गिरीश्वर मिश्र। शिक्षा की बहुआयामी भूमिका से शायद ही किसी की असहमति हो। समाज के अस्तित्व, संरक्षण और संवर्धन के लिए शिक्षा जैसा कोई सुनियोजित उपाय नहीं है। इसीलिए हर देश में शिक्षा में निवेश वहां की अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख अवयव रहा है। आज ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दृष्टि से विश्व में अग्रणी राष्ट्र अपनी शिक्षा व्यवस्था पर विशेष ध्यान दे रहे हैं।

वे शिक्षा की गुणवत्ता को समृद्ध करने के लिए निरंतर सक्रिय हैं। देश, काल और परिस्थिति की बनती-बिगड़ती मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के कलेवर में बदलाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह एक तथ्य है कि भारत में शिक्षा अनेक विसंगतियों से जूझती आ रही है। इस सबके चलते हमारी समग्र व्यवस्था चरमरा रही है। शिक्षा के क्षेत्र में ढलान के लक्षण लाभकारी नहीं हैं। इसका सभी स्तरों पर कुछ न कुछ नुकसान उठाना ही पड़ता है।

एक समय देश में साहित्य, आयुर्वेद, ज्योतिष, नाट्यशास्त्र, व्याकरण, योग, न्याय, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र और वेद आदि अनेक विषयों का अध्ययन-अध्यापन हो रहा था। उपलब्ध ग्रंथों से इन विषयों को लेकर हुई कठिन साधना का कोई भी सहज ही अनुमान लगा सकता है। आज यह ज्ञान परंपरा सांस ले रही है। विदेशी आक्रांताओं ने हमारी देशज शिक्षा में षड्यंत्रकारी दखल दिया।

इसका सबसे दूरगामी असर अंग्रेजों के जमाने में शुरू हुआ। यह बात प्रमाणित है कि भारत का दोहन और शोषण ही साम्राज्यवादी अंग्रेजी राज का एकल उद्देश्य था। पाश्चात्य ज्ञान को रोप कर यहां की ज्ञान परंपरा को विस्थापित करने का काम अंग्रेजों ने किया। भारतीय मानस को पश्चिमी सांचे में ढालना और देशज ज्ञान के प्रति भारतीयों के मन में वितृष्णा का भाव पैदा करना अंग्रेजों का उद्देश्य बन गया। परिणामस्वरूप भारतीय शिक्षा के समग्र, समावेशी और स्वायत्त स्वरूप विकसित करने की बात धरी की धरी ही रह गई। हम उसके अंशों में थोड़ा बहुत हेरफेर कर काम चलाते रहे।

स्वतंत्र भारत में अपनाई गई शिक्षा की नीतियां, योजनाएं और उनका कार्यान्वयन प्रायः पुरानी लीक पर ही अग्रसर हुआ। स्वतंत्र होने के बाद भी पश्चिमी माडल के जाल से आज भी हम उबर नहीं पाए हैं। शिक्षा का बाजारीकरण देशज शिक्षा को पीछे धकेल रहा और हम सब अचेत तो नहीं, पर दिग्भ्रम में जरूर पड़े रहे।

लगभग दो सदी तक कायम रही अंग्रेजी सत्ता के प्रभाव में हमारी सभ्यता में भी वेश-भूषा, खानपान और मनोरंजन आदि में परिवर्तन आया। इससे सांस्कृतिक मूल्यों में भी परिवर्तन शुरू हुआ। पाश्चात्य दृष्टि को मानक, वैज्ञानिक और सार्वभौमिक मान कर उसे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में आरोपित किया जाता रहा।

व्यवस्था की जड़ता इतनी रही कि शिक्षा के प्रसंग में उठने वाले सभी सरोकार जैसे देश का विकास, शिक्षण की गुणवत्ता, विभिन्न सामाजिक वर्गों का समावेशन, शिक्षा जगत में स्वायत्तता की स्थापना, शैक्षिक नवाचार बातचीत के विषय तो बनते रहे, किंतु वास्तविकता में यथास्थिति ही बनी रही।

आज प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक इतने पैमाने देश में चल रहे हैं और लोकतंत्र के नाम पर इतने तरह की विकृतियां पनप गई हैं कि उनसे पार पाना मुश्किल हो रहा है। शिक्षा में तदर्थवाद का बोलबाला बढ़ गया है। शिक्षा व्यवस्था में भारी विषमताएं आ गईं हैं। सरकारी, अर्ध-सरकारी और स्ववित्तपोषित संस्थाओं की अजीबोगरीब खिचड़ी पक रही है। सबके मानक और गुणवत्ता के स्तर भिन्न हैं।

फीस, प्रवेश, पढ़ाई और परीक्षा के तौर-तरीके भी बेमेल हैं। बच्चे को पढ़ाना अभिभावकों के लिए बरसों-बरस चलने वाला संघर्ष बन गया है। भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने का बहुप्रचारित संकल्प बड़ा ही लुभावना लगता है, पर इस संकल्प को साकार करने के लिए किसी जादुई छड़ी से काम न चलेगा। उसके लिए योग्य, प्रशिक्षित और निपुण मानव संसाधन की जरूरत सबसे अधिक होगी। जनसंख्या वृद्धि को देखते हए शिक्षा में प्रवेश चाहने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। ऐसे में बजट में शिक्षा के लिए प्रविधान बढ़ाने की जरूरत है।

अनेक वर्षों से शिक्षा पर जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च करने की बात कही जा रही है, परंतु वास्तविक व्यय तीन प्रतिशत भी बमुश्किल हो पाता है। कड़वा सच यह भी है कि खानापूर्ति से आगे बढ़ कर कुछ करने का अवसर सिकुड़ता रहा है। हमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के महत्वाकांक्षी प्रस्तावों के कार्यान्वयन के लिए वित्त की आवश्यकता को स्वीकार करना होगा।

फरवरी-मार्च 2024 में प्रकाशित आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि शिक्षा के लिए आवंटित राशि में लगभग 8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह राशि शिक्षा के लिए अपेक्षित निवेश सीमा से कम है। एक तरफ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बजट को कम किया गया है तो दूसरी तरफ केंद्रीय विश्वविद्यालयों को अधिक राशि आवंटित की गई है। सरकार को उच्च शिक्षा में बेहतर और समावेशी अवसर पैदा करने के लिए नए क्षेत्रों में संभावनाओं को तलाशना होगा।

सरकार को यह भी संज्ञान में लेना होगा कि यदि शिक्षा रूपी लोकवस्तु पर राज्य अपना निवेश नहीं बढ़ाएगा तो इसका लाभ बाजार की ताकतें उठाएंगी। इसका दोहरा नुकसान होगा। पहला, शिक्षा के लिए आम आदमी का निवेश बढ़ जाएगा। दूसरा, भारत जैसे देश में समावेशन की गंभीर समस्या पैदा हो जाएगी।

यह भी विचारणीय है कि आधुनिक तकनीकी के माध्यम से शिक्षा के प्रसार और विस्तार के लिए भी प्राथमिकता से निवेश करना होगा। सरकार द्वारा संस्थानों से स्ववित्त पोषण की उम्मीद करना शिक्षा के लोक स्वरूप को क्षति पहुंचाएगा। विकसित भारत की परिकल्पना को साकार करने के लिए शिक्षा को प्रभावी बनाना ही होगा। शिक्षा को प्राथमिकता में रखना समय की मांग है।

(लेखक पूर्व प्रोफेसर एवं पूर्व कुलपति हैं)