राहुल वर्मा। विधानसभा चुनावों के बाद पांचों राज्यों में नए मुख्यमंत्रियों ने कमान भी संभाल ली है। सत्ता परिवर्तन की इस कवायद में सबसे ज्यादा चर्चा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की है। भाजपा ने इन राज्यों में जोरदार जीत के बाद नए चेहरों को सत्ता के शीर्ष पर स्थापित कर राजनीतिक पंडितों से लेकर अपने समर्थकों को भी हतप्रभ कर दिया।

राजस्थान और छत्तीसगढ़ को लेकर तो तय लग रहा था कि पार्टी अब वहां वसुंधरा राजे और रमन सिंह से परे नए विकल्प को प्रोन्नत करने का मन बना चुकी है, लेकिन मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में मिली बड़ी जीत के बाद थोड़ी उम्मीद जरूर बची थी कि राज्य की बागडोर शायद उनके हाथ में बनी रहे। हालांकि इन सभी अनुमानों को ध्वस्त करते हुए भाजपा आलाकमान ने मध्य प्रदेश में भी नए मुख्यमंत्री की ताजपोशी कर दी। इसके साथ ही भाजपा की राजनीति में अटल-आडवाणी युग वाले सभी मुख्यमंत्रियों की विदाई हो चुकी है।

भाजपा की राजनीतिक सफलता में उसकी सोशल इंजीनियरिंग की प्रभावी भूमिका रही है। झारखंड में गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने से कोई खास फायदा नहीं हुआ तो उससे सीख लेते हुए भाजपा ने छत्तीसगढ़ में जोखिम लेना उचित नहीं समझा। पार्टी ने आदिवासी समुदाय से आने वाले विष्णु देव साय को मुख्यमंत्री बनाया, ओबीसी वर्ग के अरुण साव और अगड़ी जातियों से विजय शर्मा को उप-मुख्यमंत्री बनाया।

इसी तरह मध्य प्रदेश में ओबीसी वर्ग के डा. मोहन यादव को मुख्यमंत्री तो दलित समाज के जगदीश देवड़ा और ब्राह्मण राजेंद्र शुक्ला उनके नायब बने। जातीय समीकरणों के दृष्टिकोण से बेहद जटिल राजस्थान को भाजपा के माध्यम से तीन दशक बाद भजनलाल शर्मा के रूप में पहले ब्राह्मण मुख्यमंत्री मिले। यहां राजपूत समाज की दीया कुमारी और राज्य में पार्टी के दलित चेहरे प्रेमचंद बैरवा को उप-मुख्यमंत्री बनाकर सोशल इंजीनियरिंग को साधने का प्रयास किया गया। इस मोर्चे पर बची-खुची कसर इन राज्यों में मंत्रिमंडल गठन और विभागों के बंटवारे में देखने को मिल सकती है।

जातीय समीकरणों के अलावा नए चेहरों के चयन में भाजपा ने विचारधारा और सांगठनिक कौशल जैसे पहलुओं को प्राथमिकता दी है। साफ-सुथरी छवि के साथ ही शायद इस पर भी ध्यान दिया गया कि कोई विवादों या भ्रष्टाचार के आरोपों से तो नहीं जूझ रहा है। इस चयन में राजनीतिक विरासत, अनुभव और नए नेतृत्व को निखारने की कड़ियां भी जुड़ी हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री साय के दादा और चाचा राजनीति में सक्रिय रहे हैं। वह खुद दो बार विधायक और चार बार सांसद रहने के साथ ही मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में राज्यमंत्री का दायित्व संभाल चुके हैं।

मध्य प्रदेश के मोहन यादव पूर्व में दो बार विधायक और राज्य सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल चुके हैं। राजस्थान के भजनलाल शर्मा जरूर पहली बार विधायक बने हैं, लेकिन लंबे समय से संगठन में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने संगठन में अपनी उपयोगिता सिद्ध करके ही पार्टी के शीर्ष नेताओं का भरोसा जीता है। तमाम दिग्गजों को दरकिनार करते हुए पार्टी ने उन्हें प्रमुखता दी। इन तीनों में एक समानता यह भी है कि इन सभी का भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ाव रहा है। इसका अर्थ है कि ये संघ-भाजपा की वैचारिकी में गहराई से ढले हैं।

