भारतीय लोकतंत्र को लांछित करने का अभियान, मनगढ़ंत आरोप लगाना एक सुनियोजित षड्यंत्र
विश्व के प्रत्येक लोकतंत्र में त्रुटियां होती हैं और कोई भी देश दोषहीन नहीं हो सकता। भारत में भी चुनावी प्रक्रिया एवं शासन व्यवस्था में लगातार सुधार जरूरी हैं और अभी हमारा लोकतंत्र सर्वाधिक उत्कृष्ट स्तर पर नहीं पहुंचा है लेकिन वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हमारी जो उपलब्धियां हैं उन्हें अनदेखा करके मनगढ़ंत आरोप लगाना और भारत की छवि को मलिन करना एक सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा है।
श्रीराम चौलिया। देश में जारी लोकसभा चुनाव जिस बड़े पैमाने पर आयोजित हो रहे हैं, वह विश्व के सामने एक मिसाल है। दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है, जहां करीब 97 करोड़ मतदाता हों, दो हजार आठ सौ राजनीतिक दल कड़ी प्रतिस्पर्धा में हों, 55 लाख ईवीएम हों, जिनसे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती, साढ़े दस लाख मतदान केंद्र हों, जहां अधिकतर शांतिपूर्वक और बिना धांधली के मतदान हो और चुनाव परिणाम की विश्वसनीयता पर हारने वाले उम्मीदवार अथवा दल भी स्वीकृति देते हों।
इतने बड़े पैमाने पर आज तक इतिहास में कभी भी लोकतांत्रिक स्वेच्छा का प्रदर्शन नहीं देखा गया। अगर इस कीर्तिमान को कोई तोड़ेगा भी तो उस देश का नाम भारत ही होगा। हम ही अपने आप द्वारा स्थापित ऊंचाइयों से ऊपर जाने की सामर्थ्य रखते हैं। विश्व में लोकतंत्र की साख कायम रखने में भारत सबसे प्रबल दायित्व निभा रहा है। हम आज उस कालखंड में हैं, जहां चीन जैसे शक्तिशाली देश में तानाशाही का बोलबाला बढ़ रहा है और अमेरिका जैसा लोकतांत्रिक महारथी राजनीतिक ध्रुवीकरण और आत्मसंदेह में फंसा है।
अगर हम शासन व्यवस्थाओं के वैश्विक संतुलन का जायजा लें तो वह खतरनाक ढंग से तानाशाही के पक्ष में झुक रहा है और फिर भी भारत लोकतंत्र की लौ को जलाए हुए है। मौजूदा लोकसभा चुनाव इसका परिचायक है। दुनिया भर में लोग देख सकते हैं कि तेज गति से आर्थिक प्रगति करते विशाल देश भारत का लोकतंत्र कितना मजबूत और गहरा है। वे आश्वस्त हो सकते हैं कि सफलता और समृद्धि के लिए चीन की राह पर जाना अनिवार्य नहीं है। इन अकाट्य तथ्यों के बावजूद पश्चिम के उदारवादी पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक भारत में कथित ‘लोकतांत्रिक पथभ्रष्टता’ और पतन पर निरंतर दुष्प्रचार अभियान चला रहे हैं।
भारत में चुनाव प्रक्रिया के प्रति जनसाधारण में आस्था के तमाम जमीनी प्रमाणों को जानबूझकर अनदेखा करके इन छिद्रान्वेषी आलोचकों ने लगातार लांछन लगाने और यह माहौल बनाने का प्रयास किया है कि भारत पीछे की ओर जा रहा है। उदाहरण के लिए कुछ खबरों और लेखों के शीर्षक देखें-मोदी का निरंकुशता की ओर झुकाव: कैसे मोदी भारत को निरंकुशता में बदलने के लिए हिंदू धर्म का उपयोग कर रहे हैं’ (फारेन पालिसी)। ‘मोदी का भारत वह स्थान है, जहां वैश्विक लोकतंत्र खत्म हो जाता है।’ (न्यूयार्क टाइम्स)।
‘इस साल भारत के चुनाव अपनी ‘अलोकतांत्रिक प्रकृति’ के साथ सामने आए हैं।’ ‘मोदी लोकतंत्र को चुनावी अधिनायकवाद में बदल रहे हैं।’ (लि मांडे)। ‘भारत में कानून के शासन का क्या हुआ?’ (द एटलांटिक)। ‘क्या मोदी ने भारतीय लोकतंत्र को उसके टूटने के बिंदु से आगे धकेल दिया है?’ (न्यू यार्कर)। ‘नरेन्द्र मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार नागरिक अधिकारों पर अपना हमला बढ़ा रही है।’ (द गार्डियन)
