हर्ष वी. पंत। बीते कुछ दिनों के दौरान ब्रिटेन के तमाम हिस्सों में बड़े पैमाने पर दंगे भड़क गए। दंगों की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन पर काबू पाने में करीब सप्ताह भर का समय लग गया। सैकड़ों लोगों की गिरफ्तारी और तमाम कड़े कदम उठाने के बावजूद स्थिति अभी भी नाजुक बनी हुई है। पता नहीं कहां विवाद की छोटी सी चिंगारी किसी विकराल दंगे का रूप धारण कर ले। हालिया प्रकरण 29 जुलाई को एक नृत्य कार्यक्रम के बाद शुरू हुआ। उत्तरी इंग्लैंड के साउथपोर्ट में आयोजित इस कार्यक्रम के दौरान तीन बच्चियों की हत्या कर दी गई। जबकि कुछ अन्य घायल हो गए। हमलावर के बारे में इंटरनेट मीडिया पर यह अफवाह उड़ी कि वह मुस्लिम समुदाय से जुड़ा है, जो ब्रिटेन में शरण पाने वाला एक अप्रवासी है। इसके बाद मुस्लिम समुदाय और अप्रवासी स्थानीय लोगों के निशाने पर आ गए। हालांकि बाद में यह स्पष्ट हुआ कि 17 वर्षीय मुख्य हमलावर एक्सल रुदाकुबाना वेल्स में ही पैदा हुआ है, जिसके माता-पिता रवांडा से ब्रिटेन आए थे। जब तक तस्वीर साफ होती, उससे पहले ही लोगों ने साउथपोर्ट में एक मस्जिद को निशाना बनाने का प्रयास किया।

हमलावर भले ही पकड़ लिया गया हो, मगर इस मामले ने ब्रिटिश लोगों को भड़का दिया। आक्रोशित भीड़ ने रादरम में उस होटल पर भी हमला बोला, जिसमें राजनीतिक शरण मांगने वालों को रखा जाता है। इतना ही नहीं, लिवरपूल, ब्रिस्टल, मैनचेस्टर और ब्लैकपूल में भी हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए। ऐसे करीब 20 वाकयों में कुछ पुलिसकर्मी भी घायल हो गए। इस प्रकार के हिंसक प्रदर्शन भले ही एक तात्कालिक प्रतिक्रिया हों, लेकिन इसकी सुगबुगाहट ब्रिटिश समाज में काफी पहले से महसूस की जा रही थी। यही कारण है कि सरकार संवेदनशील वर्गों को लेकर सक्रिय हुई है। मिसाल के तौर पर अप्रवासी मामलों को देखने वाले वकीलों की सुरक्षा को लेकर भी उठते सवालों पर ध्यान दिया जा रहा है। देखा जाए तो सतही तौर पर कानून एवं व्यवस्था से संबंधित दिखने वाले इस मामले की जड़ें अप्रवास विरोध और ब्रिटिश समाज में गहराती विभाजक रेखाओं से जुड़ी हैं। आने वाले दिनों में इसके और घातक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।

अप्रवासियों को लेकर ब्रिटेन में पिछले कुछ समय से असंतोष बढ़ रहा है। तमाम ब्रिटिश नागरिक ऐसा सोचते हैं कि अप्रवासियों की बढ़ती संख्या के चलते हाउसिंग, शिक्षा, और स्वास्थ्य से जुड़ी सरकारी कल्याणकारी योजनाओं में उनके हितों में सेंधमारी हो रही है। उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से अलग होने वाले ब्रेक्जिट अभियान को भी इसी पहलू के चलते सफलता मिली थी कि इससे अप्रवासियों पर अंकुश लगाने के साथ नीति-निर्माण में ब्रिटिश स्वायत्तता बढ़ेगी। हालांकि कंजरवेटिव पार्टी ने अप्रवासियों के चलते पनप रहे असंतोष पर काबू पाने के लिए कुछ उपाय जरूर किए, लेकिन लगता नहीं कि ब्रिटिश जनता उन उपायों से संतुष्ट हुई होगी। हालिया चुनावों में लेबर पार्टी की जीत ने भी इस मामले में उन दक्षिणपंथी समूहों को भावनाएं भड़काने की गुंजाइश दी होगी, जिन्हें ब्रिटिश प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर बीते दिनों हुए दंगों का दोषी ठहरा रहे हैं। ऐसी धारणा है कि लेबर पार्टी अप्रवासियों के प्रति अपेक्षाकृत नरम रवैया रखती है।

