विजय क्रांति : चीन में आखिर वही हुआ, जिसकी आशंका और अनुमान लगाए जा रहे थे। गत रविवार को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीसीपी की 20वीं कांग्रेस अधिवेशन में स्थापित परंपरा को तोड़ते हुए वर्तमान राष्ट्रपति शी चिनफिंग को लगातार तीसरी बार पांच साल के लिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव घोषित किया गया। यह चीनी शासन व्यवस्था में सबसे बड़े शासक का पद है। उसी दिन उन्हें ‘सेंट्रल मिलिट्री कमीशन’ का प्रधान भी घोषित कर दिया गया। चीन में यह प्रधान सेनापति का पद है, जिसके आदेश और इशारों पर चीन का पूरा सैन्य एवं सुरक्षा तंत्र चलता है। इन दो पदों के अलावा शी पहले से ही राष्ट्रपति पद पर कायम हैं। उनका कार्यकाल अभी एक साल और शेष है।

इसके साथ ही स्पष्ट हो गया कि शी का अपनी पार्टी की ‘साझा-नेतृत्व’ वाली परंपरा को फिर से स्थापित करने का कोई इरादा नहीं। वह अपनी तानाशाही को और धार देते हुए चीन को निरंतर आक्रामक रास्ते पर ले जाएंगे। अधिवेशन के पहले दिन ही करीब दो घंटे के भाषण में आक्रामक भाषा और इरादों से उन्होंने इसके स्पष्ट संकेत दे दिए थे। इसके बाद भी किसी को कोई गलतफहमी रह गई थी तो उसे भी उन्होंने अधिवेशन समाप्ति के बाद अगले दिन 23 अक्टूबर को सरकार की सर्वशक्तिमान टीम यानी पार्टी की पोलित ब्यूरो स्थायी समिति के नए सदस्यों के नामों की घोषणा में स्पष्ट कर दिया।

पार्टी मुखिया और सैन्य प्रमुख संबंधी पदों की घोषणा के बाद रविवार दोपहर को शी बीजिंग स्थित ग्रेट हाल के मंच पर आए तो वहां उपस्थित पार्टी प्रतिनिधियों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने पाया कि पूरी की पूरी मंडली शी के चहेतों से भरी हुई है। उनसे असहमति रखने वाला एक भी नेता इसमें नहीं था। यहां तक कि एक दिन पहले तक शी की सरकार में प्रधानमंत्री रहे ली केचियांग भी इस मंडली से गायब थे। अधिवेशन समाप्ति के अंतिम दिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया और सांसदों की उपस्थिति में शी के बगल बैठे पूर्व राष्ट्रपति हू जिंताओ को जिस अपमानजनक तरीके से बाहर किया गया, उसने भी स्पष्ट कर दिया कि अब चीन की राजसत्ता में शी की नापसंद वाले किसी भी नेता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

चीन पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों ने यह नोट किया कि हू को अपमानजनक तरीके से बाहर निकाले जाने से ठीक पहले विदेशी मीडिया को सभागार में बुला लिया गया था ताकि हू के अपमान को कैमरों में रिकार्ड कर दुनिया को संदेश दिया जाए कि चीन पर शी का एकछत्र राज कायम हो चुका है। अधिवेशन में पहली बार ऐसा हुआ कि स्थायी समिति के नामों की घोषणा के साथ ऐसा कोई संकेत नहीं दिया गया कि शी का तीसरा कार्यकाल समाप्त होने के बाद अगला नेता कौन होगा? यह कदम इसलिए उठाया गया ताकि समय आने पर शी को आजीवन चीन का सर्वोच्च नेता घोषित किया जा सके।

