विवेक काटजू। बीते दिनों कनाडा के ब्रैम्पटन शहर में कुछ खालिस्तानी समर्थकों ने एक हिंदू मंदिर में श्रद्धालुओं पर हमला बोल दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कड़े शब्दों में इस घटना की निंदा की। इस घटना के पीड़ितों की सहायता के लिए काउंसलर स्टाफ के काम में बाधा डालने के प्रयासों को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया।

प्रधानमंत्री मोदी ने इस पर उचित ही जोर दिया कि राजनयिकों और काउंसलर स्टाफ की सुरक्षा सुनिश्चित करना कनाडा की जिम्मेदारी है। इससे पूर्व भी खालिस्तान समर्थकों की करतूतों को लेकर भारत ने बार-बार कनाडा को आगाह किया।

वहीं, कनाडा अभिव्यक्ति के अधिकार की आड़ में ऐसे मामलों से अपना पल्ला झाड़ता रहा है। वैसे तो ब्रैम्पटन हिंसा की कनाडाई प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं ने निंदा की है, मगर यह खानापूर्ति और औपचारिकता अधिक है, क्योंकि खालिस्तान समर्थकों पर कोई कड़ी कार्रवाई होने के दूर-दूर तक आसार नहीं दिखते।

भारत-कनाडा संबंध फिलहाल बहुत नाजुक दौर से गुजर रहे हैं और दोनों देशों के बीच रह-रहकर टकराव के नए मोर्चे खुलते जा रहे हैं। कुछ दिन पहले कनाडा के उप विदेश मंत्री डेविड मौरिसन ने कनाडा में लोगों को निशाना बनाने के पीछे भारतीय एजेंटों और गृहमंत्री अमित शाह का नाम लेकर सनसनी मचा दी। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इन आरोपों को बेतुका और आधारहीन बताया।

भारत के एक वरिष्ठतम मंत्री के प्रति कनाडा के ऐसे अप्रत्याशित आरोप देश की प्रतिष्ठा के लिए किसी चुनौती से कम नहीं। ऐसे में मोदी सरकार का यह रवैया बिल्कुल सही है कि वह न केवल अमित शाह से जुड़े आरोपों, बल्कि अन्य पहलुओं को लेकर भी कनाडा को करारा जवाब देने में लगी है।

इसमें केवल कड़ी बयानबाजी ही कारगर नहीं होगी, बल्कि कनाडा के खिलाफ कुछ कड़े कदम भी उठाने होंगे। भले ही इससे भारतवंशियों को कुछ मुश्किलों का सामना करने के साथ-साथ व्यापार एवं वाणिज्य के मोर्चे पर भी देश को कुछ कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े। सदियों से भारत में यही परंपरा चली आई है कि सम्मान की रक्षा सर्वोपरि है।

जून 2023 में खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद दोनों देशों के संबंधों ने एक नई करवट ली है। कनाडा का दावा है कि इस हत्याकांड से जुड़ी जांच और अन्य जानकारियों के सिलसिले में अगस्त 2023 से 12 अक्टूबर, 2024 के बीच दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दिल्ली समेत दुनिया के दूसरे कोनों में छह बार मिल चुके हैं।

कनाडा ने यहां तक अतिरेकपूर्ण दावे किए कि भारतीय राजनयिकों ने कनाडा के उन नागरिकों की जानकारी भेजी, जिन्हें वे भारत विरोधी मानते हैं। इसी संदर्भ में गृह मंत्री का उल्लेख करते हुए उसने कहा कि उक्त जानकारी का उपयोग अपराधियों के माध्यम से कनाडाई नागरिकों को निशाना बनाने के लिए किया गया।

इसी सिलसिले में भारतीय राजनयिकों से पूछताछ के लिए कनाडा ने उनको मिले विशेषाधिकार वापस लेने की बात कही, जिससे बात इतनी बिगड़ गई कि भारत ने 14 अक्टूबर को भारतीय उच्चायुक्त संजय वर्मा सहित छह राजनयिकों को कनाडा से वापस बुलाने का फैसला किया। इन राजनयिकों को ‘पर्संस आफ इंट्रेस्ट’ बताने के पीछे कनाडा का यही मंतव्य था कि उनकी अपराध में सहभागिता या जानकारियां साझा करने में संदिग्ध भूमिका हो सकती है। यह ऐसी उकसावे वाली बात थी कि भारत ने छह कनाडाई राजनयिकों को देश छोड़कर जाने का आदेश दे दिया।