प्रधानमंत्री स्टार्मर ने कहा है कि दंगाइयों से निपटने के हरसंभव सख्त उपाय किए जाएंगे, लेकिन दंगों की आग पर काबू पाने में करीब सप्ताह भर का समय लगना अपने आप में काफी कुछ कह देता है। शासन-प्रशासन के स्तर पर आश्वासन के बावूजद हालात इतने बिगड़ गए कि लोगों को अपनी एवं अपने आवास और प्रतिष्ठान की सुरक्षा के लिए निजी स्तर पर भी कदम उठाने पड़ रहे हैं, क्योंकि हिंसा के दौरान तमाम दुकानों एवं प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया गया। स्टार्मर ने जिन धुर दक्षिणपंथी संगठनों को इस हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया है, उनमें इंग्लिश डिफेंस लीग का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है। वर्ष 2009 में अस्तित्व में आया यह संगठन अप्रवासी विरोध विशेषकर इस्लाम के खिलाफ अपने रुख के लिए जाना जाता है। पूर्व में हुई हिंसा में भी इसका नाम आता रहा है। हालांकि यह ऐसा कोई इकलौता संगठन नहीं है। मुख्यधारा की राजनीति में भी यूके रिफार्म पार्टी के नेता नाइजल फराज ने अप्रवासियों और शरणार्थियों की भड़ती भीड़ को हालिया हिंसा के लिए आड़े हाथों लिया। एक समय कंजरवेटिव पार्टी में रहे फराज ने अपनी आक्रामक राजनीति के लिए नए राजनीतिक दल का गठन किया। हालिया चुनावों में उनकी पार्टी को भले ही चार सीटें मिली हों, लेकिन कई सीटों पर वह कंजरवेटिव पार्टी की हार का कारण भी बने। उनके प्रति लामबंद होता समर्थन ब्रिटिश जनता के सोच में आ रहे बदलाव को दर्शाता है, जिसकी समय-समय पर आक्रामक अभिव्यक्ति भी देखने को मिलती रहती है। हाल के दंगे ऐसा ही एक उदाहरण रहे। हालिया दंगे दर्शाते हैं कि ब्रिटिश समाज में निराशा बढ़ रही है। उन्हें अप्रवासियों से अपने अवसरों पर आघात के साथ ही अपनी मूल सांस्कृतिक पहचान पर संकट भी दिख रहा है। चूंकि मुस्लिम समुदाय भी अपने प्रतीकों को लेकर खासा मुखर रहता है तो उसके साथ टकराव कुछ ज्यादा बढ़ रहा है।

दंगों के बाद प्रधानमंत्री स्टार्मर ने ऐसा आश्वासन दिया कि यह जिनका भी किया-धरा है, उन्हें इसकी सजा जरूर भुगतनी होगी। कानून उन पर अपना शिकंजा कसेगा। कई मामलों में दंगाइयों पर ऐसी धाराएं भी लगाई गई हैं, जो आतंकी मामलों में लगाई जाती हैं। इंटरनेट मीडिया के जरिये फर्जी सूचनाओं के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए भी कमर कसी गई है। इस सबके बावजूद कुछ सवाल जरूर उठते हैं। पहला यही कि क्या यह एक तात्कालिक आक्रामक प्रतिक्रिया थी या फिर ब्रिटेन में यह एक नया सिलसिला शुरू हो गया है, क्योंकि वहां अब समय-समय पर दंगे भड़कते रहते हैं। इससे पूर्व भी दो साल पहले लेस्टर में दंगे भड़के थे। दूसरा सवाल यह कि दुनिया को लोकतांत्रिक मूल्यों पर उपदेश देने वाला ब्रिटेन अपना ही घर दुरुस्त क्यों नहीं रख पा रहा है? जो भी हो, इन दंगों ने ब्रिटेन की साख चोट करने के साथ ही उसके पराभव के भी संकेत दिए हैं।

(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)