[ गिरीश्वर मिश्र ]: भारतीय समाज कई खांचों में विभाजित है। इसी में एक अहम विभाजक रेखा जाति भी है। जाति का सीधा अर्थ समूह, विशेषता या गुण होता है। इसी अर्थ में फूल, पशु, पक्षी, अनाज, फल तथा सब्जी आदि की जाति जानी और पहचानी जाती है। जाति एक तरह की भेदक विशेषता का बोधक है। हालांकि जाति यानी समूह की सीमा भी टूटती है जब कभी उसमें बदलाव लाया जाता है। जैसे आम की कलम भी होती है और ‘कलमी आम’ भी मिलते हैं। स्वाद की दृष्टि से उनमें नई विशेषता आ जाती है। ऐसे ही सामाजिक जीवन में भी एक स्तर पर भेद करना स्वाभाविक रूप से मिलता है और विश्व में हर जगह सामाजिक श्रेणियां पाई जाती हैं। जब हम भारत की सामाजिक दुनिया में प्रवेश करते हैं तो यहां हमारे समक्ष जाति एक जटिल और गतिशील सामाजिक सत्य के रूप में उपस्थित दिखती है जिसके अब तक संवैधानिक और रूढ़िगत कई-कई पाठ और संस्करण किए जा चुके हैं।

आज भारत के सामाजिक और राजनीतिक माहौल में ‘जाति’ एक बड़ा ही संवेदनशील मुद्दा बन चुका है, जिसकी सहायता से सियासी दलों द्वारा चुनावी जंग जीतने की रणनीति बनाई और बिगाड़ी जा रही है। इसमें उनको सफलता भी मिल रही है और दिनोंदिन राजनीति के समीकरण बैठाने में इसकी निर्णायक भूमिका हावी होती जा रही है। अंतत: सरकार के निर्माण और उसके संचालन में कामयाबी भी जातिगत संतुलन के आधार पर ही मिलती प्रतीत हो रही है। यह तब है जब जाति के उन्मूलन के लिए आधुनिक काल में स्वतंत्रता मिलने के पहले से ही नेताओं और अनेक समाज सुधारकों ने पुरजोर कोशिश की थी और समाज को जाति-प्रथा की जंजीरों से मुक्त करने के स्वप्न को आकार दिया।

हालांकि देखा जाए तो ऐतिहासिक दृष्टि से जाति की व्यवस्था समाज को कई वर्गों में बांटती रही है। ये वर्ग अधिकारों की मर्यादा में कुछ इस तरह बंधे कि ऊंची जाति के हिस्से में संपत्ति, प्रतिष्ठा, सम्मान और योग्यता जन्मजात रूप में अधिक पहुंच गई। फलत: एक प्रकार की असमानता समाज के स्वभाव में प्राकृतिक रूप से निबद्ध हो गई। इस विषमता से उबरने की चेष्टा ही बेकार थी, क्योंकि यह एक विकल्पहीन व्यवस्था के रूप में अंगीकार की गई थी।

जन्म से जुड़े होने के कारण जाति की सदस्यता आजीवन स्थिर रहने वाली ही नहीं थी, बल्कि समय के साथ वह वंशानुगत हो गई और उससे मुक्ति ही संभव न थी। जाति ने खान-पान, शादी-ब्याह, पूजा-पाठ, उठना-बैठना, तीज-त्योहार यानी जीवन के सभी महत्वपूर्ण पक्षों पर प्रतिबंधक असर डाला। सामाजिक दूरियों को इस तरह नियमित किया जाने लगा कि जाति के अंदर समानता बढ़े और दूसरी अन्य जातियों से अधिकतम भिन्नता को तीव्र किया जाए। इस तरह समाज में जाति-भेद की दीवारों को सुदृढ़ किया जाने लगा।

