डॉ ऋतु सारस्वत। अपने देश में पति-पत्नी के रिश्तों में दरार के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। हाल के एक आंकड़े के अनुसार 2021 में देश भर की पारिवारिक अदालतों में विवाह विच्छेद के जो मामले करीब पांच लाख थे, वे 2023 में बढ़कर आठ लाख से अधिक हो गए। आंकड़ों के अनुसार फैमिली कोर्ट में जितने मामले निपटाए जाते हैं, उतने ही नए दर्ज हो जाते हैं। तलाक के बढ़ते मामले एक बड़े सामाजिक बदलाव की ओर इशारा कर रहे हैं। क्या संबंध विच्छेद के बढ़ते मामलों को सिर्फ व्यक्तिगत निर्णय मानना उचित होगा? क्या यह जरूरी नहीं कि उन नकारात्मकताओं पर ध्यान दिया जाए, जो सामाजिक ढांचे को ध्वस्त कर रही हैं।

तथाकथित आधुनिकतावादी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए विवाह को एक ‘संस्था’ के रूप में स्वीकारने को रूढ़िगत विचार मानते हैं। उनका तर्क है कि जब भारत में तलाक की दर दुनिया भर में सबसे कम है तो उस पर इतना हंगामा करने की क्या जरूरत है? यकीनन भारत में संबंध विच्छेद के मामले कम हैं, परंतु जिस तीव्र गति से इनमें वृद्धि हो रही है, उससे क्या यह आशंका नहीं कि भविष्य में हम पश्चिमी देशों के बराबर खड़े हो जाएंगे? यदि ऐसा हुआ तो इसका बुरा असर समाज के साथ-साथ देश पर भी पड़ेगा।

आम तौर पर संबंध विच्छेद की सबसे अधिक पीड़ा बच्चों के हिस्से में आती है। सारा मैकलानहन और गैरी सैंडफूर की पुस्तक-‘ग्रोइंग अप विद ए सिंगल पेरेंट: व्हाट हर्ट्स, व्हाट हेल्प्स’, एकल परिवारों में पलने वाले बच्चों की त्रासदी बयान करती है। इस पुस्तक के अनुसार एकल परिवार में पले लड़कों में निष्क्रिय रहने की प्रवृत्ति होती है और लड़कियों में अवसाद एवं भटकाव की आशंका काफी अधिक बढ़ जाती है। एक शोध से पता चला है कि जिन बच्चों ने माता-पिता के तलाक का अनुभव किया है, उनके अपराधों में संलग्न होने की अधिक आशंका होती है।

विवाह एक साझा उत्तरदायित्व है। इसके लिए किसी एक पक्ष को पूर्ण रूप से दोषी ठहराना उचित नहीं होगा, परंतु इस तथ्य पर विचार करना आवश्यक है कि बीते कुछ दशकों में संबंधों के बिखराव के क्या कारण हैं? यक्ष प्रश्न यह है कि सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में ऐसे क्या बदलाव आए हैं कि संबंधों का निर्वहन चुनौती बन गया है? नारीवाद की दूसरी लहर की उत्प्रेरक बेट्टी फ्रीडन की पुस्तक ‘द फेमिनिन मिस्टिक’ उस सामाजिक व्यवस्था का विरोध करती है, जिसमें महिलाओं की भूमिका विवाह और संतान उत्पत्ति स्वीकार की गई है।

कुछ दशक पहले नारीवादी समाजशास्त्री ऐन ओकले और क्रिस्टीन डेल्फी का खासा असर था। विवाह को लेकर इन दोनों के विचार बहुत नकारात्मक थे। इन्होंने विवाह को पितृसत्तात्मक व्यवस्था के उत्पाद के रूप में देखा, जो पति द्वारा पत्नी के शोषण पर आधारित था। नारीवादियों ने तलाक की संभावना का जश्न मनाया, क्योंकि उनका मानना था कि ऐसा होने से महिलाएं पुरुषों को छोड़कर उनके नियंत्रण से ‘मुक्त’ हो सकती थीं। पश्चिम से पनपी इस विचारधारा ने भारतीय संस्कृति में भी घुसपैठ की और परंपरागत वैवाहिक मूल्यों को कमजोर कर दिया।

प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि क्या महिलाएं यूं ही विवाह में प्रताड़ित और शोषित होती रहें? निश्चित ही सभ्य समाज में किसी के भी मानसिक एवं शारीरिक प्रताड़ना की जगह नहीं होनी चाहिए और ऐसे संबंधों से मुक्ति पाना अपरिहार्य भी है, परंतु प्रताड़ना की व्याख्या करना उलझा हुआ विषय है। तनिक मनमुटाव, मामूली बहस या भौतिक आकांक्षाओं की अपेक्षानुरूप पूर्ति न होना प्रताड़ना है या फिर छद्म अहं की संतुष्टि न होना? उलरिच बेक और एलिजाबेथ बेक-गर्नशेम ने उत्तर आधुनिकतावादी समाज में रिश्तों पर व्यापक शोध किया। उनका मानना है, चूंकि लोगों के पास आर्थिक और व्यक्तिगत स्तर पर अनेक विकल्प उपलब्ध हैं, इसलिए वे सहजता से ही किसी रिश्ते से बाहर निकलने के लिए तत्पर हो जाते हैं।

अमूमन विवाह विच्छेद की स्थिति में पुरुषों को ही दोषी मानने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है और उन्हें स्वार्थी माना जाता है, परंतु क्या वाकई ऐसा है? अप्रैल 2021 में साइकोलाजिकल साइंस में प्रकाशित शोध ‘सेक्स डिफरेंस इन मेल प्रेफरेंसेस एक्रास 45 कंट्रीज: ए लार्ज स्केल रिप्लिकेशंस’ स्पष्ट करता है कि महिलाएं विवाह में वित्तीय संसाधनों को पुरुषों की तुलना में प्राथमिकता देती हैं और ऐसे पुरुष के साथ विवाह करना चाहती हैं, जो उनकी तमाम भौतिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकें।

आधुनिकता की कथित अग्रणी श्रेणी में खड़ी महिलाएं परंपरागत वैवाहिक व्यवस्था का उपहास उड़ाती आई हैं। शिक्षित और आत्मनिर्भर होने की स्थिति में भी वे सुख-सुविधाओं के लिए अपने जीवनसाथी से अपेक्षा करती हैं। इस सत्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि आधुनिक समाज में लोग विवाह को एक उत्पाद मानते हैं। यदि यह उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं करता या कुछ और बेहतर दिखाता है, तो वे आसानी से ‘छुटकारा’ पा लेते हैं। वैवाहिक रिश्तों में घटती सह-निर्भरता दंपतियों में अलगाव की आशंका को बढ़ा देती है।

आधुनिकता के ढांचे में ढलता समाज सह-निर्भरता को हेय दृष्टि से देखता है, परंतु रिश्तों के स्थायित्व के लिए यह आवश्यक है। वैयक्तिक हितों को प्राथमिकता और जीवनसाथी के हितों के प्रति असंवेदनशीलता वैवाहिक संबंधों को पीड़ाजनक बना देती है। विवाह कोई रणक्षेत्र नहीं है, जहां प्रतिस्पर्धा हो या फिर एक-दूसरे को परास्त करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की रणनीति अपनाना आवश्यक हो। यह दायित्व, समर्पण और त्याग की आधार भूमि पर खड़ी होने वाली संस्था है। संबंधों का बाजारीकरण न आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहतर है, न समाज और देश के लिए।

(लेखिका समाजशास्त्री हैं)