[प्रणय कुमार]। भारतवर्ष के गौरवशाली वृत्तांत में एक और नया अध्याय जुड़ने जा रहा है। एक दिसंबर, 2022 से भारत दुनिया के शक्तिशाली समूह जी-20 की अध्यक्षता करने जा रहा है। जी-20 दुनिया की प्रमुख विकसित एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का अंतर-सरकारी मंच है। बीते दिनों प्रधानमंत्री ने जी-20 की अध्यक्षता का लोगो, थीम और वेबसाइट का अनावरण किया। लोगो के डिजाइन में कमल और पृथ्वी शामिल हैं। कमल की पंखुड़ियां विश्व के सात महाद्वीपों का प्रतिनिधित्व करती हैं। वहीं भारत की जी-20 अध्यक्षता का विषय ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य है।’ यह विषय भारतीय संस्कृति में निहित ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना के सर्वथा अनुकूल है।

यह संपूर्ण विश्व एवं प्रकृति के प्रति भारत के सकारात्मक एवं सहयोगपूर्ण दृष्टिकोण को भी व्यक्त करता है। जब विकसित देशों के मध्य दुनिया को बाजार मानकर उस पर नियंत्रण और वर्चस्व स्थापित करने की होड़ मची हो, तब संपूर्ण पृथ्वी को परिवार मानने का भारत का यह भाव प्रशंसनीय एवं समाधानपरक है। निःसंदेह इस धरा और संपूर्ण मानव जाति का भविष्य सह-अस्तित्व और पारस्परिक सहयोग के इस परिवार भाव में ही निहित है। हिंसा एवं कलह से पीड़ित और युद्ध की आशंका से ग्रस्त वर्तमान विश्व को संदेश देने के लिए कीचड़ में खिले रहने वाले कमल से उपयुक्त भला और कौनसा प्रतीक होता।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि गौरव के इन क्षणों में भी कांग्रेस समेत कुछ राजनीतिक दल लोगो में ‘कमल’ को शामिल किए जाने का विरोध कर रहे हैं। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इन दिनों देश के बाहर एवं भीतर एक ऐसा आर्थिक-सामाजिक-वैचारिक तंत्र यानी इकोसिस्टम सक्रिय है, जो भारत की उपलब्धियों पर प्रसन्न होने के बजाय निराश अधिक होता है।

चाहे दुनिया भर में भारतवंशियों द्वारा उपलब्धि हासिल करने का मामला हो, विश्व राजनीति में भारत की बढ़ती साख एवं विश्वसनीयता हो, राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक प्रतीकों तथा भारतीय ज्ञान-परंपरा को महत्व प्रदान करना हो, स्वतंत्रता-आंदोलन में गिने-चुने नेताओं की तुलना में अन्य अग्रणी नेताओं एवं आंदोलनकारियों को भी यथोचित सम्मान देना हो, सामाजिक-सांस्कृतिक आस्था के केंद्रों-मंदिरों आदि के निर्माण एवं जीर्णोद्धार का मुद्दा हो, कोविड से उत्पन्न चुनौतियों से कुशलतापूर्वक निपटने, बढ़ती महंगाई पर नियंत्रण रखते हुए वांछित विकास दर को बनाए रखने आदि का मुद्दा हो-क्या इनमें से एक भी मुद्दा या प्रसंग ऐसा है, जिसमें विपक्षी दलों ने विरोध के सुर न छेड़े हों?

विरोध के लिए विरोध की राजनीति का आलम यह है कि संसद भवन पर बने अशोक-स्तंभ, इंडिया गेट पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा का अनावरण, राजपथ का नया नामकरण (कर्तव्य पथ), राष्ट्रगान, राष्ट्रीय ध्वज और विभिन्न कार्यक्रमों एवं मांगलिक अवसरों पर दीप-प्रज्वलन आदि भी उससे अछूते नहीं। आश्चर्य है कि कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों को कमल में भाजपा का चुनाव-चिह्न तो दिख गया, पर उसका राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक महत्व नहीं दिखा।

क्या यह सत्य नहीं कि कमल को उसकी सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्ता के कारण ही 1950 में नेहरू सरकार द्वारा राष्ट्रीय पुष्प घोषित किया गया था? कमल का फूल भारत के सभी धर्मों-पंथों में समान रूप से महत्वपूर्ण रहा है। हिंदू धर्म में उसे भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न बताया गया है। उन्होंने शंख, चक्र, गदा के साथ कमल को भी धारण कर रखा है।

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी, धन-धान्य प्रदान करने वाली माता लक्ष्मी और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती का वह आसन है। देवी लक्ष्मी को पद्मा, कमला, कमलासना कहा गया है। यहां तक कि एक पुराण का नाम ही ‘पद्म पुराण’ है। कीचड़ में उत्पन्न होने के बावजूद वह सदैव उससे निर्लिप्त रहकर पवित्र-भाव से खिले रहने एवं जीने की प्रेरणा देता है। गीता के पांचवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी महत्ता पर कहा है कि ‘जो कोई परिणाम के प्रति आसक्ति का परित्याग कर निर्लिप्त भाव से भगवान को अर्पित होकर कर्म करता है, वह पाप या कर्मफल से उसी प्रकार अछूता रहता है, जैसे जल या कीचड़ से कमल अछूता रहता है।’

कमल का उपयोग धार्मिक एवं सांस्कृतिक अनुष्ठानों में शताब्दियों से किया जाता रहा है। मंदिरों के गुंबदों, स्तंभों और दीवारों आदि पर कमल के चित्र विशेष रूप से उकेरे गए हैं। बौद्ध धर्म में इसे ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। भगवान बुद्ध की अधिकांश मूर्तियों में उन्हें कमल पर आसीन दिखाया गया है। जैन मंदिरों, कला, मूर्तिकला एवं स्थापत्य आदि में कमल का पर्याप्त प्रयोग मिलता है। जैन परंपरा में पारमेष्ट्य की पूजा का विधान है। इन पारमेष्ट्यों को कमल की पंखुड़ियों के द्वारा ही प्रदर्शित किया गया है। सिख परंपरा में इसे मानव आत्मा का प्रतीक माना गया है। श्री गुरुग्रंथ साहिब में सैकड़ों बार उदाहरण के रूप में इसका उल्लेख किया है।

इसकी ऐतिहासिकता, पौराणिकता एवं सांस्कृतिक महत्ता के कारण ही 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में जन-जन तक स्वतंत्रता का संदेश पहुंचाने के लिए संभवतः रोटी के साथ-साथ कमल को भी प्रतीक के रूप में चुना गया था। स्वतंत्रता के उपरांत भी विभिन्न शैक्षणिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रतीक-चिह्नों, सरकारी आयोजनों एवं डाक टिकट आदि में इसका उपयोग किया जाता रहा है। किसी स्वस्थ एवं गतिशील लोकतंत्र में रचनात्मक विरोध के लिए सदैव स्थान होता है, परंतु राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक प्रतीकों को निरर्थक विवादों में घसीटना सर्वथा अनुचित है।

(लेखक शिक्षाविद् एवं सामाजिक संस्था ‘शिक्षा-सोपान’ के संस्थापक हैं)