[संजय गुप्त]। राहुल गांधी ने ब्रिटेन की यात्रा के दौरान भारतीय लोकतंत्र को नीचा दिखाने की कोशिश करके यही साबित किया कि उनकी राजनीतिक समझ आज भी वहीं खड़ी है, जहां तब थी, जब उन्होंने अपना राजनीतिक सफर शुरु किया था। राहुल गांधी ने कोई पहली बार विदेश दौरे पर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को नहीं कोसा। वह यह काम इसके पहले भी कर चुके हैं। उनकी समझ से भारत में लोकतंत्र का क्षरण 2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने से शुरू हो गया था और अब वह खत्म हो चुका है। स्पष्ट है कि वह 2014 और फिर 2019 में कांग्रेस की हार को पचा नहीं पा रहे हैं।

कांग्रेस को लोकसभा चुनावों के साथ ही अधिकतर विधानसभा चुनावों में भी हार का सामना तब करना पड़ा, जब राहुल गांधी पार्टी के उपाध्यक्ष और अध्यक्ष थे। वह ऐसे व्यवहार कर रहे हैं, जैसे उन्हें सत्ता से जबरन बाहर कर दिया गया हो। वह जनादेश के साथ अपनी खामियों की भी अनदेखी कर रहे हैं। भले ही उन्होंने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ दिया हो, लेकिन पार्टी उनके सोच के ईर्द-गिर्द घूम रही है। 2014 के बाद से ही उनके भाषणों का यही स्वर रहता है कि मोदी के सत्ता में आने से देश रसातल में जा रहा है। कुछ ऐसा ही स्वर सोनियां गांधी का भी रहता है। वह भी राहुल गांधी की तरह लोकतंत्र और बोलने की आजादी का दमन होता देख रही हैं। जबसे मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं, उनके भी भाषण सोनिया और राहुल जैसे हो गए हैं।

राहुल गांधी यह शिकायत बार-बार कर रहे हैं कि लोकतंत्र की सभी संस्थाओं पर भाजपा और आरएसएस के लोगों का कब्जा हो गया है। वह यह भूल रहे हैं कि जब कांग्रेस सत्ता में थी, तब इन संस्थाओं में उसके लोगों का कब्जा होता था। जैसे कांग्रेस ने सत्ता में रहते समय अपने लोगों को विभिन्न संस्थाओं में बैठाया, वैसे ही भाजपा कर रही है तो इसमें गलत क्या है? यह तो राजनीति का चलन है। सभी दल ऐसा ही करते हैं। ब्रिटेन की यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने इस पर भी अफसोस प्रकट किया कि भारत में लोकतंत्र “खत्म” हो जाने के बाद भी अमेरिका और यूरोप बेपरवाह हैं। वह यह भी चाह रहे हैं कि अमेरिका-यूरोप को भारत में लोकतंत्र बहाल करने के लिए दखल देना चाहिए। यह और कुछ नहीं देश के आंतरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप के लिए निमंत्रण है। इसी कारण यह सवाल उठ रहा है कि क्या उन्होंने सांसद के तौर पर ली गई शपथ का उल्लंघन किया? जो भी हो, यह ध्यान रहे कि आपातकाल के समय किसी विपक्षी दल ने ऐसा नहीं कहा था कि भारत में लोकतंत्र की बहाली के लिए अन्य देशों को हस्तक्षेप करना चाहिए।

राहुल गांधी ने ब्रिटेन दौरे में यह भी कहा कि उनके जैसे नेताओं को न तो शिक्षा संस्थानों में बोलने दिया जाता है और न ही संसद में। सबसे पहले तो यह निरा झूठ है कि उन्हें शिक्षा संस्थाओं में नहीं बोलने दिया जाता। लगता है वह विभिन्न शिक्षा संस्थाओं में दिए गए अपने संबोधनों को भूल गए। जहां तक संसद में बोलने से रोकने की बात है, तो इस झूठ की पोल संसद में उनके रिकार्ड से खुल जाती है। वह संसद में कोई सवाल नहीं पूछते और किसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा का हिस्सा भी मुश्किल से बनते हैं। वह संसद में कितने गंभीर रहते हैं, इसका पता इससे चलता है कि एक बार उन्होंने यह दिखाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को गले लगा लिया था कि वह उनसे नफरत नहीं करते, लेकिन सच यह है कि उनके अधिकतर भाषण मोदी के अंध विरोध का पर्याय होते हैं।

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी कुल मिलाकर मोदी के विरोध में ही बोलते रहे। इस यात्रा के दौरान वह कोई नया विचार रखने के बजाय वही बातें दोहराते रहे, जो वह पहले न जाने कितनी बार कर चुके हैं। उनका यह जुमला बार-बार सुनने को मिलता है कि मोदी सरकार चंद उद्योगपतियों के हितों की रक्षा कर रही है। अंबानी-अदाणी का नाम लेकर वह न केवल उद्योगपतियों को कोसते हैं, बल्कि मोदी को भी। भले ही राहुल गांधी यह कहें कि भारत जोड़ो यात्रा से उनकी राजनीतिक समझ बढ़ी है और वह भारत को बेहतर तरीके समझने लगे हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं।

राहुल गांधी कुछ भी कहें, मोदी के नेतृत्व में भारत की साख बढ़ी है। सभी प्रमुख देश भारत का साथ लेना पसंद कर रहे हैं। भारत का सुरक्षा परिषद मे स्थाई सदस्यता का दावा मजबूत हो रहा है। जैस-जैसे भारत का अंतरराष्ट्रीय कद बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे भारत विरोधी शक्तियां भी सक्रिय होती चली जा रही हैं। कुछ समय पहले आई बीबीसी की डाक्यूमेंट्री मोदी के साथ भारत को नीचा दिखाने की कोशिश ही थी। इस डाक्यूमेंट्री के बाद अमेरिकी निवेशक जार्ज सोरोस का यह बयान आया कि अदाणी समूह को लेकर आई हिंडनबर्ग की रिपोर्ट भारत में लोकतंत्र को “स्थापित” करने में मदद करेगी। क्या यह महज एक दुर्योग है कि सोरोस ने कुछ वैसी ही बात कही, जैसी राहुल गांधी ने की?

भारत में जैसे-जैसे आम चुनाव निकट आ रहे हैं, वैसे-वैसे कुछ पश्चिमी देशों में खालिस्तानियों की हरकतें भी बढ़ती जा रही हैं। प्रश्न उठता है कि कांग्रेस भारत को नीचा दिखाने वाला विमर्श खड़ा कर क्या हासिल करना चाहती है? कहीं कांग्रेस जाने-अनजाने उन ताकतों की सहायक तो नहीं बन रही, जो भारत का हित नहीं चाहतीं? आखिर राहुल गांधी की ब्रिटेन यात्रा को कौन प्रायोजित कर रहा है? इन सवालों का जवाब जो भी हो, कांग्रेस को यह पता होना चाहिए कि मोदी पर अनावश्यक हमले करने से उसे कोई लाभ नहीं हो रहा है। इसका प्रमाण हाल के तीन राज्यों के चुनाव परिणाम हैं। राहुल गांधी ने जो विमर्श विदेश में खड़ा किया, उसे यदि भाजपा अपने पक्ष में भुनाने में जुट गई है तो इसीलिए, क्योंकि औसत भारतीय यह पसंद नहीं करेगा कि हमारे नेता विदेश जाकर भारत को नीचा दिखाने का काम करें। इसमें संदेह है कि राहुल गांधी के ब्रिटेन में दिए गए भाषणों से आम कांग्रेसी उत्साहित हुआ होगा।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]