कनाडा का दावा है कि उसने निज्जर हत्याकांड से लेकर राजनयिकों की संदिग्ध गतिविधियों से जुड़े साक्ष्य भारत को उपलब्ध कराए हैं। वहीं, भारत इससे इन्कार करता आया है। निज्जर हत्याकांड में कनाडा ने चार भारतीय नागरिकों को हिरासत में लिया है, लेकिन उसे अदालतों में उनके विरुद्ध साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे।

भारतीय पक्ष को जो जानकारियां मिली हैं, वे समय आने पर सार्वजनिक हो सकती हैं। इस पर भारतीय अधिकारियों को विचार करना चाहिए। इससे कनाडाई आरोपों की हवा निकालने में मदद मिलेगी। अपने राजनयिकों की बातचीत सुनने और वीडियो रिकार्डिंग के मामले में भारत ने कनाडा पर विएना कन्वेंशन के उल्लंघन का आरोप भी लगाया है।

ब्रैम्पटन हिंसा के बाद इस मामले में कनाडा की पोल खोली ही जानी चाहिए। चूंकि कनाडा ने पूरी तरह भारत विरोधी रवैया अख्तियार कर लिया है तो वह अपने संगी-साथियों द्वारा भारत को असहज करने वाला विमर्श तैयार करने में जुटा है। इसमें वाशिंगटन पोस्ट जैसे अखबार उसके मददगार बन रहे हैं।

ऐसी स्थितियों में कूटनीति का तकाजा यही कहता है कि भारत अपने सभी विकल्पों का इस्तेमाल करे और पूरी दुनिया विशेषकर ग्लोबल साउथ के उन देशों के समक्ष यह दर्शाए कि वह एक जिम्मेदार देश है और उसके प्रति कनाडा के आरोप पूरी तरह झूठे एवं भ्रामक हैं। ब्रैम्पटन हिंसा कनाडा के दोहरे चरित्र को उजागर करने का उदाहरण बननी चाहिए।

हालांकि इस मामले में कनाडा को मिलने वाले उन आइ-5 देशों (अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा) के रुख को लेकर सतर्क रहना होगा, जो आपस में खुफिया जानकारियां साझा करने के साथ एक-दूसरे की ढाल बनते हैं। अमेरिका में भले ही सत्ता परिवर्तन हो गया हो, लेकिन इस मामले में उसके नजरिये में मामूली सा फर्क देखने को मिलेगा।

कई मुद्दों पर कनाडा का रवैया पाखंड से भरा हुआ है। जैसे 1985 के कनिष्क विमान हादसे को लेकर उसका दृष्टिकोण नस्लीय रहा। यह भी देखा जाए कि कनाडा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की आड़ में दूसरे देशों की क्षेत्रीय अखंडता एवं संप्रभुता के लिए चुनौती पैदा करने की गुंजाइश नहीं दी जा सकती। यदि आवश्यक हो तो भारत को इन सभी पहलुओं को एक कूटनीतिक अभियान के जरिये वैश्विक समुदाय के सामने रखना चाहिए।

भारत कनाडा के आरोपों से उपजी कूटनीतिक चुनौतियों को अनदेखा नहीं कर सकता और यह स्पष्ट है कि ब्रैम्पटन हिंसा के बाद भी ट्रूडो का भारत के प्रति नजरिया नहीं बदलने वाला। इसलिए भारत को बयानबाजी से बढ़कर कड़ी कार्रवाई की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। भले ही ब्रैम्पटन हिंसा की कनाडा की सभी पार्टियों ने एक सुर में निंदा की हो, लेकिन ट्रूडो के आरोप सभी दलों को एकजुट कर सकते हैं, क्योंकि इसके जरिये वह यही साबित करने में जुटे हैं कि कनाडाई नागरिकों के सामने अपने ही देश में भारत की कथित गतिविधियों से खतरा पैदा हो गया है।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)