सनातन वैदिक सभ्यता की प्राण प्रतिष्ठा, यह शताब्दियों के बलिदान की परिणति है
पूरे भारत में बिखरी हुई देवमूर्तियों मंदिरों किलों के भग्नावशेष निरंतर मर्मांतक प्रतिरोध के साक्षी हैं। कार्ल मार्क्स ने ‘नोट्स आन इंडियन हिस्ट्री’ में हिंदुओं के अतुलनीय प्रतिरोध के बारे में आश्चर्य से लिखा कि जब फारसी लोग केवल 30 बरसों में अरब हमलावरों से हारकर इस्लामी बन गए तब हिंदुओं ने कैसे ऐसा मर्मांतक संघर्ष किया कि हमलावरों को काबुल से दिल्ली पहुंचने में ही कई शताब्दियां लग गईं।
कपिल कपूर। भारत की धर्मरक्षक परंपरा के आदिपुरुष प्रभु राम के मूर्त रूप की प्राण प्रतिष्ठा केवल उनका अयोध्या में पुनर्वास नहीं है। यह हिंदू संस्कृति के लुप्त-प्रकट, विनाश-निर्माण के कालचक्र में संस्कृति, धर्म और आस्था के पुनर्स्थापन एवं पुनरुत्थान प्रक्रिया की प्रवाह नित्यता की भी द्योतक है। धन-धान्य से परिपूर्ण भारत सदैव लुटेरों का लक्ष्य रहा। कुछ लुटेरे लूटकर लौट जाते थे और कुछ भारतीय रूप अपना कर यहीं रह जाते थे, लेकिन आठवीं शताब्दी से छिटपुट और ग्यारहवीं शताब्दी से निरंतर ऐसे आक्रमण शुरू हुए, जिन्होंने दो सभ्यताओं के बीच सदियों चलने वाले भीषण संघर्ष का रूप ले लिया।
ईसाई और इस्लामिक मान्यता है कि सबको उनका मजहब कुबूल करना चाहिए, क्योंकि वही एकमात्र सच्चा है और जो इसे नहीं मानते उनको जीने का अधिकार नहीं। इन दोनों मजहबों और विशेषकर इस्लाम का इतिहास कई गुना हिंसात्मक और विभाजनकारी रहा है। आठवीं शताब्दी से इस्लामी फौजों के सामने अनेक देश-लीबिया, ट्यूनीशिया, मिस्र, सीरिया और फारस ध्वस्त हो गए। उनकी मूल संस्कृति मिट गई और वे इस्लामी बन गए। आठवीं सदी के आसपास ही इस्लामी फौजों ने भारत पर दस्तक दी। स्कंदपुराण के अनुसार, ‘हिंदू राजा तिनके की तरह बिखर गए।’
आक्रांताओं की फौजों ने युद्ध का चरित्र बदल दिया था। अब वह ‘काफिरों’ के सामूहिक खात्मे के कठोर मजहबी उद्देश्य से प्रेरित था। नगर के नगर रौंद दिए गए। उत्तरी, उत्तर-पश्चिमी, दक्षिण-पश्चिमी, दक्षिण-मध्य भारत में एक भी प्रमुख हिंदू, बौद्ध या जैन मंदिर नहीं रहने दिया गया। सिंध की 712 ईं. में पहली इस्लामी जीत से मराठों के उदय और 1707 ई. में औरंगजेब के पतन तक हिंदुओं का नरसंहार होता रहा, जो इतिहास में सबसे भयावह था। इनमें सल्तनत काल, मुगल काल ऐसे थे, जिनके विवरण अमेरिका में स्थानीय आबादी के संहार, यहूदियों के संहार, खमेर रूज के संहार से भी बढ़कर थे। इस हद तक कि 1200-1500 के बीच हिंदू आबादी घटकर एक चौथाई रह गई।
मंदिर विध्वंस, वहीं मस्जिद बनाना, ब्राह्मणों तथा पांच वर्ष से बड़े हिंदू बालकों का संहार, युवतियों का अपहरण, तोड़ी गई देवमूर्तियों को मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे गाड़ना, हिंदू स्त्री-पुरुषों को गुलाम बनाकर पैदल ‘हिंदूकुश’ पहाड़ से ले जाते हुए मध्य एशिया के बाजारों में बेचने का काम सदियों चलता रहा। विल ड्यूरां ने अपने ग्रंथ ‘हिस्ट्री आफ सिविलाइजेशन’ में लिखा, ‘भारत पर इस्लामी जीत मानव इतिहास में सर्वाधिक रक्तरंजित है।’
हिंदुओं ने अपमान झेलने के बदले मृत्यु को स्वीकार किया। उन्होंने बड़े पैमाने पर बलिदान दिए। साहसपूर्वक लड़ते हुए हिंदुओं ने अपनी धर्म-सभ्यता बचाई। यह काम फारस, मिस्र, मित्तानी के सीरियाई और मेसोपोटामिया सभ्यता के लोग नहीं कर पाए, लेकिन भारत में राजा और योद्धा इस्लामी आक्रांताओं से लड़ते रहे। धर्म-रक्षा की लंबी परंपरा बनी और चलती रही। मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के संस्थापक बप्पा रावल, कोसल के गहड़वाल, असम के अहोम, वारंगल के काकातिया, विजयनगर के राय, हिंदू पदपादशाही के शिवाजी, बाजीराव और मराठे, गुरु गोबिंद सिंह और खालसे, भरतपुर के जाट, नेपाल के गोरक्षक (गोरखा’)-एक के बाद एक हिंदू राज्यों ने सनातन धर्म का दीप जलाए रखा।
