परीक्षाओं पर गंभीर चर्चा का समय: मरते हैं युवाओं के सपने और गिरती है सरकारों की साख
हमें पेपर लीक के मामले को राजनीति के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। सच तो यह है कि इसने देश में उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी छात्रों के भविष्य को अंधेरे में डाल दिया है। यह किसी ‘राज्य विशेष’ और ‘पार्टी विशेष’ का मामला नहीं है यह देश की युवा आबादी के भविष्य से जुड़ा अहम विषय है। ऐसे में गंभीरता से ‘परीक्षा पे चर्चा’ करने की आवश्यकता है।
डॉ. ब्रजेश कुमार तिवारी। पिछले दिनों पेपर लीक होने की शिकायत मिलने के बाद देश भर के विश्वविद्यालयों में पीएचडी में नामांकन, जूनियर रिसर्च फेलोशिप (जेआरएफ) और असिस्टेंट प्रोफेसर की योग्यता हासिल करने के लिए होने वाली यूजीसी-नेट परीक्षा भी रद कर दी गई। यह परीक्षा देश भर के 317 शहरों में आयोजित की गई थी और इसके लिए 11.21 लाख उम्मीदवारों ने पंजीकरण कराया था।
इससे पहले मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए होने वाली नीट-यूजी परीक्षा के प्रश्नपत्र लीक होने की बात सामने आई थी। इन दोनों मामलों की जांच सीबीआइ कर रही है। नीट-यूजी के पेपर लीक मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट भी कर रहा है। इस साल नीट-यूजी के लिए रिकार्ड 23 लाख उम्मीदवारों ने रजिस्ट्रेशन कराया था। पेपर लीक के इन मामलों के सामने आने के बाद नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) ने नीट-पीजी समेत कुछ और परीक्षाओं को टाल दिया।
देखा जाए तो पेपर लीक होने की बीमारी सिर्फ प्रतियोगी और प्रवेश परीक्षाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसकी पहुंच स्कूलों-कालेजों की परीक्षाओं तक भी हो गई है। सबसे ज्यादा युवा आबादी वाले देश भारत में पेपर लीक कांड स्वीकार्य नहीं हैं। इसका जल्द से जल्द समाधान निकाला जाना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसरो के पूर्व चेयरमैन के. राधाकृष्णन की अगुआई में गठित समिति इसका कोई उपाय करेगी। अभी की स्थिति ऐसी है कि जब तक जांच होती है तब तक कोई दूसरा पेपर लीक हो जाता है।
देश में पेपर लीक की बीमारी कोई नई नहीं है। पेपर लीक एक ऐसा नासूर है, जो समय के साथ और ज्यादा गहरा होता गया है। पिछले सात वर्षों में देश के अलग-अलग राज्यों में 70 से अधिक परीक्षाओं के पेपर लीक हुए हैं। इससे पहले वर्ष 1997 में आइआइटी-जेईई और 2011 में आल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट जैसी प्रतिष्ठित परीक्षाओं के पेपर भी लीक हो चुके हैं। इससे करीब दो करोड़ युवाओं का करियर प्रभावित हुआ है।
प्रश्नपत्र लीक होने और परीक्षा रद होने से युवाओं के सपने मरते हैं। उनके अभिभावकों द्वारा पेट काट कर खर्च किया गया पैसा भी व्यर्थ चला जाता है। पेपर लीक रोकने के सरकारी प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। पेपर लीक माफिया कभी परीक्षा का आयोजन करने वाली एजेंसी के सर्वर को हैक कर लेते हैं। कभी परीक्षा सेंटर से साठगांठ कर पेपर लीक कर देते हैं। कुछ समय पहले यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा का पेपर ट्रांसपोर्ट कंपनी की मिलीभगत से लीक किया गया था।