राजनीतिक हलकों में यह चर्चा बहुत आम है कि ये तीनों चेहरे बहुत लोकप्रिय नहीं हैं और उनकी ताजपोशी के पीछे एक कारण यह भी है कि मोदी और शाह ऐसे मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, जो उनकी छत्रछाया में उनके हिसाब से काम कर सकें। जानकार इसे लोकसभा चुनाव की तैयारी से भी जोड़कर देख रहे हैं, क्योंकि अपने वरदहस्त मुख्यमंत्रियों के साथ मोदी और शाह के लिए चुनावी प्रबंधन कहीं अधिक सुगम होगा। वे केंद्र की उन योजनाओं को भी कहीं बेहतर तरीके से लागू कर सकेंगे, जिन पर सत्ता में वापसी के लिए मोदी ने बड़ी राजनीतिक पूंजी दांव पर लगाई है।

नए चेहरों के माध्यम से कई अन्य संदेश भी दिए गए हैं। पहला तो यही कि भाजपा किसी भी कर्मठ कार्यकर्ता को शीर्ष पद से नवाज सकती है। संघ और भाजपा का सोच है कि वे अपनी विचारधारा की शक्ति से नया नेतृत्व गढ़ने में सक्षम हैं। भाजपा में पहले भी ऐसा होता आया है। नरेन्द्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान जैसे नेता इसके बड़े उदाहरण हैं। मोदी ने 2001 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा था। उससे पहले वह पार्टी के बहुत चर्चित चेहरे नहीं थे। गुजरात भाजपा के दिग्गजों के बीच तन्मयता से अपना काम करते रहे और एक समय तो ऐसा भी आया कि उन्हें राज्य से राजनीतिक निर्वासन तक झेलना पड़ा। मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपना गुजरात माडल गढ़कर राष्ट्रीय राजनीति को एक अलग ही दिशा दी।

इसी तरह मध्य प्रदेश में विजयराजे सिंधिया और उमा भारती के अलावा नरेंद्र सिंह तोमर जैसे दिग्गजों के बीच शिवराज सिंह ने अपनी जगह बनाई और मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य को बीमारू प्रदेशों की सूची से मुक्त कराया। यह सही है कि नए मुख्यमंत्रियों से ऐसी कोई अपेक्षा जल्दबाजी होगी कि वे भी मोदी या शिवराज की तर्ज पर सफलता के नए प्रतिमान गढ़ सकें, लेकिन यह तो तय है कि उन्हें अवसर देकर भाजपा ने विपक्ष को सोचने पर मजबूर कर दिया है, जिसके पास ऐसे साहसिक एवं जोखिम भरे फैसले करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है।

वर्ष 2018 में कांग्रेस के पास चुनाव वाले उपरोक्त तीन राज्यों में पीढ़ीगत नेतृत्व परिवर्तन का एक अवसर आया था, लेकिन वह उसे मूर्त रूप नहीं दे सकी। अब जब इन राज्यों में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा है. तब आइएनडीआइए के सहयोगी दलों की बैठक में उसे नए सिरे से शुरुआत करने के लिए तत्पर होना पड़ेगा।

विष्णु देव साय,मोहन यादव और भजनलाल शर्मा के समक्ष तात्कालिक चुनौती लोकसभा चुनावों की होगी, क्योंकि इन तीनों राज्यों में लोकसभा की 65 सीटें दांव पर लगी हैं। चूंकि पिछले लोकसभा चुनाव में यहां भाजपा का प्रदर्शन बहुत दमदार था तो सत्ता में वापसी के लिए उसे दोहराना आवश्यक होगा। विशेषकर कर्नाटक को छोड़कर शेष दक्षिण में पार्टी की सीमित राजनीतिक सफलता को देखते हुए भाजपा के नजरिये से हिंदी पट्टी में अपने विजय रथ को गति देना और जरूरी हो गया है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)