शिवकांत शर्मा : कूटनीति में जितना महत्व बात का होता है, उतना ही उस स्थान और प्रसंग का भी, जहां वह कही जाती है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने हालिया चीन यात्रा से लौटते समय यूरोपीय अखबारों को दिए इंटरव्यू में कहा, ‘यूरोप को स्वयं से यह पूछना होगा कि क्या ताइवान के संकट का गहराना हमारे हित में है? नहीं। सबसे बुरा यह सोचना होगा कि हम यूरोप वाले इस मुद्दे पर पिछलग्गू बन जाएं और अमेरिका के एजेंडे और चीन की अनावश्यक प्रतिक्रिया के इशारों पर चलें।’

सैद्धांतिक रूप से देखें तो मैक्रों ने कुछ गलत नहीं कहा। भारत भी सदैव गुटनिरपेक्षता की राह का अनुगामी रहा है। हाल के वर्षों में चीन, रूस और अब खाड़ी के देश भी बहुध्रुवीय दुनिया की बात करने लगे हैं। फ्रांस लंबे समय से यूरोप की एक स्वायत्त विदेश नीति की बात करता रहा है। पिछली सदी के सातवें दशक में शीतयुद्ध के दौरान शार्ल डेगाल ने अमेरिकी खेमे की परवाह न करते हुए माओ के चीन को मान्यता दे दी थी।

हालांकि, शी चिनफिंग का चीन माओ का चीन नहीं है। वह विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है। उसके पास दुनिया की सबसे बड़ी सेना है। उसे वह संहारक शस्त्रास्त्रों से लैस कर शक्तिशाली बनाने और चारों तरफ पांव पसारने की योजनाओं में लगा है। उसने भारत से अक्साई चिन पठार छीन रखा है और पाकिस्तान से कराकोरम पट्टी ले रखी है, जिस पर कराकोरम हाईवे बना लिया है। अरुणाचल को दक्षिणी तिब्बत बताकर उस पर अपना हक जताता रहता है। लद्दाख से लेकर सिक्किम तक सीमा के अतिक्रमण और असैन्य बफर क्षेत्र को हड़पने की ताक में रहता है। अंडमान द्वीप समूह के उत्तर में स्थित म्यांमार के कोको द्वीप पर चीन का टोही अड्डा बनने की भी खबरें हैं। संयुक्त राष्ट्र न्यायाधिकरण के फैसले को ताक पर रखते हुए उसने दक्षिण चीन सागर के स्प्रेटली द्वीप समूह को फिलीपींस और वियतनाम से छीनकर वहां अपने अड्डे बना लिए हैं। पिछले 75 वर्षों से उसने ताइवान की अंतरराष्ट्रीय मान्यता को रोक रखा है और उसे अपना प्रांत बताकर हड़पने को बेताब है।

ऐसी घड़ी में जब ताइवानी राष्ट्रपति साई इंग-वेन और अमेरिकी कांग्रेस के स्पीकर केविन मकार्थी की भेंट से नाराज होकर चीन ताइवान की समुद्री नाकेबंदी का युद्धाभ्यास कर रहा था, तब मैक्रों का यह कहना कि ‘ऐसे संकटों में उलझना, जो हमारे नहीं हैं, यूरोप के लिए फंदे में फंसने जैसा होगा,’ उनके ही मित्र देशों को कतई रास नहीं आया। पोलैंड के प्रधानमंत्री मोरावियेत्स्की ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘कुछ पश्चिमी नेता हर किसी के साथ सहयोग के सपने देखते हैं, रूस हो या सुदूरपूर्व की ताकतें! जबकि हकीकत यह है कि यूरोपीय सुरक्षा की असली आधारशिला उसका अमेरिका के साथ गठबंधन है।’

