जागरण संपादकीय: अब भी जारी है विभाजन की विभीषिका, बांग्लादेश में तख्तापलट से विभाजन का डर
आज यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि भारत के विभाजन ने मानवता की ही नहीं बल्कि भारत के विचारों की भी हत्या की थी । किसी दुर्घटना का मानवीय चेतना की अंतिम गहराई पर चले जाना मानव मन की गंभीर विकृति का प्रतीक है। यह भारत का महत्वपूर्ण पक्ष है कि हम उस घटना को भूले नहीं हैं ।
नीरजा माधव। भारत के त्रासद विभाजन का स्मरण करने के लिए 14 अगस्त को जब विभाजन विभीषिका दिवस मनाने की पहल हुई थी तो कुछ लोगों की ओर से उसका यह कहकर विरोध किया गया था कि बंटवारे के इतने वर्षों बाद इसका कोई औचित्य नहीं और उस त्रासदी को भूलकर आगे बढ़ने का वक्त है, लेकिन बांग्लादेश की घटनाएं यह बता रही हैं कि विभाजन के दंश भुलाए नहीं जा सकते।
एक ओर बांग्लादेश के हिंदू दयनीय दशा में हैं और दूसरी ओर पाकिस्तान पोषित आतंकवाद भारत को क्षति पहुंचा रहा है। यह सच है कि हमें अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति 15 अगस्त, 1947 को मिली, परंतु 14 अगस्त, 1947 को भारत विभाजन का दंश एक कभी न भरने वाला घाव दे गया। आज तक उस घाव की टीस हर भारतवासी महसूस कर रहा है। 15 अगस्त भारत के लिए एक सुंदर ऐतिहासिक घटना थी तो 14 अगस्त को भारत विभाजन एक अफसोसनाक दुर्घटना।
विश्व इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ था, जब किसी देश का विभाजन हुआ हो और फिर बड़ी संख्या में उसकी प्रजा की अदला-बदली हुई हो। इससे पहले किसी राष्ट्र पर आक्रमण होता था, वहां सत्ता बदलती थी, साथ ही शासक भी बदलता था। यह सब होता था, परंतु राष्ट्र का विभाजन हुआ हो और फिर प्रजा की अदला-बदली हुई हो, यह पहली बार भारत विभाजन के समय हुआ। इसके लिए भारत ने अपनी भूमि का बंटवारा भी किया और अपने ही लोगों पर अत्याचार होते हुए भी देखा।
हमारे तत्कालीन नेताओं ने उदारता का परिचय देते हुए यह छूट दी कि हिंदुस्तान छोड़कर नए-नए बने पाकिस्तान में जो जाना चाहे, वह जाए और जो नहीं जाना चाहता, वह भारत में भी सुरक्षित रह सकता है। इसके विपरीत भारत भूमि का ही एक टुकड़ा लेकर पाकिस्तान नामक इस्लामिक राष्ट्र घोषित करने वाले कट्टरपंथी नेताओं ने उस भूखंड पर बहुत समय पहले से ही रहते चले आए भारतीयों विशेषकर हिंदुओं और सिखों के साथ मार-काट शुरू कर दी।
सांप्रदायिक मानसिकता और हिंदुओं के प्रति नफरत के चलते ही पाकिस्तान में त्रासदपूर्ण हालात पैदा हो गए। वहां हर वह काम किया गया, जिससे मानवता शर्मसार होती हो। हिंसा का ऐसा नंगा नाच किया गया कि उसकी कल्पना भर करने से सिहरन पैदा होती है। पाकिस्तान में हिंदुओं-सिखों के कत्लेआम के समाचार जब भारत आए तो प्रतिक्रियास्वरूप यहां भी हिंसक घटनाएं हुईं।
पाकिस्तान में रह रहे हिंदुओं और सिखों को मारा गया, उनकी स्त्रियों-बच्चियों के साथ दर्दनाक पापाचार हुए। पुरुषों, स्त्रियों और मासूम बच्चों की हत्या करके उनके शव ट्रेनों में भरकर भारत की ओर रवाना कर दिए गए। इस हिंसक कार्रवाई में जो बचे, उनमें से अनेक भागकर कश्मीर की घाटियों में शरण लिए हुए थे, लेकिन उन्हें भी कबाइली वेश में निशाना बनाते हुए आतंकित किया गया। ऐसे अत्याचारों की एक अंतहीन सूची थी।
इस प्रकार भारत विभाजन के दौरान लाखों भारतीयों का कत्लेआम हुआ। लड़कियों और स्त्रियों की मर्यादा का हनन हुआ। दस्तावेज बताते हैं कि अकेले राजौरी में ही शरण लिए हजारों हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया गया। न तो उनकी ठीक से पहचान हो पाई और न ही उन्हें चिता मिल पाई। उनकी अस्थियों को ट्रकों में भर-भर कर नदियों में विसर्जित कर दिया गया। इस मारकाट में जो बचे रहे, वे शरणार्थी बन भारत भर में अपने रिश्तेदारों या परिचितों के यहां आश्रय लेने को विवश हुए, परंतु उनकी जिजीविषा नहीं हारी।
उन्होंने हालात का डटकर सामना किया। भारत में आकर उन्होंने अपने को फिर से शिखर तक पहुंचाने का पूरा प्रयास किया। इसमें वे सफल भी रहे। आज वे लोग समाज, कला, शिक्षा, राजनीति, आर्थिकी, ज्ञान-विज्ञान और कृषि आदि लगभग सभी क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। भारत के विकास में महती योगदान दे रहे हैं, परंतु अपनी मातृभूमि छोड़ने का दंश आज तक उनके परिवारों में देखने को मिलता है। जब-तब छलक आई आंखों में अपने स्वजनों के मारे जाने की पीड़ा झलकती है।
विभाजन के समय जो हिंदू पाकिस्तान में रहने को अभिशप्त हुए, वहां शोषण और दमन के कारण आज उनकी संख्या लुप्त होने के कगार पर है। पाकिस्तान से अलग हुए बांग्लादेश में भी हिंदुओं की यही स्थिति है। दुख की बात है कि इन दोनों ही इस्लामिक देशों में हिंदुओं की इस घटती संख्या पर वैसी चिंता नहीं की जा रही, जैसी की जानी चाहिए। पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं की संख्या तेजी से घट रही है। भारत में मुसलमानों की बढ़ती संख्या यह बताती है कि वे यहां पाकिस्तान या बांग्लादेश से अधिक सुरक्षित हैं।
आज यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि भारत के विभाजन ने मानवता की ही नहीं, बल्कि भारत के विचारों की भी हत्या की थी। किसी दुर्घटना का मानवीय चेतना की अंतिम गहराई पर चले जाना मानव मन की गंभीर विकृति का प्रतीक है। यह भारत का महत्वपूर्ण पक्ष है कि हम उस घटना को भूले नहीं हैं। सच में नहीं भूलेंगे, तभी हम सांप्रदायिक मानसिकता, उन्माद और आतंकवाद को समझ सकेंगे और जब समझेंगे, तभी उनका समाधान भी ढूंढ़ सकेंगे।
14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाने, जानने और सुनने के पीछे एक उद्देश्य यह भी है कि आगे आने वाली पीढ़ियां समझें कि किस तरह आदमी से आदमी के रिश्ते को सांप्रदायिक उन्माद तब से लेकर आज तक रौंदता आ रहा है। जब नई पीढ़ियां उन्माद और उससे उपजे आतंकवाद को समझेंगी, तभी उनके उन्मूलन का स्थायी मार्ग मिलेगा, तभी विभाजन का सच और विभाजन की व्यर्थता का पता चलेगा और तभी आक्रांताओं के साथ संबंध का ऐतिहासिक झूठ पता चलेगा।
(लेखिका साहित्यकार हैं)