चीनी सत्ता पर शी चिनफिंग के इस निरंकुश कब्जे ने उन देशों, संगठनों और समाजों के लिए खतरा पैदा कर दिया है जो पहले से ही चीन से त्रस्त हैं और शी की तानाशाही और आक्रामक मानसिकता के कारण आतंकित हैं। इनमें एक ओर चीन के उपनिवेशवादी कब्जे से त्रस्त तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान (शिनजियांग), दक्षिण मंगोलिया और हांगकांग प्रमुख हैं, जो चीन के अमानवीय अत्याचारों के कारण अर्से से ‘सांस्कृतिक-नरसंहार’ का दंश झेल रहे हैं। दूसरा वर्ग भारत, ताइवान, जापान, दक्षिण कोरिया, फिलिपींस, वियतनाम, ब्रुनेई और आस्ट्रेलिया जैसे देशों का है, जो चीन द्वारा उनकी भूमि हड़पने की धमकियों से परेशान हैं।

अपने आरंभिक भाषण से ही शी ने प्रकट कर दिया था कि उनका एजेंडा चीन को दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक एवं सैन्य शक्ति बनाना है, जो विश्व व्यवस्था की दशा और दिशा तय करने में प्रभावी भूमिका निभाएगी। उन्होंने ताइवान के स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करने और उसे चीन में मिलाने के अपने इरादे को न केवल मजबूती से दोहराया, बल्कि जरूरत पड़ने इसके लिए सैन्य कदम उठाने के संकेत भी दिए। शी ने चीनी सेना के विकास को चीन के ‘केंद्रीय हितों’ और राष्ट्रीय सुरक्षा की चर्चा करके परोक्ष रूप से भारत को चेतावनी दी कि उसके साथ सीमा विवाद के मामले में उनका रुख आक्रामक रहने वाला है।

भारतीय प्रेक्षक इस बात से चिंतित हैं कि चीनी कांग्रेस की शुरुआत में गलवन घाटी की झड़प की फिल्म दिखाकर, उसमें घायल एक चीनी सैनिक कमांडर को प्रमुखता देकर और चीन सरकार के सेंट्रल मिलिट्री कमीशन में भारतीय सीमा से संबंधित तीन जनरलों को पदोन्नति देकर शी ने संदेश दिया है कि भारत के साथ सैनिक तनाव उनकी वरीयता में है। यह दर्शाता है कि शी के आक्रामक इरादों के दो सबसे प्रमुख निशाने ताइवान और भारत हैं। ताइवान पर जबरन कब्जा जमाने पर चीन को समूचे दक्षिण चीन सागर में निरंकुश दादागीरी का मौका मिल जाएगा, जबकि भारत के प्रति हमलावर रुख अपनाकर वह पूरे एशिया का बेताज बादशाह बनने का सपना देख रहा है।

पिछले दस साल के शासन में शी चिनफिंग के आक्रामक व्यवहार को देखते हुए भारत के लिए यही रास्ता बचा है कि वह अपनी सैन्य एवं आर्थिक शक्ति बढ़ाए। इस राह में वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन देशों के साथ गठजोड़ को प्राथमिकता दे, जो भारत की भांति चीनी आक्रामकता से परेशान हैं। इसके लिए भारत को न केवल क्वाड जैसे संगठनों में सक्रियता बढ़ानी होगी, बल्कि तिब्बत, शिनजियांग और हांगकांग के मामलों में अपनी पांरपरिक दब्बू नीति त्यागकर वैसी ही आक्रामक नीति अपनानी होगी जैसी चीन ने कश्मीर, अरुणाचल के मामलों में अपनाई हुई है।

अब वक्त आ गया है जब ‘वन-चाइना’ नीति के छलावे से बाहर आकर भारत सरकार को आगे बढ़कर ताइवान के साथ उसी तरह के कूटनीतिक, आर्थिक और सैन्य संबंध बनाने की जरूरत है, जैसे उसने इजरायल के साथ बनाए हैं। भारत सरकार को समझना होगा कि चीनी आक्रामकता के कारण भारत का भविष्य ताइवान की सुरक्षा के साथ बहुत गहराई से जुड़ गया है। ताइवान पर कब्जे के बाद चीन का अगला निशाना भारत होगा और ताइवान पर कब्जा कर चुके चीन के दंभ और आक्रामकता को झेल पाना भारत के लिए आसान नहीं होगा।

(लेखक हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)