह कुछ हफ्तों में नीचे आ सकती है। उस सूरत में ट्रंप और उनके समर्थक कितना संयम बरतेंगे? दूसरी तरफ बाइडन और उनके समर्थक लोकप्रियता में ट्रंप से पिछड़ने के कारण भारी दबाव हैं। ऐसे में क्या वे नफरती बयानबाजी से वोट पाने के लोभ का संवरण कर पाएंगे? अभी तो अमेरिकी मीडिया में संयम भरे संपादकीय छप रहे हैं, पर क्या यह संयम चुनाव प्रचार की गर्मी झेल पाएगा?
अमेरिका को इस समय इस तरह के कई प्रश्नों के उत्तर खोजने हैं। वहीं यूरोपीय देशों, चीन और भारत को एक बार फिर ट्रंप की अप्रत्याशित नीतियों के लिए कमर कसनी है, क्योंकि हमले के बाद उनके जीतने की संभावना प्रबल हो गई है। भारत समेत हर लोकतांत्रिक देश को अपने यहां राजनीति में बढ़ते बैरभाव और हिंसा तथा इंटरनेट मीडिया के जरिये फैलती उसकी गूंज के प्रभावों से निपटने के बारे में गंभीरता से सोचना होगा।
शिकागो यूनिवर्सिटी की एक शोध संस्था शिकागो प्रोजेक्ट के हाल के सर्वेक्षण से पता चला है कि अमेरिका के दस प्रतिशत लोगों ने ट्रंप को सत्ता में आने से रोकने और सात प्रतिशत ने उन्हें सत्ता में लाने के लिए बलप्रयोग को सही ठहराया। लोकतंत्र में मनचाही सत्ता के लिए वोट की जगह लाठी के प्रति बढ़ता लोगों का यह विश्वास खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रहरी मानने वाले अमेरिका के लिए ही नहीं, हर लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)