यह भी एक तथ्य है कि तानाशाहों के इरादे बदलने के लिए उनकी मांगें मान लेने की गलती करते हुए यूरोप के नेताओं को 95 साल बीत चुके हैं। 1938 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चैंबरलिन ने हिटलर को चेकोस्लोवाकिया के जर्मन आबादी वाले इलाके देकर उसके इरादे बदलने की कोशिश की। हाल में जार्जिया और यूक्रेन के प्रांतों पर रूसी कब्जे के बाद यूरोपीय देशों ने 2008 और 2015 के शांति समझौतों से पुतिन के इरादे बदलने के प्रयास किए। अब मैक्रों अपनी सामरिक स्वायत्तता के जरिये चिनफिंग को संकेत देना चाहते हैं कि ताइवान के संकट को वह यूरोप का संकट नहीं मानते और इसमें वे अमेरिका के साथ नहीं हैं। उन्हें लगता है कि शायद इससे आश्वस्त होकर चिनफिंग पुतिन पर दबाव डालकर यूक्रेन युद्ध रुकवा देंगे और ताइवान को घेरना बंद कर देंगे। वहीं, इतिहास का अनुभव बताता है कि विस्तारवादी इरादों को समवेत स्वर में बोले बिना नहीं रोका जा सकता।

उधर, मैक्रों के सामरिक स्वायत्तता के बयानों पर अमेरिका ने आधिकारिक रूप से कोई प्रतिक्रिया नहीं की है, लेकिन लोग पूछ रहे हैं कि जिस तरह ताइवान की प्रभुसत्ता का संकट मैक्रों और उनके यूरोप को ‘दूर की लड़ाई’ लगता है, जिसमें अमेरिका का साथ देना उसका पिछलग्गू बनना है, तो यदि अमेरिका को भी यूक्रेन के अस्तित्व का संकट या यूरोप के किसी और देश का संकट दूर की लड़ाई लगने लगे तो क्या होगा?

पुतिन के रूस की तरह बेलगाम हुए परमाणु और वीटो शक्ति संपन्न देश पर अंकुश लगाने का दुनिया के पास आर्थिक प्रतिबंध के रूप में ही एक हथियार बचा था। यह रूस के विरुद्ध पूरी तरह कारगर नहीं रहा, क्योंकि रूस के पास ऊर्जा और अनाज जैसी कुछ ऐसी चीजें थीं, जिनके बिना दुनिया का काम नहीं चल सकता था। साथ ही चीन ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए रूस के साथ मिलकर अपना गठजोड़ मजबूत किया, जिससे अमेरिकी खेमे का मुकाबला किया जा सके। खाड़ी के तेल उत्पादक देशों को भी इस खेमे में शामिल किया जा रहा है।

वैसे, चीन का तुरुप का पत्ता अपनी मुद्रा युआन को डालर के विकल्प के रूप में खड़ा करना है। उसने रूस, खाड़ी देशों और ब्राजील को युआन में व्यापार करने के लिए राजी कर लिया है। युआन अंतरराष्ट्रीय साख वाली उन मुद्राओं में भी शामिल है, जिनमें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिजर्व संपत्ति रखी जाती है। युआन के व्यापार की मुद्रा बनने से चीन को असली लाभ यह होगा कि उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाना लगभग असंभव हो जाएगा। यानी भविष्य में यदि चीन ने ताइवान पर हमला करने या भारत में घुसपैठ करने की कोशिश की तो परमाणु और वीटो शक्ति होने के कारण उस पर न कूटनीति चलेगी, न सैन्य शक्ति और न ही आर्थिक प्रतिबंध कारगर होंगे।

गनीमत है कि युआन को डालर और यूरो जैसी साख हासिल करने में अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है। आज तक चीन जैसी किसी अपारदर्शी, कड़े पूंजी नियंत्रण वाली तानाशाही अर्थव्यवस्था की मुद्रा की साख डालर और यूरो जैसी नहीं बन पाई है। चीन में बड़े-बड़े पूंजीपति और उनकी पूंजी रातोंरात गायब हो जाना आम बात है, जिसके चलते युआन का डालर का विकल्प बनना अभी तो संभव नहीं लगता, लेकिन यदि संभव हो जाता है तो वह भारत के हित में नहीं होगा।

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)