जागरण संपादकीय: संकट में बांग्लादेशी हिंदुओं का अस्तित्व, बचे हैं ये तीन रास्ते
Bangladesh Unrest मतुआ धर्म महासंघ बंगाल में अपने डेढ़ करोड़ अनुयायियों के साथ आज भी नमशूद्र शरणार्थियों के लिए संघर्षरत है। विभाजन के समय कट्टरपंथियों के अत्याचार रोकने के लिए ही जोगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान सरकार में शामिल हुए। जब पाकिस्तान में कानून एवं श्रम मंत्री बनने के बाद भी वह अत्याचार नहीं रोक पाए तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
कृपाशंकर चौबे। बांग्लादेश में तख्तापलट के बाद वहां जिस तरह अल्पसंख्यकों यानी हिंदुओं, बौद्धों आदि पर हमले बढ़ गए हैं, उससे उनकी सुरक्षा फिर से खतरे में पड़ गई है। वहां अल्पसंख्यकों पर अत्याचार नए नहीं हैं। कट्टरपंथियों के अत्याचार से नमशूद्रों को बचाने के लिए ही हरिचंद ठाकुर ने 19वीं सदी के मध्य में फरीदपुर (तत्कालीन पूर्वी बंगाल) में मतुआ पंथ की स्थापना की थी। मतुआ यानी जो मानवतावादी मतवाले हैं। कट्टरपंथियों के अत्याचार से बचने के लिए गुरुचंद ठाकुर के पौत्र प्रमथ रंजन विश्वास 1948 में बंगाल के बनगांव आ गए थे। उन्होंने बंगाल में मतुआ धर्म महासंघ को संगठित किया।
मतुआ धर्म महासंघ बंगाल में अपने डेढ़ करोड़ अनुयायियों के साथ आज भी नमशूद्र शरणार्थियों के लिए संघर्षरत है। विभाजन के समय कट्टरपंथियों के अत्याचार रोकने के लिए ही जोगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान सरकार में शामिल हुए। जब पाकिस्तान में कानून एवं श्रम मंत्री बनने के बाद भी वह अत्याचार नहीं रोक पाए तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। नौ अक्टूबर, 1950 को पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को भेजे त्यागपत्र में मंडल ने लिखा था कि पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं पर मुस्लिम कट्टरपंथियों के जैसे हमले बढ़ते जा रहे हैं, उससे उनका मंत्री पद पर बने रहना संभव नहीं है। उन्होंने यह भी लिखा था कि देश विभाजन के बाद 50 लाख हिंदू पलायन करने को विवश हुए हैं।
हिंदुओं का पलायन उसके बाद भी थमा नहीं। बांग्लादेशी साहित्यकार सलाम आजाद ने अपनी पुस्तक ‘बांग्लादेश से क्यों भाग रहे हैं हिंदू’ में लिखा है कि कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के अत्याचार से तंग आकर 1974 से 1991 के बीच रोज औसतन 475 लोग यानी हर साल एक लाख 73 हजार 375 हिंदू हमेशा के लिए बांग्लादेश छोड़ने को बाध्य हुए। यदि उनका पलायन नहीं हुआ होता तो आज बांग्लादेश में हिंदू नागरिकों की आबादी सवा तीन करोड़ होती। सांप्रदायिक उत्पीड़न, सांप्रदायिक हमले, नौकरियों में भेदभाव, दमनकारी शत्रु अर्पित संपत्ति कानून और देवोत्तर संपत्ति पर कब्जे ने बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों को कहीं का नहीं छोड़ा है। सलाम आजाद ने लिखा है कि बांग्लादेश के हिंदुओं के पास तीन ही रास्ते हैं-या तो वे आत्महत्या कर लें या मतांतरण कर मुसलमान बन जाएं या पलायन कर जाएं। सलाम आजाद ने अपनी कृति ‘शर्मनाक’ में लिखा है कि अल्पसंख्यक समुदाय के पिता के सामने बेटी के साथ और मां-बेटी को पास-पास रखकर दुष्कर्म किया गया। दुष्कर्मियों की पाशविकता से सात साल की बच्ची से लेकर साठ साल की वृद्धा तक को मुक्ति नहीं मिली। बांग्लादेश से हिंदुओं को नेस्तनाबूद कर वहां उग्र इस्लामी तथा तालिबानी राजसत्ता कायम करने के मकसद से हिंदुओं पर चौतरफा अत्याचार किया गया।
