कतरा-कतरा बिखरती कांग्रेस; जिनके पास था नाव पार लगाने का जिम्मा, वही कर रहे पार्टी का बेड़ा गर्क
सोनिया गांधी फैसला लेने की हैसियत काफी पहले ही खो चुकी थीं। कांग्रेस पार्टी में पिछले एक दशक से फैसला सिर्फ राहुल गांधी लेते हैं। उस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। जो सवाल उठाने की हिम्मत करता है उसे मोदी का एजेंट बता दिया जाता है।
प्रदीप सिंह: कांग्रेस कभी एक राष्ट्रीय पार्टी हुआ करती थी। अब सवाल यह उठने लगा है कि कांग्रेस राजनीतिक दल कब तक रहेगी या फिर कहें कि कब तक रहने दी जाएगी। पार्टी की हालत बंद गली के उस आखिरी मकान की तरह हो गई है जो ‘शिकमी किराएदार’ के कब्जे में है। यहां तो हालत और खराब है कि जिसे किराएदार समझ रहे थे, वह अपना पुश्तैनी हक बता रहा है। कांग्रेस पार्टी में यह राहुल गांधी का युग चल रहा है। यहां बिना मुकदमे के सिर्फ फैसले सुनाए जाते हैं, जिनके खिलाफ अपील की कोई की व्यवस्था नहीं है। एक समय देश में इमरजेंसी लगी थी, आज कांग्रेस में लगी है। तो अपील, दलील और वकील कुछ नहीं चलता।
फिल्म ‘अमर प्रेम’ के एक गीत की पंक्तियां हैं-‘मझधार में नैया डोले तो माझी पार लगाए, माझी जो नाव डुबोए उसे कौन पार लगाए।’ कांग्रेस का इस समय यही हाल है। जिस गांधी परिवार पर कांग्रेस की नाव को पार लगाने का जिम्मा था, वही पार्टी का बेड़ा गर्क कर रहे हैं। यह बात कोई भाजपा नेता नहीं, बल्कि कांग्रेसी नेता बोल रहे हैं। 50 साल तक कांग्रेस में रहे गुलाम नबी आजाद का कहना है कि आज की कांग्रेस में रहने की शर्त है कि आपकी रीढ़ की हड्डी नहीं होनी चाहिए। पार्टी में जो फैसला लेता है, उसके पास पद नहीं है और जिसके पास पद है, वह फैसला लेने की हैसियत नहीं रखता। जब सोनिया गांधी का फैसला पलट दिया जाता है तो मल्लिकार्जुन खरगे की क्या हैसियत है।
पार्टी की राज्य इकाइयों में बगावत आम बात हो गई है। जिस राज्य में पार्टी का जनाधार बचा हुआ है, वहां गुटबाजी का बोलबाला है और जहां गुटबाजी नहीं, वहां समझिए कि पार्टी का जनाधार ही नहीं बचा है। इस समय राजस्थान सबसे गरम है। सचिन पायलट से कहा गया कि तुम उड़ो। जब उन्होंने उड़ान भरी तो पंख काट दिए गए। अब पायलट फड़फड़ा रहे हैं। अशोक गहलोत हाईकमान से बगावत करके भी जमे हुए हैं। अब उनकी सरकार ‘आटो पायलट’ मोड में है। यानी पायलट की जरूरत नहीं है। सोचिए 2020 तक जो राज्य का उप मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष दोनों था, उसे अपनी बात सुनाने के लिए भूख हड़ताल करनी पड़ रही है, लेकिन इसकी सुनवाई करेगा कौन? अदालत तो बर्खास्त हो चुकी है।
गुलाम नबी आजाद की मानें तो सोनिया गांधी फैसला लेने की हैसियत काफी पहले ही खो चुकी थीं। कांग्रेस पार्टी में पिछले एक दशक से फैसला सिर्फ राहुल गांधी लेते हैं। उस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। जो सवाल उठाने की हिम्मत करता है, उसे मोदी का एजेंट बता दिया जाता है। तो अब कांग्रेस में दो तरह के लोग बचे हैं। एक, राहुल गांधी के जी हुजूर और दूसरे-मोदी के एजेंट। पार्टी में किसी मुद्दे पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए टीएस सिंह देव कह रहे हैं कि उनके बोलने पर रोक है। कर्नाटक में चुनाव से पहले ही डीके शिवकुमार ने मान लिया है कि उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा। इसलिए उन्होंने नया दांव चला है कि दलित मुख्यमंत्री होना चाहिए। उसके लिए सबसे योग्य मल्लिकार्जुन खरगे हैं। मतलब साफ है कि सिद्धरमैया को फिर मौका न मिलने पाए।
