डा. सुरजीत सिंह। विकसित देशों में कामकाजी युवाओं की घटती संख्या को देखते हुए भारत की 65 प्रतिशत से अधिक कार्यशील आबादी निश्चित रूप से जनसांख्यिकीय लाभांश है। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15 से 64 वर्ष के लोगों की संख्या 90 करोड़ है। भारत सरकार के अनुसार इस दशक के अंत तक भारत की कार्यशील जनसंख्या 100 करोड़ से अधिक हो जाएगी, जिससे अगले तीन दशकों में वैश्विक कार्यबल में भारत का योगदान 22 प्रतिशत से अधिक हो जाएगा, जो एशिया के संभावित कार्यबल के आधे से अधिक होगा। अगले तीन दशकों में भारत के पास जनसांख्यिकीय लाभांश दोहन का स्वर्णिम अवसर रहेगा। जनसांख्यिकीय संरचना के सर्वोत्तम उपयोग के लिए योजनाओं और कार्यक्रमों को युवा कार्यशक्ति के अनुसार लागू करने पर ही सामाजिक-आर्थिक प्रभाव और बड़े लाभों को हासिल किया जा सकता है। भारत जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनाने में सफल रहता है तो 2047 तक विकसित देश बन सकता है। भारत के पास जनसांख्यिकीय लाभांश का अवसर वर्ष 2055-56 तक रहेगा।

बढ़ती जनसंख्या के कारण बढ़ती क्रय शक्ति ने आर्थिक विकास को गति दी है। वस्तुओं और सेवाओं की मांग के बढ़ने से बाजार का आकार भी बढ़ रहा है। पिछले दशक में भारत के उपभोक्ता बाजार का आकार लगभग दोगुना होकर 2.1 लाख करोड़ डालर हो गया है। भारत दसवें सबसे बड़े उपभोक्ता बाजार से आज दुनिया के चौथे सबसे बड़े उपभोक्ता बाजार में बदल गया है, जिसने विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र के लिए विकास के सुनहरे अवसर भी उपलब्ध कराए हैं। उभरते भारत में विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र ही हैं, जो तेजी से जनसांख्यिकीय लाभांश दिलवाने में सक्षम हैं। दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर मजबूत होती आपूर्ति शृंखला ने भी विकास की संभावनाओं के नए द्वार खोले हैं। वैश्विक स्तर की तुलना में भारत के सस्ते श्रम का लाभ लेकर वैश्विक निवेशकों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में आकर्षित किया जाना चाहिए।

भारत के बढ़ते बाजार में निर्माण, सार्वजनिक सेवाएं, श्रम गहन विनिर्माण, व्यापार, परिवहन और पर्यटन, ई-कामर्स और शहरी केंद्रों में अन्य उपयोगिता सेवा केंद्र आदि तेजी से बढ़ते ऐसे क्षेत्र हैं, जहां अतिरिक्त श्रम आपूर्ति को रोजगार के लिए प्रोत्साहित कर जनसांख्यिकी लाभांश को प्राप्त किया जा सकता है। कपड़ा, खिलौने, जूते, आटोमोबाइल, खेल के सामान, कृषि प्रसंस्करण, रेस्तरां, होटल, खनन, स्वास्थ्य सेवा आदि ऐसे श्रम गहन विनिर्माण क्षेत्र हैं, जहां अकुशल और अर्ध-कुशल श्रम को आसानी से खपाया जा सकता है। विनिर्माण क्षेत्र पर विशेष ध्यान देते हुए व्यापार और लेनदेन की लागत को कम करने के लिए बुनियादी ढांचे का विकास, जमीनी स्तर पर व्यापार करने में आसानी और श्रम कानूनों और कराधान प्रणाली को और तर्कसंगत बनाना होगा। श्रम शक्ति में होने वाली प्रत्येक वृद्धि सदैव अर्थव्यवस्था की उत्पादकता बढ़ाती है, परंतु यह इस पर निर्भर करता है कि जनसांख्यिकीय लाभांश लेने के लिए देश के संसाधनों और मानवीय बुनियादी ढांचे में निवेश की दर क्या है।

जनसांख्यिकीय लाभांश लेने के अधूरे प्रयास जटिल चुनौतियां भी खड़ी कर रहे हैं। तेजी से बढ़ता मध्यम वर्ग, शहरीकरण का दबाव, वृद्ध लोगों की बढ़ती संख्या आदि अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ डाल रहे हैं, जिसकी लागत समय के साथ और बढ़ेगी। जनसांख्यिकीय लाभांश लेने के लिए देश की महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर को भी बढ़ाना होगा। जनसांख्यिकीय लाभांश की सबसे बड़ी बाधा देश के युवाओं की मानसिकता भी है। भारत के छोटे शहरों और ग्रामीण युवाओं की मानसिकता ऐसी है कि वे केवल सरकारी नौकरी में ही भविष्य तलाशते हैं। सिविल सेवा, रेलवे, एसएससी आदि के सीमित पदों के लिए लाखों युवाओं की प्रतिभागिता बताती है कि देश की अधिकांश युवा आबादी के पास उचित कौशल न होने से उनके पास कोई उत्पादक काम नहीं है।

दूसरा विरोधाभास यह है कि भारत में कुल कार्यबल के केवल तीन प्रतिशत लोग ही औपचारिक रूप से कुशल श्रमिक हैं। जबकि चीन में 24 प्रतिशत, अमेरिका में 52 प्रतिशत, ब्रिटेन में 68 प्रतिशत और जापान में 80 प्रतिशत लोग कुशल श्रमिक हैं। बढ़ते कार्यबल और कुशल श्रमिकों की मांग की इस खाई को भरने के लिए नई शिक्षा नीति में भले ही एक पहल की गई है, परंतु इस दिशा में सार्थक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट बताती है कि भारत के उच्चस्तरीय तकनीकी संस्थानों जैसे आइआइटी, आइआइएम आदि कुछ विशेष जाने-माने संस्थानों को छोड़ दें तो अधिकांश विश्वविद्यालय, कालेज और निजी शैक्षणिक संस्थान केवल डिग्रियां बांटकर प्रतिवर्ष बेरोजगारों की एक बड़ी फौज तैयार कर रहे हैं। भारत में शिक्षा एक उद्योग के रूप में तेजी से बढ़ रहा है, परंतु इसके बावजूद ग्रामीण, छोटे और मध्यम शहरों के छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अभी भी एक चुनौती ही है, जो उद्योगों की आवश्यकताओं के अनुरूप भी नहीं है। इसलिए कार्यकारी आबादी को कौशल से लैस करने के लिए सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों को उद्योगों के साथ जोड़ा जाना चाहिए।

युवाओं को नौकरी की जड़ मानसिकता से निकाल कर अपना व्यवसाय करने की दिशा में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके लिए बैंकिंग, उद्योग और सरकार आदि पक्षों को एक मंच पर आकर युवाओं को प्रतिस्पर्धी बनाने, डिजिटल बुनियादी ढांचे के उपयोग, प्रौद्योगिकी उन्नयन आदि के द्वारा व्यवसाय के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अर्थव्यवस्था की अनौपचारिक प्रकृति भी जनसांख्यिकीय परिवर्तन के लाभों को प्राप्त करने में मुश्किलें पैदा करती है।

(लेखक अर्थशास्त्री हैं)