चीन की दबंगई का मुकाबला, भारत के पास तिब्बत जैसा ब्रह्मास्त्र
चीन के भारत विरोध की इस कड़ी में ताजा अध्याय बना है अरुणाचल प्रदेश। चीन ने 9 मार्च को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अरुणाचल में सेला सुरंग मार्ग का उद्घाटन करने का कड़ा विरोध करते हुए कहा कि अरुणाचल प्रदेश चीन का इलाका है। इसमें न तो भारत के प्रधानमंत्री को जाने का अधिकार है और न वहां किसी तरह की सड़क सुरंग या कोई निर्माण करने का अधिकार है।
विजय क्रांति। चीन ने अरुणाचल प्रदेश को लेकर फिर से उकसावे वाला बयान दिया है। उसके रवैये से साफ है कि वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आने वाला। चीन ने तिब्बत पर अपने कब्जे का इस्तेमाल करते हुए जब अक्साई-चिन को हड़पने का काम किया था, तब प्रधानमंत्री रहे पं. नेहरू ने कड़ी प्रतिक्रिया वाला पत्र चीन सरकार को भेजने का निर्देश दिया।
हालांकि कुछ घंटों के बाद ही यह कहते हुए पत्र को रुकवा दिया कि चीन से रिश्ते खराब करने के बजाय वह खुद इस सवाल को चीनी प्रधानमंत्री के सामने उठाएंगे, लेकिन कभी यह मुद्दा उठाया नहीं। जब इस भारतीय इलाके में बनी 1200 किमी लंबी सड़क ‘जी-219’ के उद्घाटन समारोह के लिए चीन सरकार ने पीकिंग (आज का बीजिंग) में भारतीय राजदूत को भी न्योता भेजा, तब भी नेहरू सरकार की मूल आपत्ति बस इस सवाल पर थी कि चीन सरकार के मजदूर भारत से वीजा लिए बिना वहां कैसे गए? अक्साई-चिन का क्षेत्रफल पूरे भूटान देश जितना है। इस पर अपने कब्जे और इसी काराकोरम हाईवे के रास्ते पाकिस्तान से जुड़कर अब चीन ने भारत के लद्दाख क्षेत्र के लिए स्थायी रूप से गंभीर खतरा पैदा किया हुआ है।
चीन की हेकड़ी और दादागीरी घटने के बजाय लगातार बढ़ती जा रही है। चीन ने तिब्बत पर जबरन किए गए कब्जे को समय के साथ न केवल बहुत मजबूत कर लिया है, बल्कि तिब्बत को अपनी नई सैन्य छावनी की तरह इस्तेमाल करते हुए वह आए दिन भारत, नेपाल और भूटान के इलाकों पर दावे करता रहता है। तिब्बत को आधार बनाकर चीन ने न केवल 1962 में भारत पर एकाएक हमला बोलकर हजारों वर्ग किमी जमीन हड़प ली, बल्कि तिब्बत की नदियों पर दर्जनों बांध बनाकर वह भारत आने वाले पानी को रोकने और उसका हथियार की तरह इस्तेमाल करने का अभियान भी चला रहा है। 2002 और 2005 में कम से कम तीन मौकों पर चीन तिब्बत की नदियों के पानी को रोककर और फिर उसे अचानक छोड़कर भारत के हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश के खिलाफ ‘वाटर-बम’ की तरह इस्तेमाल कर चुका है।
चीन के भारत विरोध की इस कड़ी में ताजा अध्याय बना है अरुणाचल प्रदेश। चीन ने 9 मार्च को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अरुणाचल में सेला सुरंग मार्ग का उद्घाटन करने का कड़ा विरोध करते हुए कहा कि अरुणाचल प्रदेश चीन का इलाका है और इसमें न तो भारत के प्रधानमंत्री को जाने का अधिकार है और न वहां किसी तरह की सड़क, सुरंग या कोई और निर्माण करने का अधिकार है। चीन के इस दावे का सबसे हास्यास्पद पक्ष यह है कि वह तिब्बत पर अपने गैरकानूनी और औपनिवेशिक कब्जे पर शर्मिंदा होने के बजाय अरुणाचल को ‘दक्षिणी तिब्बत’ बताते हुए उसे तिब्बत का और अंतत: चीन का हिस्सा मानता है।
