प्रणय कुमार। हाल में शिक्षा मंत्रालय ने कोचिंग संस्थानों के पंजीकरण, छात्रों के नामांकन की आयु, वहां पढ़ाने वाले शिक्षकों की योग्यता, उन संस्थानों द्वारा छात्रों एवं अभिभावकों से किए जाने वाले वादे, शुल्क आदि को लेकर आवश्यक दिशानिर्देश जारी किए हैं। इनके उल्लंघन पर दंड के प्रविधान भी किए हैं। ये दिशानिर्देश स्वागतयोग्य हैं, परंतु इनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए विद्यार्थियों, शिक्षकों एवं अभिभावकों के मध्य व्यापक विचार-विमर्श आवश्यक है। नि:संदेह सफलता का सब्जबाग दिखाते और सपने बेचते कोचिंग संस्थानों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। लगभग सभी छोटे-बड़े शहरों में कोचिंग संस्थान कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं।

कोचिंग ने सामान्य व्यवसाय से आगे निकलकर संगठित उद्योग का रूप ले लिया है। आनलाइन कोचिंग की पैठ तो अब घर के भीतर तक हो गई है। इनफिनियम ग्लोबल रिसर्च रिपोर्ट, 2023 के अनुसार भारत में कोचिंग उद्योग का सालाना कारोबार करीब 58 हजार करोड़ रुपये का है और अगले पांच वर्षों में यह बढ़कर करीब एक लाख 34 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच सकता है। इंडियन काउंसिल फार रिसर्च आन नेशनल एजुकेशन की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार देश में 85 लाख छात्र विभिन्न प्रकार की कोचिंग ले रहे हैं। 2023-24 में अकेले कोटा में ही लगभग 2.05 लाख विद्यार्थी कोचिंग के लिए आए। नेशनल सैंपल सर्वे आफिस का 2020 का सर्वेक्षण बताता है कि कक्षा 11 और 12 के लगभग 25 प्रतिशत छात्र अलग-अलग विषयों के लिए कोचिंग ले रहे थे। यह स्थिति चिंतित करने वाली है।

एक दौर था जब पढ़ाई में कमजोर छात्रों के लिए ही कोचिंग आवश्यक समझी जाती थी, परंतु इन दिनों कोचिंग एक चलन ही नहीं, ‘स्टेट्स सिंबल’ माना जाने लगा है। आखिर इन स्थितियों का जिम्मेदार कौन है? क्या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अभाव में कोचिंग उद्योग पनप रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि पाठ्यक्रम एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रारूप एवं पद्धति के मध्य व्याप्त दूरी विद्यार्थियों को कोचिंग के लिए विवश करती है? सामान्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए भी आज कोचिंग आवश्यक हो गई है। शिक्षा-जगत के नीति-नियंता यदि गहराई से विचार करें तो पाएंगे कि शिक्षा-क्षेत्र में व्याप्त अधिकांश समस्याओं, अनियमितताओं एवं कदाचार की जननी कोचिंग की फलती-फूलती संस्कृति है।

सफलता को कभी सतत साधना का प्रतिफल समझा जाता था, लेकिन आज हर कोई उसका शार्टकट ढूंढ़ रहा है। कोई यह समझने को तैयार नहीं कि विद्यार्थियों की सफलता, उनके व्यक्तित्व के विकास अथवा निर्माण का कोई तय सूत्र या निर्दिष्ट फार्मूला नहीं होता। इसके लिए प्रत्येक विद्यार्थी की प्रकृति, प्रवृत्ति, सामर्थ्य एवं सीमाओं को समझना होगा। उनके साथ सुदीर्घ एवं गुणवत्तायुक्त समय बिताए बिना यह संभव नहीं होगा। क्या कोचिंग संस्थानों के सीमित लक्ष्य, व्यावसायिक दृष्टिकोण, यांत्रिक दिनचर्या, अंकों-रैंकों की गुणाभाग, परीक्षा पर परीक्षा की अंतहीन शृंखला आदि की प्रचलित व्यवस्था में यह सब संभव है?

स्मरण रहे कि विद्यार्थी नीरस और उबाऊ दिनचर्या के दोहराव के यंत्र अथवा अंक बटोरने की मशीन नहीं हैं और न ही वे बने-बनाए ढांचे में तैयार किए जाने वाले उत्पाद हैं। वे मन, बुद्धि, भावना और संवेदना से युक्त मनुष्य हैं, जिनका समग्र एवं संपूर्ण विकास एक स्वस्थ, संतुलित परिवेश और रुचिपूर्ण-रचनात्मक दैनिक गतिविधियों की अपेक्षा रखता है। विद्यालयी शिक्षा में तो फिर भी विद्यार्थियों के मानसिक-बौद्धिक विकास के साथ-साथ उनके सृजनात्मक एवं भावनात्मक विकास की न्यूनाधिक चिंता की जाती है और तदनुसार पाठ्यक्रम एवं सहगामी क्रियाकलापों आदि की रचना की जाती है, परंतु कोचिंग का वातावरण, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा, सफलता का दबाव उन्हें अनावश्यक तनाव एवं कुंठा की ओर लेकर जाता है। इसकी भयावह परिणति कोचिंग संस्थानों में पढ़ रहे विद्यार्थियों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति में देखी जा सकती है। वर्ष 2023 में अकेले कोटा में ही कोचिंग ले रहे 26 विद्यार्थियों ने आत्महत्या कर ली। इससे कोचिंग संस्थाओं की भयावहता एवं वहां अध्ययनरत विद्यार्थियों की वास्तविक मनःस्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

कोचिंग संस्थान सपनों के सौदागर हैं। भ्रामक प्रचार-प्रसार एवं आक्रामक विज्ञापनों के जरिये वे छात्रों एवं उनके अभिभावकों को बरगलाते हैं। अधिकांश अभिभावक भी बच्चों की रुचि, क्षमता, प्रवृत्ति आदि पर विचार किए बिना उन पर अपने सपनों का भार थोपने की भूल कर बैठते हैं, जिसका परिणाम प्रायः त्रासद ही होता है। कोचिंग संस्थाओं के अतिरेकपूर्ण दावों और सफल अभ्यर्थियों के चमकते-दमकते चंद सितारा चेहरों के पीछे लाखों विफल विद्यार्थियों के दर्द, आंसू और स्याह सच सामने नहीं आते।

केवल भेड़चाल के कारण बहुत छोटी आयु में बच्चों को कोचिंग की भट्ठी में झोंकने से उनका बचपन छिन जाता है। अपने सहपाठियों से प्रतिस्पर्द्धा करते-करते और कोचिंग की यांत्रिक दिनचर्या का भार ढोते-ढोते उनके जीवन से बालसुलभ सहज आनंद और उल्लास लगभग लुप्त हो जाता है। अच्छा होगा कि नीति-नियंता इस पर विचार करें कि छात्रों को किन कारणों से कोचिंग का सहारा लेना पड़ता है? इन कारणों की पहचान करके उनका निवारण करके ही बेलगाम कोचिंग उद्योग को नियंत्रित किया जा सकता है। कोचिंग उद्योग ट्यूशन की संस्कृति का विस्तार है और यह किसी से छिपा नहीं कि आज प्राइमरी स्कूलों के छात्रों को भी ट्यूशन लेना पड़ता है। यह स्थिति हमारी शिक्षा व्यवस्था का उपहास ही है।

(लेखक शिक्षाविद एवं सामाजिक संस्था ‘शिक्षा-सोपान’ के संस्थापक हैं)