कांग्रेस को निराश करने वाले नतीजे, आइएनडीआइए में दबदबा कायम रहने पर भी प्रश्नचिह्न
कांग्रेस को इस गठबंधन को एकजुट करने के लिए नए सिरे से कवायद करनी होगी और साथ ही क्षेत्रीय दलों के दबाव का भी सामना करना पड़ेगा। अब राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता और उनकी रणनीति पर भी और सवाल उठेंगे। उन्होंने हमेशा की तरह इस बार भी प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ खूब उलटे-सीधे बयान दिए और उन्हें पनौती तक कहा।
संजय गुप्त। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में हिंदी पट्टी के राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को जो शानदार जीत मिली, वह कई मायनों में इसलिए अप्रत्याशित है, क्योंकि चुनाव से कुछ माह पहले तक भाजपा केवल राजस्थान में अपनी जीत को लेकर आशवस्त दिख रही थी। चूंकि मध्य प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर थी, इसलिए वहां कांटे की टक्कर मानी जा रही थी और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की वापसी की संभावनाएं दिख रही थीं। एक्जिट पोल भी ऐसा ही कुछ संकेत दे रहे थे, लेकिन चुनाव नतीजों ने अलग ही तस्वीर पेश की।
भाजपा ने राजस्थान के साथ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ भी जीत लिया तो अपनी चुनावी रणनीति के कारण। जहां राजस्थान में हर पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज कायम रहा, वहीं मध्य प्रदेश में भाजपा पीएम मोदी के सहारे सत्ता विरोधी लहर को बेअसर करने में सफल रही। छत्तीसगढ़ में भी भाजपा सत्ता विरोधी रुझान को भुनाने में सफल रही तो मोदी की लोकप्रियता और अपनी चुनावी रणनीति के कारण ही।
राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार की ओर से तमाम लोकलुभावन घोषणाएं करने के बाद भी कांग्रेस इसलिए पराजित हुई, क्योंकि वह गुटबाजी पर लगाम नहीं लगा सकी। मुख्यमंत्री गहलोत और सचिन पायलट के बीच जो खटपट चल रही थी, वह रह-रहकर सतह पर आती रही। गहलोत ने कांग्रेस नेतृत्व की अनदेखी कर अपनी ही चलाई। उनके दबाव के चलते ही उन विधायकों को भी टिकट मिल गया, जिनकी छवि ठीक नहीं थी। अशोक गहलोत ने कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकारों को भी भाव नहीं दिया। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फिर गया। मध्य प्रदेश में कांग्रेस नेता कमलनाथ ने भी अपनी मनमर्जी से चुनाव लड़ा। अशोक गहलोत की तरह उन्होंने भी कांग्रेस आलाकमान के निर्देशों की अनदेखी की। इसके चलते इस पर हैरानी नहीं कि अब कमलनाथ और अशोक गहलोत हाशिये पर चले जाएं।
छत्तीसगढ़ में कुछ समय पहले तक यह माना जा रहा था कि कांग्रेस भाजपा के मुकाबले बेहतर स्थिति में है, लेकिन महादेव एप घोटाला सामने आने के बाद हालात थोड़े बदल गए, लेकिन केवल इस एक मामले को भाजपा की जीत का कारण नहीं माना जा सकता। राजस्थान, मध्य प्रदेश की तरह छत्तीसगढ़ में भी प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता प्रभावी सिद्ध हुई। इन तीनों राज्यों में मोदी के नाम पर भी भाजपा के पक्ष में वोट पड़े। इसकी पुष्टि इससे होती है कि इन राज्यों में भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की घोषणा नहीं की थी। भाजपा मोदी की लोकप्रियता भुनाने में इसलिए सफल रही, क्योंकि इस समय देश में उनकी जैसी लोकप्रियता किसी नेता की नहीं।