पिछले वर्ष अगस्त में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह जब अरुणाचल सीमा के ‘प्रथम गांव’ किबितू में ‘वाइब्रेंट विलेज’ अभियान की शुरुआत के लिए गए, तब भी बीजिंग सरकार ने हंगामा किया था। इससे पहले अक्टूबर 2009 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और कई मौकों पर दलाई लामा तथा विदेशी राजदूतों की अरुणाचल यात्रा के दौरान भी चीन अनाप-शनाप बयान देता रहा है। ऐसे भी कई मौके आए हैं, जब चीन में खेल स्पर्धाओं में भाग लेने वाले अरुणाचल और जम्मू-कश्मीर के भारतीय खिलाड़ियों को उसने सामान्य वीजा देने के स्थान पर उन्हें नत्थी वीजा जारी किया, क्योंकि वह इन दोनों राज्यों को भारत का हिस्सा नहीं मानता।
भारत सरकार को उकसाने के लिए चीन सरकार सात साल में कम से कम तीन बार अरुणाचल के कई शहरों और कस्बों के चीनी नामों की घोषणा कर चुकी है। यहां तक कि उसने अब अरुणाचल को एक चीनी नाम ‘जांगनाना’ भी दे दिया है, जिसका चीनी भाषा में अर्थ है ‘दक्षिणी तिब्बत।’ तिब्बत पर चीन के औपनिवेशिक कब्जे और वहां की जनता के मानवाधिकारों के सवाल पर दुनिया भर में चीन की किरकिरी का असर कम करने के लिए अब वहां की सरकार ‘तिब्बत’ के बजाय उसके चीनी नाम ‘शीजांग’ को प्रचारित करने में लगी हुई है। यहां तक कि अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के अक्साई-चिन तथा कई अन्य क्षेत्रों पर अपना दावा जताने के लिए चीन सरकार ने अगस्त 2023 में नया नक्शा भी जारी कर दिया, जिसे वह चीन का ‘मानक’ नक्शा बताती है।
चीन की ऐसी प्रत्येक हरकत के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय हर बार उसी चिरपरिचित बयान को दोहराता है कि अरुणाचल हमेशा से भारत का अभिन्न अंग था, है और रहेगा। चीन के बेतुके दावों से इस जमीनी हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता कि अरुणाचल भारत में ही है। विदेश मंत्रालय का बयान देखने में भले ही तर्कसंगत लगे, लेकिन यह मोदी सरकार की छवि के अनुसार कम और नेहरू युग के जुबानी जमाखर्च जैसा ज्यादा लगता है।
भारत की जनता अब यह उम्मीद करने लगी है कि चीनी दादागीरी की प्रभावी काट के लिए नेहरू युग जैसी जुबानी जंग के बजाय मोदी की शैली में कुछ ठोस करना होगा। जिस तरह चीन की नीति युद्ध को अपनी सीमा में लड़ने के बजाय दुश्मन के घर के भीतर ले जाकर लड़ने की है, वैसी ही नीति अब मोदी सरकार को भी अपनानी होगी। उसे इस सच्चाई को ध्यान में रखना होगा कि भारत, नेपाल और भूटान के खिलाफ चीन की असली ताकत उसकी तिब्बत में गैरकानूनी मौजूदगी है।
इसलिए जब तक चीन का तिब्बत पर कब्जा बना रहेगा तब तक दक्षिण एशिया पर उसकी दादागीरी इसी प्रकार से चलती रहेगी। इसलिए चीन की इस दुखती रग पर प्रहार करके ही उसके अक्खड़पन पर काबू पाया जा सकता है। ऐसे में अरुणाचल प्रदेश पर ‘दक्षिणी तिब्बत’ नामकरण के चीनी दावों का सही जवाब यही होगा कि तिब्बत पर उसके गैरकानूनी कब्जे को चुनौती दी जाए। दुनिया में अमेरिका और यूरोपीय संघ समेत कई शक्तियां भारत की नीति में इस बदलाव का वर्षों से इंतजार कर रही हैं। चीन के खिलाफ तिब्बत एक ब्रह्मास्त्र जैसा है, जिसे अब तक भारत ने भुलाए रखा है।
(लेखक सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)