अधर में अटका विपक्षी गठबंधन, तीन राज्यों के चुनावी नतीजों ने आइएनडीआइए की संभावनाएं और स्याह कर दीं
कुछ नेताओं ने कहा कि कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस में अहंकार घर कर गया। शिव सेना-उद्धव गुट ने कहा कि कांग्रेस उदारता दिखाते हुए सभी को साथ लेकर चल सकती थी। तृणमूल कांग्रेस ने भी इस घटनाक्रम को लेकर अपनी चिंता जताई। नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला ने कहा कि अगर कांग्रेस मध्य प्रदेश में सपा को चार-पांच सीटें दे देती तो उसका क्या घट जाता।
ए. सूर्यप्रकाश। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को किसी भी सूरत में केंद्र की सत्ता से हटाने के लिए एकजुट हुए विपक्षी दलों के मोर्चे आइएनडीआइए की संभावनाएं हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में भाजपा की जोरदार जीत के बाद और स्याह हो गई हैं। इन दलों के बीच खटपट के संकेत तो विधानसभा चुनावों के दौरान ही मिल गए थे। मध्य प्रदेश में कांग्रेस और सपा के बीच तीखी जुबानी जंग देखने को मिली। सपा के एक प्रवक्ता ने तो कांग्रेस को झूठे और धोखेबाजों की पार्टी करार दे दिया था।
सपा मध्य प्रदेश में कांग्रेस से चार सीटें मांग रही थी। इसके लिए कई दौर की वार्ताएं भी हुईं, लेकिन अंत में कांग्रेस ने सपा के लिए कुछ नहीं छोड़ा। तिस पर कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने अखिलेश यादव को लेकर अपमानजनक बातें कहीं। कांग्रेस को लेकर जदयू के तेवर भी नरम नहीं थे। उसके प्रवक्ता ने अन्य दलों के नेताओं के प्रति कांग्रेसियों की अपमानजनक टिप्पणियों पर आक्रोश व्यक्त किया। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि सपा और आइएनडीआइए के अन्य घटक दलों ने नतीजे आने के बाद कांग्रेस पर निशाना साधने में देरी नहीं की।
कुछ नेताओं ने कहा कि कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस में अहंकार घर कर गया। शिव सेना-उद्धव गुट ने कहा कि कांग्रेस उदारता दिखाते हुए सभी को साथ लेकर चल सकती थी। तृणमूल कांग्रेस ने भी इस घटनाक्रम को लेकर अपनी चिंता जताई। नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला ने कहा कि अगर कांग्रेस मध्य प्रदेश में सपा को चार-पांच सीटें दे देती तो उसका क्या घट जाता।
तीन दिसंबर को आए चुनाव नतीजों के बाद आइएनडीआइए का किला मजबूत करने के लिए कांग्रेस ने छह दिसंबर को मोर्चे की बैठक बुलाई, लेकिन सहयोगी दलों के नेताओं ने इससे दूरी बनाना ही मुनासिब समझा। इसके पीछे एक कारण चुनावों के दौरान कांग्रेस का आक्रामक रवैया माना गया। बैठक से किनारा करने वाले अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और एमके स्टालिन उन राज्यों के ताकतवर नेता हैं, जहा लोकसभा की 161 सीटें हैं। उक्त बैठक के स्थगित होने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के आवास पर रात्रिभोज का आयोजन हुआ, जिसमें आइएनडीआइए के 26 दलों में से 17 के प्रतिनिधि शामिल हुए।
जुलाई में अस्तित्व में आने के बाद से ही आइएनडीआइए की राह बड़ी रपटीली रही है। उसने खुद को किसी केंद्रीय विचारधारा से नहीं जोड़ा। उसका केवल एक ही सोच दिखता है और वह है प्रधानमंत्री मोदी के प्रति नफरत। आइएनडीआइए के घटक किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री मोदी की सत्ता से विदाई चाहते हैं, लेकिन केवल यही पहलू जनता को लुभाने के लिए पर्याप्त नहीं।