पूरे भारत में बिखरी हुई देवमूर्तियों, मंदिरों, किलों के भग्नावशेष निरंतर मर्मांतक प्रतिरोध के साक्षी हैं। कार्ल मार्क्स ने ‘नोट्स आन इंडियन हिस्ट्री’ में हिंदुओं के अतुलनीय प्रतिरोध के बारे में आश्चर्य से लिखा कि जब फारसी लोग केवल 30 बरसों में अरब हमलावरों से हारकर इस्लामी बन गए, तब हिंदुओं ने कैसे ऐसा मर्मांतक संघर्ष किया कि हमलावरों को काबुल से दिल्ली पहुंचने में ही कई शताब्दियां लग गईं।
वस्तुतः हिंदुओं ने अपने आत्मा और मन की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्रतिरोध किया। आत्मिक स्वतंत्रता मुनियों-मनीषियों ने बचाकर रखी और बाह्य शत्रुओं से रक्षा असंख्य योद्धाओं ने लड़कर की। बप्पा रावल, नागभट्ट, राणा कुंभा, राणा प्रताप, सुहेलदेव, लाचित बरफुकन और छत्रपति शिवाजी सहित अनेक योद्धा डटे रहे। मनीषियों में आदि शंकराचार्य, गुरु गोरखनाथ, ज्ञानेश्वर, वसवन्ना, मीराबाई, शाह हुसैन, कबीर, जयदेव, शंकर देव आदि ने भारतीय चेतना को जगाया। सिख गुरुओं ने शस्त्र और शास्त्र से धर्म की रक्षा की। गुरु अर्जुन देव, गुरु तेग बहादुर के सर्वोच्च बलिदान के बाद गुरु गोबिंद सिंह ने मीरी-पीरी को संयुक्त रूप से धारण किया। वे एक कवि, संत, दार्शनिक और योद्धा भी थे। वह अयोध्या गए और मर्यादा पुरुषोत्तम राम की वंदना की।
राम का नाम उनसे भी अधिक शक्तिशाली है। जिन्हें हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख नित्य सुख-दुख में स्मरण करते हैं। उनसे जुड़े मूल्य ही भारतीय सभ्यता के मर्मभूत मूल्य हैं। राम एक ऐसे अवतारी पुरुष हैं, जिसमें सर्वोच्च दैवीय शक्ति अभिव्यक्त हुई है। ‘आरंभ’ का प्रतीक होने के कारण जन्मभूमि अधिक पुण्य है। उसमें भी राम की जन्मभूमि पवित्रतम मानी जाती है। इसीलिए हिंदुओं के शत्रुओं ने बार-बार उन कलात्मक मंदिर-शिल्पों को जलाकर ध्वस्त किया। यमुना किनारे कृष्ण-जन्मस्थान मंदिर को महमूद गजनवी ने 11वीं सदी में और मीर बकी ने अयोध्या में राम-जन्मभूमि मंदिर को 1528 में ध्वस्त किया। फिर औरंगजेब ने 1669 में ज्ञानवापी, केशवदेव कृष्ण जन्मस्थान और सोमनाथ के मंदिरों को एक ही दिन तोड़ देने का हुक्म दिया। कुल मिलाकर, वे मंदिर तोड़ते रहते थे, हम मंदिर बनाते रहते थे।
श्रीराम-जन्मभूमि मंदिर के विध्वंस को यहूदियों के सोलोमन टेंपल ध्वंस की श्रेणी में रखा जाता है। लगभग 500 वर्षों तक लाखों हिंदू राम जन्मभूमि को मुक्त कराने और वहां पुनः मंदिर बनाने के लिए बलिदान होते रहे हैं। हमारे महान संतों एवं मनीषियों ने भी उसे विस्मृत नहीं किया। गुरु नानक वहां गए और प्रार्थना की। नौवें गुरु तेग बहादुर राम भक्त थे। गुरु गोबिंद सिंह ने अयोध्या में एक लड़ाई भी लड़ी। ब्रिटिश काल में राम जन्मभूमि में अवैध गतिविधि संबंधी पहली प्राथमिकी 1863 में निहंग सिखों के विरुद्ध दर्ज हुई, जो राम-जन्मस्थान में पूजा करने गए थे। अयोध्या में आज होने वाली प्राण-प्रतिष्ठा शताब्दियों के बलिदान की परिणति है। वह एक विग्रह की प्राणप्रतिष्ठा नहीं, अपितु सनातन वैदिक सभ्यता की प्राण प्रतिष्ठा है। इसी कारण देश में उत्सव का वातावरण है।
(जेएनयू में प्रोफेसर, डीन, प्रो-वाइस चांसलर रहे लेखक इनसाइक्लोपीडिया आफ हिंदुइज्म के संपादक हैं)