Citizenship Amendment Act 2019 : हिंसक विरोध के पीछे सुनियोजित साजिश
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ पूर्वोत्तर से शुरू हुए विरोध प्रदर्शन का up और delhi तक फैल जाना इस बात की ताकीद करता है कि राष्ट्र विरोधी शक्तियां देश को अशांत करने पर तुली हुई है
[श्रीनिवास]। नागरिकता कानून के विरोध में उत्तर भारत के अनेक हिस्सों में विरोध प्रदर्शन जारी है। लखनऊ में गुरुवार को एक पुलिस चौकी में आग लगा दी गई। वहां भीड़ में अधिकांश छात्र नजर आ रहे थे। कम उम्र के छात्रों का हिंसा में शामिल होना इस बात की पहचान है कि उनके दिमाग में जहर उड़ेला जा रहा है। चंद लोग अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उनकी मासूमियत का गलत प्रयोग कर रहे हैं।
दिल्ली के जामिया मिल्लिया के बवाल में पाया गया कि कैंपस के भीतर असामाजिक तत्वों के द्वारा पुलिस पर पत्थर फेंके गए और सरकारी संपत्ति को तहस नहस किया गया। कुछ विधायकों ने भी हिंसा को बढ़ाने की पहल की। इस बीच स्वयं को लिबरल विचार के अनेक ठेकेदारों ने देश के विरोध में आंदोलन करने की आम जनता से अपील की है।
अलीगढ़ और जामिया में छात्रों ने जिस तरीके से कानून हाथ में लिया और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया, वह एक अपराध है। इस कानून के खिलाफ पूर्वोत्तर के लोगों को भी बरगलाया गया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते असम गण परिषद के साथ जो असम समझौता हुआ था उसमें मुद्दे क्या थे? जब इस सरकार ने सबके हित को ध्यान में रखते हुए एनआरसी को लागू किया तो उस पर बवाल मचा। उसके बाद नागरिकता संशोधन विधेयक जब कानून बन गया तो उसके माध्यम से धार्मिक विद्वेष फैला कर राजनीतिक पार्टियां वोट बैंक की राजनीति कर रही हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खुद आंदोलन की अगुआई की है। इससे असामाजिक तत्वों को बल मिला और वे देश की व्यवस्था को चुनौती देने लगे। यही दिल्ली के जामिया मिल्लिया में हुआ। उत्तर प्रदेश के मुस्लिम इलाकों में सामाजिक सौहार्द तोड़ने की कोशिश की जा रही है।
अजीब संयोग और दुर्भाग्य है कि इस सरकार ने मुस्लिम समुदाय की बुनियादी कमियों और दुर्गुणों को दूर कर उनको मजबूत बनाने की कोशिश की है तो तमाम राजनीतिक पार्टियां जो उनके कुनबे के बल पर सत्ता में आना चाहती हैं, सामाजिक ताने-बाने को तोड़कर देश को राजनीतिक रूप से अस्थिर करना चाहती हैं, लेकिन वे अपने मकसद में कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे, क्योंकि देश उनकी दोहरी राजनीति और मौकापरस्ती को समझ चुका है। देश सच और अफवाह को भी जानता है। यह केवल राष्ट्र विरोधी शक्तियों का जमघट है जिनकी तादाद बहुत अधिक नहीं है। यहां कुछ बातें स्पष्ट दिख रही हैं। कैसे कैंपस की राजनीति में जहर घोला जा रहा है।
देखा जाए तो छात्र देश का भावी कर्णधार है। पहले जेएनयू में फीस को लेकर कैंपस से लेकर संसद तक हंगामा किया गया। उसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय को निशाना बनाया गया, फिर नागरिकता कानून को लेकर जामिया मिल्लिया और अलीगढ़ में बवाल मचाने की कोशिश की जा रही है। फिर इनको एक सूत्र में पिरोकर देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने की साजिश रची जा रही है जिसमें कांग्रेस जैसी कई पार्टियां हैं जिनकी दुकानें मुस्लिम राजनीति की वोट बैंक पर चलती थीं।