वास्तव में जाति की पूर्ववर्ती वर्ण व्यवस्था जो व्यवसाय और कार्य पर टिकी थी, वह मात्र नाम-संकेत थी, पर बाद के दिनों में उसे जाति में तब्दील करना एक बड़े सामाजिक परिवर्तन का सबब बन गया और उसने विषमता के ऐसे बीज बो दिए जिसका देश में विष-वृक्ष समय के साथ बढ़ता ही गया। अंग्रेजों र्ने ंहदू धर्म की पहचान को जातियों से जोड़कर उन्हें सूचीबद्ध किया और वही आज भी मूल आधार है। जाति की समस्या का आज भी कोई समुचित समाधान नहीं मिल रहा है। संशय इतना है कि जो जाति की आलोचना करते हैं और उसे मिटाने का संकल्प लेते हैं वे ही जाति को बनाए रखने की मुहिम भी चलाते हैं।

यह सत्य है कि जाति-भेद के कारण सदियों से जाति के पायदान पर नीचे स्थित जातियों का भयंकर शोषण होता रहा और वे अकारण द्वेष के लक्ष्य भी बने। इस अमानवीय स्थिति को बदलने के लिए ऐसी पीड़ित जातियों को चिह्नित किया गया और वैधानिक रूप से अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ी जाति, अन्य पिछड़ी जाति, दलित, महा दलित और आर्थिक रूप से पिछड़े (ईडब्ल्यूएस) की श्रेणियां बनाई गईं। इन्हें आरक्षण और अन्य सहायता के द्वारा समयबद्ध ढंग से समर्थ बनाने और मुख्यधारा में लाने की कोशिश चलती रही। साथ ही जाति का स्वभाव भी बदला। जाति और उससे जुड़ी सुविधा का रिश्ता कुछ ऐसा बना कि अनेक क्षेत्रों में जाति-बदल के भीषण आंदोलन चलते रहे और समय-समय पर राज्यों तथा केंद्र की सरकारों ने आरक्षण योग्य जातियों की अपनी-अपनी सूची बनाईं। इस तरह जाति की सत्ता राजनीति की सत्ता से जुड़ने लगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज देश में चारों ओर अधिकांश नेताओं का जनाधार पार्टी या विचारधारा से कहीं अधिक जातियों और उपजातियों पर टिका दिखता है और वे स्वयं को उस समुदाय के प्रति सीमित और संकुचित ढंग से समर्पित किए रहते हैं।

जाति की अमोघ राजनीतिक ताकत मुख्यत: दो स्नोतों से आती है। जाति की पहचान उस जाति-समूह के सदस्यों को एक भिन्न मानसिक धरातल पर एकजुट करती है। यह समूह के साथ जुड़े सदस्यों को तीव्र भावनात्मक प्रवाह से ऊर्जावान करती है। उस क्षण व्यक्ति अपनी निजी सत्ता विस्मृत कर मानसिक स्तर पर समूह के साथ एकाकार महसूस करने लगता है। समूह की अपील वशीकरण मंत्र जैसा काम करते हुए विचार-बिगुल बजाती है और लोग उस प्रत्याशी का बेहिचक समर्थन करने को सहजता से तैयार हो जाते हैं, पर इससे भी ज्यादा प्रभावी हैं जाति से जुड़े दृश्य और अदृश्य प्रलोभन जो भोली-भाली जनता को मनाने-मनवाने के लिए नेताओं द्वारा अपनी बिरादरी के लोगों को परोसे जाते हैं। एक हद तक तुष्टीकरण ही राजनीति की मुख्य भाषा बन चुकी है। अपने को ‘जन्मजात ओबीसी’ सिद्ध करने का तर्क गले नहीं उतरता। जातिबद्ध बना रहना और जाति-समापन का व्रत लेना साथ-साथ नहीं चल सकते। यह तो पीछे की ओर लौटने जैसी बात है।

भारतीय राजनीति आज मुद्दों और सरोकारों से अधिक छोटे प्रपंचों में फंसती जा रही है। जाति, जुमले और जुबानी जंग के सहारे हवा में तलवारें भांजते कई नेताओं की वाचालता क्षुब्ध करने वाली है। इक्कीसवीं सदी में समर्थ भारत का सपना देखने वालों को समता और समानता का व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा। विषमता दूर करते हुए जाति मुक्त समाज बनाना ही भविष्य की राह बन सकता है।

( लेखक जाने-माने शिक्षाविद् हैं )