कांग्रेस में सारे जी हुजूरियों को विशेष जिम्मेदारी मिली हुई है। कांग्रेस छोड़ने वालों को गद्दार बताने की प्रतियोगिता में शामिल होने की। तो कल जिन गुलाम नबी आजाद का पसीना गुलाब था, आज उनके इत्र से भी बदबू आने लगी है। एक समय था, जनता दल के लिए कहा जाता था कि ‘इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा।’ कांग्रेस का भी हाल वही हो गया है। राहुल राज से पहले यह प्रक्रिया विलंबित गति से चल रही थी। अब द्रुत गति से चलने लगी है। निश्चिंत रहिए कि लोकसभा चुनाव के बाद राहुल कांग्रेस से कई और कांग्रेस निकलेंगी। फिर सारे मोदी एजेंट पार्टी से बाहर हो जाएंगे। बचेंगे सिर्फ जी हुजूर। जो हुजूर को बादशाह बनने के ख्वाब दिन में दिखाएंगे।
याद है कि 1999 में शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ दी थी। हालांकि, कुछ महीने में ही सिद्धांत पर सत्ता भारी पड़ गई और मिलकर सरकार बना ली। सोनिया का तो वह कुछ नहीं बिगाड़ पाए, लेकिन अब मौका मिला है राहुल गांधी को धोबी पाट मारने का, तो मार रहे हैं। पहले कहा यह मानो कि सावरकर देश भक्त थे या फिर चुप रहो। फिर कहा अदाणी को निशाना बनाया जा रहा है, जेपीसी की मांग ठीक नहीं, मोदी की डिग्री का मुद्दा उठाना गलत और संसद को ठप करना बिल्कुल गलत। कुल मिलाकर यह कि राहुल गांधी ने जो कुछ कहा सब गलत। राहुल से कुछ बोला नहीं जा रहा। इसी को कहते हैं ‘जबरा मारे रोने न दे।’
राहुल गांधी का हाल देखिए। मोदी को गाली देने के चक्कर में एक बार सुप्रीम कोर्ट से माफी मांगनी पड़ी। जिला अदालत में माफी मांगने में हेकड़ी दिखाई तो लोकसभा की सदस्यता चली गई। इस देश के लोग भी इतने बेदर्द हैं कि मातमपुर्सी के लिए सड़क पर भी नहीं आए। कांग्रेस के इतिहास में आज तक ऐसा कोई अध्यक्ष या सबसे प्रभावशाली नेता नहीं हुआ, जिसका दूसरे दलों को तो छोड़िए अपनी पार्टी के नेताओं से भी संवाद न हो। पार्टी में जिनसे संवाद था वे एक-एक करके पार्टी छोड़कर जा रहे हैं। संवादहीनता राहुल गांधी की सबसे बड़ी कमजोरी है। पार्टी के अंदर भी और बाहर भी। संवाद जनतंत्र का आत्मा है। उसका अभाव तानाशाही की ओर ले जाता है।
पहले लगता था कि राहुल गांधी अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश के सिद्धांत पर चलते हैं, जिसके मुताबिक ‘आप मेरे साथ नहीं हैं तो मेरे खिलाफ हैं।’ इधर उन्होंने इसमें बदलाव किया है। आप मेरे जी हुजूरों की टोली में नहीं हैं तो आप मेरे दुश्मनों के हाथ की कठपुतली हैं। कांग्रेस में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो समझ नहीं पा रहे हैं कि ऐसे माहौल में करें तो क्या करें, क्योंकि उनमें फैसला लेने का साहस नहीं है। जिस मुद्दे को ठीक नहीं समझते, उसका न तो विरोध करने की हिम्मत है और न ही समर्थन करने की इच्छा। तो वे कांग्रेस में बस पड़े हुए हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)