इस तरह की अव्यवस्था फैलाकर देशव्यापी अराजकता की स्थिति को पैदा करने वाले और कोई नहीं, बल्कि शहरी नक्सली ही हैं। कभी मॉब लिंचिंग को लेकर, तो कभी कैंपस में शुल्क वृद्धि को लेकर हंगामा खड़ा किया जा रहा है। इस कुत्सित मानसिकता के पीछे वही शक्तियां प्रभावी हैं जो देश को अस्थिर करना चाहती हैं। शहरी नक्सलियों का मकसद कैंपस के छात्रों को उत्तेजित कर देश को विकास के रास्ते से नीचे धकेलना है। भारत विरोधी ताकतों की एक मजबूत शृंखला है। कैंपस से लेकर संसद तक इनके तार जुड़े हुए हैं।
उदारवादी विचारधारा के नाम पर देश के राजनीतिक ढांचे को तोड़ना इनका शगल है। जिस तरीके से एनआरसी और नागरिकता संशोधन विधेयक पर कुछ दलों ने विरोध की राजनीति की और धर्म को अपना आधार बनाया, वह अपने आप में भारत विरोध की ही तस्वीर पेश करता है। ये राजनीतिक शक्तियां अपने आप को लिबरल थॉट की मानती हैं यानी उदारवादी सोच देश को तोड़ने और कमजोर करने के लिए बनाया गया है। संसद में कई ऐसी राजनीतिक पार्टियां हैं और कैंपस में उनके बुद्धिजीवी मसीहा हैं, जिनकी सोच कश्मीर को पाकिस्तान सौंपने की है और राष्ट्र के सपने को खंडित करने की है।
शहरी नक्सलवाद पैदा कैसे होते हैं? इस बात को समझना अब आम जनता के लिए मुश्किल नहीं है। देश में छात्रों की आड़ में राजनीति को मानवीय शक्ल देने का ढोंग उदारवादी बुद्धिजीवियों के द्वारा किया जाता है। देश के राष्ट्रीय खजाने से विदेशों में मौज करने वाली यह जमात विदेशों में अपने ही देश को नीचा दिखाने का षड्यंत्र रचते हैं और वहां पर अपनी शान बटोरते हैं। देश ऐसे लोगों को पहचान चुका है। लिबरल थॉट के बुद्धिजीवी जिनकी तादाद बहुत नहीं है, लेकिन उनका विस्तार जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय में जरूर है। इनकी ठेकेदारी अन्य संस्थाओं में भी चलती है।
जेएनयू के अनेक अध्यापक भारतीय रकम पर विदेशों में जाकर अपने ही देश की आलोचना को अपनी बौद्धिक संपदा मानते थे। प्रोफेसर कमल मित्र चिनॉय ने गुजरात दंगों के बाद वाशिंगटन में वर्ष 2002 में वहां की सरकारी समिति ‘यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ के सामने भारत सरकार के खिलाफ गवाही दी। इस कमीशन की सुनवाई का उद्देश्य अमेरिका द्वारा भारत पर प्रतिबंध लगाने से जुड़ा था। इसी प्रकार के कई बुद्धिजीवियों का अड्डा विदेशों के विश्वविद्यालयों में सक्रिय है जो भारत विरोधी मुहिम में शामिल हैं। उसमें से एक हार्वर्ड विश्वविद्यालय का एक खेमा है जो स्टीम फॉर्मर के द्वारा चलाया जाता है। इसका नाम ‘इंडो-यूएस रिसर्च’ है। इनका एकमात्र उद्देश्य हिंदू धर्म और संस्कृति को बदनाम करना है।
भारत के कई तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवी इस ग्रुप के सक्रिय सदस्य हैं। देश आज दुनिया के सामने एक नई पहचान के साथ खड़ा है। राष्ट्र अपनी विस्मृत सांस्कृतिक धरोहर को बटोरकर दुनिया को एक नई दिशा देने की क्षमता रखता है। वर्ष 2014 के बाद कई ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जहां से एक अलग भारत की दास्तान शुरू होती है। भारत का उभरना कई किस्म के लोगों को रास नहीं आ रहा है। इसलिए विद्रोह का ताना-बाना तैयार किया जा रहा है। देश के लिए यह बड़ी चिंता का विषय है।
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ पूर्वोत्तर से शुरू हुए विरोध प्रदर्शन का पश्चिम बंगाल से होते हुए उत्तर प्रदेश और दिल्ली तक फैल जाना, इस बात की ताकीद करता है कि राष्ट्र विरोधी शक्तियां देश को अशांत करने पर तुली हुई हैं। राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी हद तक जा सकते हैं। जब प्रधानमंत्री स्पष्ट कह चुके हैं कि किसी भी मुस्लिम परिवार को डरने की जरूरत नहीं है। किसी भी तरीके से यह कानून उनके विरोध में नहीं है। ऐसे में विरोध-प्रदर्शन अत्यंत ही दुखद और चिंताजनक है।
[राष्ट्रीय सह-संगठन मंत्री, एबीवीपी]
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