आइएनडीआइए की शुरुआती तीन बैठकों के बाद यह गठबंधन किसी सार्थक दिशा में आगे नहीं बढ़ पाया है, क्योंकि कांग्रेस का पूरा जोर विधानसभा चुनावों पर था। उसे उम्मीद थी कि छत्तीसगढ़ में उसकी वापसी तय है और मध्य प्रदेश को वह भाजपा से झटकने के साथ सहयोगी दलों के साथ बेहतर राजनीतिक सौदेबाजी में सक्षम हो सकेगी। कांग्रेस की यह योजना न केवल धराशायी हो गई, बल्कि उसके सहयोगी दल भी उसकी इस तिकड़म को भलीभांति समझ गए।
आइएनडीआइए को आकार देने के लिए जब 26 दल एक मंच पर आए तो उन्होंने कहा कि इसके पीछे उनका मकसद ‘संविधान में उल्लिखित भारत के विचार की रक्षा’ करना है। उनकी ओर से यह भी कहा गया कि लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए वे आम चुनाव से पहले एक साझा मंच पर साथ आए हैं। भाजपा के राष्ट्रवाद की काट के लिए गठबंधन के कर्ताधर्ताओं ने आइएनडीआइए यानी ‘इंडिया’ जैसा नाम गढ़ा, जो एक जुमले से ज्यादा कुछ नहीं।
अगर इस गठबंधन में कांग्रेस के रवैये और उसके विपरीत भाजपा के नेतृत्व वाले राजग में भाजपा के रवैये से तुलना करें तो बड़ा अंतर पाएंगे। उदाहरण के लिए भाजपा उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अपने छोटे-छोटे सहयोगियों को भी पर्याप्त सम्मान देती है जबकि केंद्र और राज्य में अपनी सरकार के लिए पार्टी उनके समर्थन पर आश्रित भी नहीं।
अगर कांग्रेस आइएनडीआइए की संभावनाओं को बेहतर बनाना चाहती है तो उसे अपने कुछ सहयोगी दलों के उस फार्मूले को स्वीकार करना होगा, जिसमें उनका कहना है कि कांग्रेस केवल उन सीटों पर चुनाव लड़े, जहां भाजपा के साथ उसकी सीधी टक्कर होती है। इस हिसाब से कांग्रेस को करीब 150 सीटों पर चुनाव लड़ना होगा और करीब 400 सीटें सहयोगी दलों के लिए छोड़नी होंगी। भले ही इस विचार का कुछ ठोस आधार दिखता हो, लेकिन कांग्रेस इसे अपना अपमान समझते हुए खारिज ही करेगी।
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख राज्य में अमेठी और रायबरेली से परे कांग्रेस का वजूद न के बराबर बचा है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व इस वास्तविकता को शायद ही स्वीकार करे। बंगाल, तमिलनाडु और बिहार में भी उसकी यही स्थिति है, लेकिन इसके बावजूद वह सहयोगियों पर अधिक सीटों के लिए दबाव बनाएगी। बंगाल में कांग्रेस और वामदलों को किनारे रखने वाली तृणमूल ने यह प्रस्ताव भी रखा है कि जो पार्टी जिस राज्य में मजबूत हो, वहां उसे उसी पार्टी के लिए छोड़ दिया जाए। बंगाल में फिलहाल कांग्रेस के दो लोकसभा सदस्य है। ऐसे में तृणमूल स्वाभाविक रूप से कांग्रेस को साथ नहीं रखना चाहेगी। पंजाब और दिल्ली में भी यही स्थिति है, जहां आम आदमी पार्टी यानी आप खासी मजबूत है। यहां विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का सफाया सा हो चुका है।
अपने-अपने राज्यों में शक्तिशाली क्षेत्रीय दल कांग्रेस पर दबाव डाल रहे हैं कि अगर मोदी को टक्कर देनी है तो उसे उनके हिसाब से चलना होगा। जहां इन दलों का यह मानना है कि अगर वे अपने राज्यों में कांग्रेस के लिए कुछ सीटें छोड़ भी दें तो वैचारिक भ्रम और सांगठनिक अक्षमता के चलते वह भाजपा का मुकाबला नहीं कर पाएगी, वहीं कांग्रेस सहयोगी दलों के इस प्रस्ताव को अपना अपमान समझ रही है।
(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)