मोदी सरकार के साथ भारत के निंदक टिप्पणीकारों एवं संपादकों के लक्षणों को समझना आवश्यक है। ये वस्तुगत सच्चाई के बजाय एक छोटे अभिजात्य वर्ग की सर्वसम्मति और आरामकुर्सी पर हासिल कथित ज्ञान के आधार पर लिखते और बोलते हैं। ब्रिटेन के राजनीतिशास्त्री एड्रियन पेबस्ट ने ‘उदार लोकतंत्र के राक्षस’ नामक पुस्तक में इनकी पोल खोली है। उन्होंने दिखाया है कि पश्चिमी उदारवादी ‘आम लोगों के मूल्यों के प्रति अत्यधिक अलोकतांत्रिक और असहिष्णु हैं’ और उनका लक्ष्य है ‘सत्ता और धन को संकीर्ण और गैरजिम्मेदार अभिजात्य वर्ग के हाथों में केंद्रित करना।’
वे न केवल भारत जैसे सक्रिय लोकतंत्र पर अंगुली उठाते हैं, बल्कि अपने देशों में रूढ़िवादी और दक्षिणपंथी सरकारों एवं नेताओं में अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियां हावी होने का आरोप लगाते हैं। जहां भी उदारवादी धड़े के अनुसार राजनीति और समाज नहीं झुकते, वहां इस धड़े के लोग उन्हें पिछड़ता हुआ दिखाने को अपना कर्तव्य समझने लगते हैं। हालांकि उदारवादी और रूढ़िवादी, दोनों ही लोकतांत्रिक दायरे के अंदर रहते हैं, लेकिन कुछ विशेषज्ञों को केवल उदारवादी ही लोकतांत्रिक नजर आते हैं और बाकी सबको वे अलोकतंत्रवादी या लोकलुभावनवादी करार देते हैं।
इनमें सामान्य जनता की समझ को स्वीकार करने की जैसी अनिच्छा और असहिष्णुता है, उससे साफ जाहिर है कि ये गैरलोकतांत्रिक मानसिकता के शिकार हैं और इनमें विशेषाधिकार की यह भावना है कि पूरे विश्व को उनके पसंदीदा पथ पर ही चलना चाहिए। भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ऐसे लोगों के बारे में उचित ही कहा कि उन्हें लगता है कि वे सिर्फ पर्यवेक्षक ही नहीं, बल्कि ‘हमारे चुनाव में राजनीतिक खिलाड़ी भी हैं और वे एक ऐसा एक वैश्विक खेल खेल रहे हैं, जिसमें उन्हें घुसपैठ करनी होगी।’
चूंकि प्रधानमंत्री मोदी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, प्राचीन विरासत और विकास पर जोर देकर जनमानस का समर्थन जुटाया है, इसलिए उदारवादी विदेशी समीक्षकों में गहरी हताशा है। तभी उनके हर वार में मोदी को केंद्रबिंदु बनाया जाता है और उन्हें भारत के खलनायक के तौर पर पेश किया जाता है। दुर्भाग्यवश हमारे अपने विपक्षी नेताओं और वाम-उदार बुद्धिजीवियों के साथ इन अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों और टिप्पणीकारों की साठगांठ है।
राहुल गांधी का यह कथन विदेशी आलोचकों की भाषा से न केवल मिलता-जुलता है, बल्कि उन्हें प्रभावित भी करता है कि वर्तमान आम चुनाव ‘लोकतंत्र और संविधान को बचाने के लिए अंतिम अवसर हैं, क्योंकि मोदी उसे नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं।’ दूसरे देशों में बसे भारतीय मूल के कुछ कथित उदारवादी विचारक भी इस गठजोड़ में शामिल हैं और उन्हें उन देशों में वरीयता तभी मिलती है, जब वे मोदी की हाय-हाय करते दिखें और भारत की बुराई करते रहें।
विश्व के प्रत्येक लोकतंत्र में त्रुटियां होती हैं और कोई भी देश दोषहीन नहीं हो सकता। भारत में भी चुनावी प्रक्रिया एवं शासन व्यवस्था में लगातार सुधार जरूरी हैं और अभी हमारा लोकतंत्र सर्वाधिक उत्कृष्ट स्तर पर नहीं पहुंचा है, लेकिन वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हमारी जो उपलब्धियां हैं, उन्हें अनदेखा करके मनगढ़ंत आरोप लगाना और भारत की छवि को मलिन करना एक सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा है। इसका भंडाफोड़ साधारण भारतीय मतदाता तो करेंगे ही, हमारे तार्किक, राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों को भी चाहिए कि वे वास्तविकता दिखाते रहें।
(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल इंडिया इंस्टीट्यूट के महानिदेशक हैं)