सलाम आजाद ने जब बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर मुस्लिम कट्टरपंथियों के अत्याचार का सवाल उठाया तो उन्होंने उनके खिलाफ मौत का फतवा जारी कर दिया। उन्हें देश से निर्वासित होना पड़ा। शेख हसीना की सरकार बनने पर ही वह अपने देश लौट सके। तसलीमा नसरीन तो शेख हसीना के शासनकाल में भी अपने देश नहीं लौट सकीं। तसलीमा का उपन्यास ‘लज्जा’ तीन दशक पहले प्रकाशित हुआ तो कट्टरपंथियों ने उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया। तसलीमा आज भी अपने उस देश की कुशलता की कामना करती हैं, जो 1971 में बना। वर्ष 1971 में स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश का उदय पाकिस्तानी सेना के अकथ्य अत्याचार का परिणाम था। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम ने यह साबित किया कि मजहब के आधार पर राष्ट्र-राज्य के निर्माण का सिद्धांत निरर्थक है। अंग्रेजों की फूल डालो और राज करो की नीति उस सिद्धांत के मूल में थी। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 1912 में उर्दू साप्ताहिक ‘अल हिलाल’ निकाला था। उसके माध्यम से उन्होंने मुसलमानों को गैर-इस्लामिक परंपरा त्यागने को कहा। उन्होंने लिखा, ‘यदि मजहब के कारण लड़ाइयां हो रही हैं तो इसका मतलब है कि मजहब के अनुयायियों ने उसे समझने में गलती की है।’
स्वामी विवेकानंद सभी पंथों के एक ही परम तत्व सागर में विलीन होने की बात कहते थे, पर उनके अलग अस्तित्व के विरोध में नहीं थे। वह कहते थे, ‘हम सभी उपासना पद्धतियों को महज सहन करने के पक्ष में नहीं हैं, अपितु हम उन सभी को सच्चा मानते हैं।’ काश यह मजहबी कट्टरपंथियों को समझ आता! काश बांग्लादेश के कट्टरपंथी अपने मुक्ति संग्राम से ही सबक लेते कि किसी देश के बहुसंख्यकों द्वारा अपने अल्पसंख्यकों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं किए जाने पर उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है। यह सीख बांग्लादेश के बहुसंख्यकों ने बरती होती तो रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में ‘आमार सोनार बांग्ला’ आज सांप्रदायिकता की आग में न झुलस रहा होता।
दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं, जहां अल्पसंख्यक न मिलें। कहीं धार्मिक अल्पसंख्यक मिलेंगे, कहीं भाषाई, कहीं जातीय। सवाल है कि बांग्लादेश के अल्पसंख्यक कहां जाएं? बांग्ला लेखक कपिलकृष्ण ठाकुर के उपन्यास ‘उजानतलीर उप कथा’ में एक गीत का हिंदी भावार्थ है-स्वाधीन देश में मजहबी कट्टरता के कारण लोग पलायन करें, ऐसा सुना है क्या? बांग्लादेश में कभी 20 प्रतिशत से अधिक हिंदू थे। आज उनकी संख्या 7-8 प्रतिशत रह गई है। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में कट्टरपंथी ताकतों की भागीदारी के आसार देखते हुए वहां हिंदुओं का भविष्य और अधिक स्याह नजर आने लगा है। यह नहीं भूलना चाहिए कि मजहबी कट्टरता सबसे पहले लोकतंत्र को लील जाती है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)