विधानसभा चुनावों को लेकर कहा जाता है कि जनता क्षेत्रीय मुददों पर वोट देती है, पर तीन राज्यों में भाजपा की जीत ने यह सिद्ध किया कि राज्यों के चुनावों में मोदी की छवि और उनकी लोकप्रियता भी एक बड़ा फैक्टर है। इन तीनों राज्यों में भाजपा ने जो भी वादे किए, उन्हें प्रधानमंत्री ने मोदी की गारंटी की संज्ञा दी और लोगों में यह भरोसा जगाया कि जो वादे किए जा रहे हैं, उन्हें पूरा किया जाएगा। लोगों ने मोदी की गारंटी पर इसलिए भरोसा किया, क्योंकि वे इससे परिचित थे कि केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाएं कितने प्रभावी ढंग से काम कर रही हैं।
इन तीनों राज्यों में भाजपा की जीत ने न केवल कांग्रेस की चुनावी तैयारियों की पोल खोल दी, बल्कि आने वाले लोकसभा चुनावों में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत की संभावनाएं और अधिक बढ़ा दीं। इन चुनावों में भाजपा ने एक और अनूठा प्रयोग यह किया कि अपने सांसदों और यहां तक कि केंद्रीय मंत्रियों को चुनाव मैदान में उतारा। उन्हें न केवल अपनी सीट जीतने की जिम्मेदारी दी गई, बल्कि अपने आसपास की सीट जितवाने का दायित्व सौंपा गया।चार राज्यों में चुनाव लड़ने वाले 21 में से 11 सांसद और केंद्रीय मंत्री चुनाव जीत भी गए। इनमें से कुछ मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी हैं।
निःसंदेह कांग्रेस ने तेलंगाना में शानदार जीत हासिल की, लेकिन इस जीत का जश्न इसलिए फीका पड़ गया, क्योंकि उत्तर भारत में हिमाचल को छोड़कर वह कहीं पर भी सत्ता में नहीं रह गई है। उसे मिजोरम में भी केवल एक सीट मिली, जबकि भाजपा यहां दो सीटें जीतने में सफल रही। तेलंगाना में कांग्रेस ने इसलिए जीत हासिल की, क्योंकि वह केसीआर सरकार को अपदस्थ करने में समर्थ दिखी। यहां उसने चुनावी रणनीतिकार सुनील कनुगोलू की रणनीति पर काम किया। यह काम वह राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसलिए नहीं कर सकी, क्योंकि अशोक गहलोत, कमलनाथ और भूपेश बघेल ने यह माहौल बना रखा था कि वे अपने दम पर जीत हासिल कर लेंगे। यह आश्चर्यजनक है कि कांग्रेस आलाकमान यानी गांधी परिवार अपने इन क्षत्रपों पर सुनील कनुगोलू जैसे चुनावी रणनीतिकार की सेवाएं लेने के लिए राजी नहीं कर सका। इससे यही संदेश निकला कि अपने क्षत्रपों के आगे गांधी परिवार अब पहले जितना असरदार नहीं।
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा का मुकाबला कांग्रेस से ही था। चूंकि पांच साल पहले इन तीनों राज्यों में कांग्रेस ने जीत हासिल की थी, इसलिए इन राज्यों के नतीजे उसके लिए एक बड़ा झटका हैं। ये नतीजे कांग्रेस को निराश करने वाले तो हैं ही, आइएनडीआइए गठबंधन की एकजुटता और उसमें कांग्रेस का दबदबा कायम रहने की संभावना पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले भी हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि छह दिसंबर को कांग्रेस की ओर से बुलाई गई आइएनडीआइए की बैठक को टालना पड़ा, क्योंकि ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार आदि ने दिल्ली आने से इन्कार कर दिया।
साफ है कि कांग्रेस को इस गठबंधन को एकजुट करने के लिए नए सिरे से कवायद करनी होगी और साथ ही क्षेत्रीय दलों के दबाव का भी सामना करना पड़ेगा। अब राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता और उनकी रणनीति पर भी और सवाल उठेंगे। उन्होंने हमेशा की तरह इस बार भी प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ खूब उलटे-सीधे बयान दिए और उन्हें पनौती तक कहा। इससे मोदी की छवि पर तो कोई असर नहीं पड़ा, लेकिन राहुल की अपरिपक्व नेता की छवि और गहरी हुई। तीन राज्यों के नतीजे यह भी बता रहे हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खरगे का हिंदी पट्टी में कोई असर नहीं। यह असर इसलिए नहीं, क्योंकि सब जानते हैं कि वह केवल नाम के अध्यक्ष हैं।
[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]