हालांकि पेपर लीक और नकल के दोषी पाए जाने वालों के खिलाफ केंद्र और राज्य सरकारों ने सख्त कानून बनाए हैं, लेकिन इनके बावजूद पेपर लीक बददस्तूर जारी है। सवाल है कि आरोपियों के पकड़े जाने के बाद भी वे आसानी से कैसे छूट जाते हैं, जबकि कानून में तो सजा के कड़े प्रविधान हैं? जाहिर है सिर्फ कड़ी सजा भर से इस समस्या का कोई असरदार हल नहीं निकलने वाला है।
संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा में हर साल करीब 10 लाख से ज्यादा अभ्यर्थी बैठते हैं। इसमें कहीं कोई शिकायत नहीं आती। साफ-सुथरी परीक्षाएं कैसे कराई जाती हैं, यह एनटीए को यूपीएससी से सीखना चाहिए। इन दिनों कहा जा रहा है कि प्रौद्योगिकी-आधारित यानी कंप्यूटर आधारित आनलाइन परीक्षाएं कराई जानी चाहिए, लेकिन इसमें भी सेंध लगने का खतरा है।
न भूलें यह एआइ का दौर है। अगर किसी मंत्रालय की वेबसाइट हैक हो सकती है तो परीक्षाएं क्यों नहीं? वास्तव में, भर्ती आयोगों में राजनीतिक संपर्क वाली नियुक्तियों पर पूरी तरह रोक लगाई जानी चाहिए। परीक्षा आयोग की अपनी प्रिंटिंग प्रेस होनी चाहिए। साफ्ट कापी को सीधे कोड लाक के माध्यम से 20 मिनट पहले परीक्षा केंद्रों पर भेजा जाना चाहिए। इसे छपवाकर वहां मौजूद अभ्यर्थियों तक पहुंचाया जाना चाहिए।
इस पद्धति से प्रश्नपत्र प्रेस में छपाई की तुलना में थोड़े महंगे जरूर होंगे, लेकिन सुरक्षित और लीकप्रूफ होंगे। केंद्राध्यक्ष सहित सभी के लिए मोबाइल फोन प्रतिबंधित होना चाहिए। पेपर सेट तैयार करने से लेकर परीक्षा केंद्र तक वितरण में सैकड़ों लोग शामिल होते हैं, इसलिए ऊपर से नीचे तक सभी की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। याद रहे कि सार्वजनिक परीक्षा के पेपर लीक का अपराध बड़े पैमाने पर जनता को प्रभावित करता है। इससे आम जन के संसाधनों के साथ ही राज्य के खजाने पर भी भारी वित्तीय बोझ पड़ता है।
सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 2024 में भी कई खामियां हैं, जिसे तत्काल सुधारने की आवश्यकता है। इस अधिनियम में कारावास की न्यूनतम अवधि तीन साल है, जिसे दस साल करना चाहिए। वहीं निर्धारित सजा की राशि अपराध की गंभीरता के अनुरूप नहीं है। इसमें समयबद्ध जांच का भी कोई प्रविधान नहीं है।
अधिनियम में किसी अपराध के लिए जुर्माना अदा न करने की स्थिति में कारावास की अतिरिक्त सजा के साथ-साथ अपराधी की संपत्ति जब्त करने का प्रविधान भी शामिल किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त अनुचित साधनों का लाभ उठाने में शामिल उम्मीदवार को भविष्य की किसी भी परीक्षा के लिए अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए। पूरी प्रक्रिया पर नजर रखने के लिए पेपर सेटिंग से लेकर परीक्षा केंद्रों पर सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने चाहिए।
हमें पेपर लीक के मामले को राजनीति के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। सच तो यह है कि इसने देश में उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी छात्रों के भविष्य को अंधेरे में डाल दिया है। यह किसी ‘राज्य विशेष’ और ‘पार्टी विशेष’ का मामला नहीं है, यह देश की युवा आबादी के भविष्य से जुड़ा अहम विषय है। ऐसे में गंभीरता से ‘परीक्षा पे चर्चा’ करने की आवश्यकता है।
(लेखक जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं)